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Caste Census... जितने राज्य उतनी तरह की राजनीतिक चुनौतियां! हिंदी हार्टलैंड से साउथ तक ऐसे बदल सकते हैं समीकरण

जातिगत जनगणना की राह में राजनीतिक चुनौतियां भी कई तरह की हैं. हिंदी हार्टलैंड से साउथ तक, केंद्र सरकार का यह दांव सियासी समीकरण बदलने वाला भी साबित हो सकता है.

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जातिगत जनगणना से बदल सकते हैं समीकरण
जातिगत जनगणना से बदल सकते हैं समीकरण

बिहार में विधानसभा चुनाव हैं और चुनावी साल में केंद्र सरकार के एक दांव ने सियासी दलों को उलझा दिया है. केंद्र सरकार ने देश में जातिगत जनगणना कराने का ऐलान कर दिया है. सरकार के इस दांव को बिहार चुनाव से पहले मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है. जम्मू कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण माहौल में सरकार की ओर से अचानक लिए गए इस फैसले के बाद बात अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह की चुनौतियों की भी हो रही है. बात इसे लेकर भी हो रही है कि हिंदी हार्ट लैंड यानी उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक, सियासी समीकरण कैसे बदल सकते हैं?

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केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का ऐलान कर दिया है, लेकिन इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं. चुनौतियों की शुरुआत ओबीसी लिस्ट से ही हो जाती है और इसका सामना तब भी करना पड़ता था, जब जातिगत जनगणना होती थी. 1901 में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के समय एचएच राइली ने जातियों का वर्गीकरण वर्ण व्यवस्था के आधार पर किया था. तब कई जातियां खुलकर इसके विरोध में आई थीं. साल 1931 में जब आखिरी बार जातिगत जनगणना हुई थी, तब जेएच हटन ने जातियों का वर्गीकरण पेशे के आधार पर किया था. अब इस वर्गीकरण में भी समान आधार नहीं था. तब उत्तर भारत में खेती को उच्च माना गया और दक्षिण में इसे बाहरी जातियों से जोड़ा गया.

जितने राज्य, उतनी चुनौतियां

दशकों बीत गए, नदियों में कितना पानी बह गया. पेशागत बदलाव हुए, समाज की तस्वीर बदली, लेकिन चुनौतियां अब भी कुछ वैसी ही हैं. देश में जितने राज्य हैं, जातिगत जनगणना में उतने तरह की चुनौतियां हैं. ओबीसी को ही लें तो इनकी गिनती आसान नहीं होने वाली. केंद्र सरकार की अपनी ओबीसी लिस्ट है, राज्यों की भी अपनी. इन सभी में विरोधाभास भी है. यूपी और बिहार, ओबीसी पॉलिटिक्स का केंद्र रहे हिंदी हार्टलैंड के इन दो बड़े राज्यों की ही बात करें तो यहां की ओबीसी लिस्ट में भी एकरूपता नहीं है.

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जातिगत जनगणना की मांग हर मंच पर करते आए हैं राहुल गांधी
जातिगत जनगणना की मांग हर मंच पर करते आए हैं राहुल गांधी (फोटोः पीटीआई)

बिहार में वैश्य समाज ओबीसी के तहत आता है तो वहीं यूपी में इस वर्ग की कई उपजातियां सामान्य वर्ग में आती हैं. ऐसा केवल यूपी और बिहार ही नहीं, पंजाब और हरियाणा समेत अन्य राज्यों में भी है. कर्नाटक की प्रभावशाली लिंगायत समाज की कई उपजातियां ओबीसी और एससी वर्ग में आती हैं. लिंगायतों की आबादी तेलंगाना समेत अन्य राज्यों में भी अच्छी है. तेलंगाना की ही बात करें तो लिंगायत समाज के लोग लंबे समय से ओबीसी का दर्जा दिए जाने की मांग करते आ रहे हैं.

अब राजनीतिक चुनौती यह होगी कि एक जाति जो एक राज्य में ओबीसी है लेकिन दूसरे राज्य में नहीं, फाइनल डेटा जारी करते समय उसकी गिनती के आंकड़े किस वर्ग के तहत जारी किए जाएंगे. इसकी वजह से संबंधित जाति और उपजाति की नाराजगी का जो खतरा है, वह अलग.

