हुक्मरानों ने जब मुल्क के बंटवारे का फैसला लिया होगा. तब उन्हें शायद इतने बड़े पैमाने पर कत्लेआम का अंदाजा नहीं होगा. जवाहर लाल नेहरू को इसका इल्म था लेकिन उन्हें लगता था कि इसे टाला जा सकता है. मोहम्मद अली जिन्ना ने भी कहा ना तो हिंदुओं को पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर किया जाएगा और ना मुसलमानों को भारत छोड़ने पर. भारत और पाकिस्तान के बीच सरहदी लकीर खींचने वाले साइरिल रेडक्लिफ ने तो यहां तक कह दिया कि मुझे अंदाजा नहीं था कि मैंने जो सीमाएं तय की हैं, उससे इतना बड़ा नरसंहार होगा. लेकिन नरसंहार तो हुआ... और इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाई औरतों और बच्चों ने...
1947 में कागज के टुकड़े पर सरहदी लकीर खींच दी गई. 14 अगस्त 1947 को आधी रात से पहले ही लाहौर और कराची जैसे शहरों में पाकिस्तान के वजूद में आने का जश्न शुरू हो गया था. लेकिन एक बड़ी आबादी में डर और बेचैनी थी... किसी को मालूम नहीं था कि वो किस मुल्क में होंगे. अफवाहों का बाजार गरम था. ये शहर पाकिस्तान का होगा... ये गांव भारत में जाएगा... कयास पर कयास लगने लगे थे.
लेकिन 17 अगस्त को जैसे ही आधिकारिक तौर पर सरहदी नक्शा जारी हुआ. इसके साथ शुरू हो गया दुनिया के सबसे बड़े पलायन का दौर और कत्लेआम... आने वाले हफ्तों में करोड़ों लोग विस्थापित हुए और लाखों लोग मारे गए. लेकिन इस त्रासदी में महिलाओं ने खुद को सबसे ज्यादा 'असुरक्षित' पाया. सरहद के दोनों ओर गांव के गांव धूं-धूं कर जल रहे थे. लाशों से पटी ट्रेनें दौड़ रही थीं. यह आजादी उन तमाम महिलाओं के लिए एक त्रासदी लेकर आई जो आजादी की फिजा में सांस तो ले रही थीं लेकिन उनकी देह पर सरहदों से भी गहरे जख्म बना दिए गए थे.

छोटे-छोटे बच्चों से लेकर लाठी की टेक लेकर चलती बुजुर्ग औरतें और गर्भवती महिलाओं की पीड़ा और उनकी कहानियां रह-रहकर बेचैन कर देती हैं. घर की चारदीवारी से लेकर ट्रेन के डिब्बों और खुले मैदानों में हैवानियत का शिकार बनीं महिलाओं की आपबीती भी झकझोर देती है. लेकिन इससे भी बड़ी विडंबना ये रही कि इन्हें कभी परिवार की मर्यादा के नाम पर ठुकरा दिया गया तो कभी पारिवारिक सम्मान की दुहाई देकर आत्महत्या करने को मजबूर किया गया. इन जुल्मों से जो बच गईं, उन्हें अगवा कर लिया गया.
बंटवारे का दंश झेलती ये महिलाएं किसी भी मोर्चे पर सुरक्षित नहीं थीं. उन्मादी भीड़ का सबसे आसान निशाना यही खातूनें थीं. कई परिवारों ने अपनी बच्चियों और मां-बहनों को सिर्फ इसलिए मार दिया या मरने के लिए मजबूर कर दिया ताकि उनकी अस्मिता को बचाया जा सके. भारी तादाद में महिलाओं को अगवा किया गया. इस बंटवारे के दौरान दोनों ओर से लगभग 80 हजार महिलाओं को अगवा करने का आंकड़ा मौजूद है.
ऋतु मेनन की किताब No Woman's Land में एक जगह जिक्र है कि...1947 की एक दोपहरी थी. रावी नदी के किनारे थोआ खालसा गांव में 90 सिख औरतें एक साथ निकलकर गांव के कुएं के पास इकट्ठा हो गईं. भीड़ नारे लगाते हुए पास आ रही थी. इन औरतों के पास दो रास्ते थे, जीवित रहकर अपहरण और बलात्कार का शिकार हो जाएं या फिर अस्मिता बचाते हुए मर जाएं. फिर क्या था- सभी ने एक-एक कर कुएं में छलांग लगा दी. थोड़ी ही देर में पानी में लाशें तैर रही थीं.
विभाजन के दौरान महिलाओं की इन त्रासदियों ने भारत और पाकिस्तान को एक मेज पर बैठने को मजबूर किया. आजादी के चंद महीनों के भीतर ही दोनों मुल्क फिर एक साथ आए. सितंबर 1947 में दोनों मुल्कों के वजीरे-आजम जवाहरलाल नेहरू और लियाकत अली खान की लाहौर में बैठक हुई. इसके बाद छह दिसंबर 1947 को दोनों देशों ने Inter Dominion Treaty पर साइन किए, जिसके बाद सेंट्रल रिकवरी ऑपरेशन की नींव रखी गई.

