केंद्र सरकार ने संसद का स्पेशल सत्र बुलाया है, जो आज से शुरू हो रहा है. इस सत्र की शुरुआत पुराने संसद भवन में होगी और फिर कार्यवाही नए भवन में शिफ्ट हो जाएगी. सरकार की ओर से इस सत्र में चार बिलों को सूचीबद्ध किया गया है. हालांकि विपक्ष की ओर से महिला आरक्षण विधेयक पर जोर दिया जा रहा है.
करीब 27 सालों से लंबित महिला आरक्षण विधेयक एक बार फिर चर्चा में है. आंकड़ों के मुताबिक, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 15 फीसदी से कम है, जबकि राज्य विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से भी कम है.
इस मुद्दे पर आखिरी बार कदम 2010 में उठाया गया था, जब राज्यसभा ने हंगामे के बीच बिल पास कर दिया था और मार्शलों ने कुछ सांसदों को बाहर कर दिया था, जिन्होंने महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का विरोध किया था. हालांकि यह विधेयक रद्द हो गया क्योंकि लोकसभा से पारित नहीं हो सका.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों दलों ने हमेशा इसका समर्थन किया. हालांकि कुछ अन्य दलों ने महिला कोटा के भीतर ओबीसी आरक्षण की कुछ मांगों को लेकर इसका विरोध किया. अब एक बार फिर कई दलों ने इस विशेष सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाने और पारित करने की जोरदार वकालत की, लेकिन सरकार की ओर से कहा गया है कि उचित समय पर उचित निर्णय लिया जाएगा.
लोकसभा में 14 फीसदी महिला सांसद
वर्तमान लोकसभा में 78 महिला सदस्य चुनी गईं, जो कुल संख्या 543 के 15 प्रतिशत से भी कम हैं. बीते साल दिसंबर में सरकार द्वारा संसद में साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, राज्यसभा में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करीब 14 प्रतिशत है. इसके अलावा 10 राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से भी कम है, इनमें आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पुडुचेरी शामिल हैं.
छत्तीसगढ़ में महिला विधायक सबसे ज्यादा
दिसंबर 2022 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में 10-12 प्रतिशत महिला विधायक थीं. जबकि छत्तीसगढ़ में 14.44%, पश्चिम बंगाल में 13.7% और झारखंड में 12.35% महिला विधायक हैं. बीते दिनों में बीजेडी और बीआरएस समेत कई दलों ने इस बिल को लाने की मांग की है, जबकि हैदराबाद में हुई CWC की मीटिंग में कांग्रेस ने भी महिला आरक्षण को लेकर प्रस्ताव पारित किया.
हालांकि यह देखना होगा कि नए विधेयक में कितने फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव लाया जा सकता है. साल 2008 का विधेयक, जिसे 2010 में राज्यसभा में पारित किया गया था, उसमें लोकसभा की सीटों और राज्य विधानसभा की सीटों में से एक तिहाई आरक्षित करने का प्रस्ताव था, जब बिल को पास कराने की आखिरी कोशिश की गई तो कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार थी.
2008 में आखिरी बार पेश हुआ महिला बिल
साल 2008 से पहले इस बिल को 1996, 1998 और 1999 में भी पेश किया गया था. गीता मुखर्जी की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति ने 1996 के विधेयक की जांच की थी और 7 सिफारिशें की थीं. इनमें से पांच को 2008 के विधेयक में शामिल किया गया था, जिसमें एंग्लो इंडियंस के लिए 15 साल की आरक्षण अवधि और उप-आरक्षण शामिल था.
इस बिल में यह भी शामिल था, अगर किसी राज्य में तीन से कम लोकसभा की सीटें हों, दिल्ली विधानसभा में आरक्षण और कम से एक तिहाई आरक्षण. कमेटी की दो सिफारिशों को 2008 के विधेयक में शामिल नहीं किया गया था. पहला राज्यसभा और विधान परिषदों में सीटें आरक्षित करने के लिए था और दूसरा संविधान द्वारा ओबीसी के लिए आरक्षण का विस्तार करने के बाद ओबीसी महिलाओं के लिए उप-आरक्षण के लिए था.
2008 के विधेयक को कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया था, लेकिन यह अपनी अंतिम रिपोर्ट में आम सहमति तक पहुंचने में विफल रहा. समिति ने सिफारिश की कि विधेयक को संसद में पारित किया जाए और बिना किसी देरी के कार्रवाई में लाया जाए.
सपा के दो सदस्यों ने किया था विरोध
कमेटी के दो सदस्य, जोकि समाजवादी पार्टी के थे, वीरेंद्र भाटिया और शैलेन्द्र कुमार ने यह कहते हुए असहमति जताई कि वे महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने के खिलाफ नहीं थे, लेकिन जिस तरह से इस विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था, उससे असहमत थे. उन्होंने सिफारिश की थी कि प्रत्येक राजनीतिक दल को अपने 20 प्रतिशत टिकट महिलाओं को वितरित करने चाहिए, आरक्षण 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. ओबीसी और अल्पसंख्यकों की महिलाओं के लिए एक कोटा होना चाहिए. स्थायी समिति ने प्रतिनिधित्व बढ़ाने के अन्य तरीकों पर भी विचार किया.
इस कमेटी को एक सुझाव मिला था कि राजनीतिक दलों के लिए कुछ फीसदी सीटों को महिलाओं के लिए आरक्षित करने के लिए नामांकित किया जाए, लेकिन उसे लगा कि जिन सीटों पर नुकसान की संभावना है, वहां महिलाओं को नामांकित करके पार्टियां खाना-पूर्ति कर सकती हैं.
राज्यसभा और विधान परिषदों में आरक्षण कैसे?
समिति ने निष्कर्ष निकाला कि राज्यसभा और विधान परिषदों में आरक्षण के मुद्दे की गहन जांच की जानी चाहिए क्योंकि ऊपरी सदन संविधान के तहत समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ओबीसी महिलाओं को आरक्षण के मुद्दे पर समिति ने कहा कि "विधेयक के पारित होने के वर्तमान समय में अन्य सभी मुद्दों पर सरकार बिना किसी और देरी के उचित समय पर विचार कर सकती है."
साल 2008 में इस विधेयक का सपा, आरजेडी और जेडीयू ने विरोध किया था, हालांकि पार्टियों ने सार्वजनिक रूप से इसके लिए अपना समर्थन व्यक्त किया है. इस बिल पर विचार और पारित कराने के लिए सरकार को संसद के प्रत्येक सदन में दो-तिहाई समर्थन की आवश्यकता होगी.