हिंदी हार्ट लैंड से साउथ तक कैसे बदल सकते हैं समीकरण

जातिगत जनगणना की मांग को लेकर हिंदी हार्ट लैंड की ओबीसी पॉलिटिक्स का चेहरा मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी पार्टियां अधिक मुखर नजर आई हैं. 2011 की जनगणना से पहले तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने संसद से सड़क तक, जातिगत जनगणना कराने के लिए मुखर आंदोलन किया था और तत्कालीन यूपीए सरकार पर दबाव बनाया था. तब यूपीए सरकार को जातिगत जनगणना का ऐलान करना पड़ा था. हालांकि, जातियों के आंकड़े कभी जारी नहीं किए जा सके.

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बिहार में नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार ने बिहार में जातीय जनगणना कराई और इसके आंकड़े 2 अक्टूबर 2023 को जारी कर दिए थे. लेकिन, उससे पहले कर्नाटक सरकार ने भी सूबे में जातिगत जनगणना कराई थी. बाद में दक्षिण भारत के तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने भी जातिगत जनगणना कराई. ऐसे में सवाल है कि क्या जातिगत जनगणना ऐसा मुद्दा है जो पैन इंडिया सियासी समीकरणों को प्रभावित कर सके?

बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (फाइल फोटोः पीटीआई)
बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (फाइल फोटोः पीटीआई)

राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 32 फीसदी के करीब रहा था. 2019 में यह 37 फीसदी से अधिक रहा और 2024 के चुनाव में राम मंदिर निर्माण के बावजूद वोट शेयर गिरकर 37 फीसदी से नीचे पहुंच गया. यह इस बात का भी संकेत है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर जितने वोटर्स साथ आ सकते थे, बीजेपी के साथ आ चुके. यूपी और बिहार जैसे राज्यों में सीटों के नुकसान के पीछे खुद बीजेपी नेताओं ने भी संविधान को लेकर विपक्ष के फेक नैरेटिव को जिम्मेदार बताया तो यह भी जातीय राजनीति की महत्ता बताता है. एक सर्वे में यह बात सामने भी आई थी कि आधे से अधिक लोग जाति के आधार पर वोट करते हैं. 2029 के लोकसभा चुनाव में हो सकता है कि पार्टी आरक्षण से कैप हटाने का वादा कर दे.

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उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत की राजनीति में भी जातीय भावना प्रबल रही है. कर्नाटक में लिंगायत-वोक्कालिगा के बीच वर्चस्व की लड़ाई हो या तमिलनाडु में द्रविड़ पॉलिटिक्स, ये सब जातिगत राजनीति का ही उदाहरण हैं. जहां तक जातिगत जनगणना से समीकरण बदलने का सवाल है, दक्षिण की राजनीति में ओबीसी पॉलिटिक्स की पिच पर कोई मजबूत प्लेयर नहीं है. कर्नाटक में बीजेपी का कोर वोटर लिंगायत ओबीसी है. थोड़ा-बहुत तेलंगाना को छोड़ दें तो बाकी के दक्षिणी राज्यों में बीजेपी अभी अपनी जमीन बनाने की कोशिश ही कर रही है. हो सकता है कि पार्टी को जातिगत जनगणना के कदम का फायदा मिले और जहां कुछ नहीं है, वहां छोटा ही सही, एक वोट बेस बन जाए.

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बिहार के वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने जातिगत जनगणना के ऐलान को मास्टर स्ट्रोक बताते हुए कहा कि बीजेपी ने केंद्र सरकार के इस एक ऐलान से एक बड़ा मुद्दा छीन लिया है. उन्होंने कहा कि बिहार चुनाव के संदर्भ में देखें तो आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन के कैंपेन की धुरी ही जातिगत जनगणना, सामाजिक न्याय नजर आ रहे थे. तेजस्वी यादव इन्हीं मुद्दों को लेकर एम-वाई (मुस्लिम-यादव) फैक्टर की बाउंड्री तोड़कर मुस्लिम के साथ ओबीसी-दलित का नया समीकरण गढ़ने की कोशिश में जुटे थे.

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