इस ऑपरेशन का मकसद दोनों ओर से अगवा की गई महिलाओं को ढूंढकर उन्हें उनके परिवार वालों को सौंपना था. सरकारी आंकड़ों की मानें तो भारत में पचास हजार मुस्लिम महिलाओं और पाकिस्तान में तकरीबन 30 हजार महिलाओं को अगवा किया गया. इनमें से कई का जबरन धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें जिंदगी भर का ट्रॉमा दे दिया. अगवा की गई महिलाओं को ढूंढकर उन्हें उनके परिवार को सौंपने के लिए दोनों मुल्कों की ओर से एक ट्रिब्यूनल का गठन किया गया.
भारत में राहत एवं पुनर्वास मंत्रालय के तहत एक विशेष विभाग बनाया गया, जो इस रिकवरी ऑपरेशन को संभालता था. तत्कालीन कांग्रेस सांसद मृदुला साराभाई और कमलाबेन पटेल जैसी कार्यकर्ताओं ने इस ऑपरेशन में अहम भूमिका निभाई. दोनों मुल्कों की टीमें सीमा पार करती और गांव-गांव जाकर इन महिलाओं को खोजती. इन महिलाओं का पता चलने पर उन्हें ट्रिब्यूनल के सामने पेश किया जाता था. ट्रिब्यूनल को ही यह अधिकार था कि वह इन महिलाओं को उनके मूल देश भेजे या नहीं. 1947 से 1957 तक तकरीबन दस वर्षों तक चले इस ऑपरेशन में पाकिस्तान से 20 हजार महिलाओं को ढूंढकर भारत लाया गया. जबकि भारत से लगभग दस हजार महिलाओं को पाकिस्तान भेजा गया.
लेकिन इस प्रक्रिया की अपनी एक त्रासदी भी थी. महिलाओं को ढूंढना टेढ़ी खीर तो था ही लेकिन उससे भी मुश्किल था उन्हें वापस ले जाना. कई महिलाएं नए धर्म और नए घर में ढाल दी गई थीं. उनके लिए वापस लौटना मुमकिन नहीं था. कई महिलाओं ने अपहरण के बाद अपहरणकर्ता के साथ ही मजबूरी में ही सही परिवार बसा लिया था, उनके बच्चे हो चुके थे. उनके लिए अपने बच्चों और परिवार को छोड़ना आसान नहीं था. सरकारें दुविधा में थीं लेकिन कानून कहता था कि उन्हें अपने मूल देश लौटना होगा.

ऋतु मेनन और कमला भसीन की किताब Borders & Boundaries में विभाजन के दौरान पाकिस्तान से अगवा कर भारत लाई गई अमीना की कहानी बयां की गई है. जब ऑपरेशन रिकवरी के तहत अमीना को भारत से पाकिस्तान भेजने की कवायद शुरू की जाती है तो वह रुआंसी होकर कहती है कि कौन सा घर? मेरे पति और बच्चे यहां हैं. अब पाकिस्तान में मेरे लिए क्या है? अमीना का यह बयान विभाजन का दंश झेल चुकी महिलाओं के ट्रॉमा को बयां करता है. इसी तरह भारत से अगवा कर पाकिस्तान ले जाई गई सुखवंत कौर को जब रिकवरी टीम भारत उसके परिवार के पास लेकर आती है तो वह उसे घरवाले उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं. तब सुखवंत कौर कहती है... मैं अपने घर तौ लौटी लेकिन मेरे घर ने मुझे पहचाना ही नहीं...
इसी किताब में अमृतसर की किरण बाला की कहानी भी दर्ज है. 1947 में अमृतसर में दंगे भड़के. किरण की उम्र उस समय 18 साल थी. इन दंगों के दौरान हथियारबंद भीड़ ने उनके मोहल्ले पर हमला कर दिया. परिवार के कई पुरुषों को बेरहमी से मार डाला गया किरण को अगवा कर उसे लाहौर के एक गांव ले जाया गया, जहां पहले उसका धर्म बदलवाया और फिर उसकी जबरन शादी करवा दी गई. ऑपरेशन रिकवरी के दौरान जब भारत के प्रतिनिधि ने लाहौर में किरण का पता लगाया तो वह फफक फफक कर रोने लगीं. किरण ने कहा कि मैं सोचती थी मैं शायद कभी अपने घर नहीं लौट पाऊंगी. लेकिन भारत पहुंचने पर मैंने जो देखा, उसने मुझे तोड़ दिया. मैं जब अमृतसर लौटी तो मेरे चाचा ने ये कहके मेरे मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया कि मैं अब पवित्र नहीं रही.
उर्वशी बुटालिया की किताब The Other Side of Silence में महिलाओं की दुर्दशा को बयां करते हुए कहा गया है कि विभाजन में 1.2 करोड़ लोग विस्थापित हुए. लगभग 10 लाख लोग मारे गए. 75 हजार महिलाओं का रेप किया गया. उनका अपहरण किया गया या फिर जबरन धर्मांतरण किया गया. लेकिन लंबा अरसा बीतने का बाद आज भी उन महिलाओं को भुला दिया गया है. इतिहास से ही गायब कर दिया गया है.
रिकवरी ऑपरेशन ने दोनों मुल्कों से अगवा की गई महिलाओं को उनके परिवारों से मिलाने की कोशिश की लेकिन ऐसे भी परिवार थे जिन्होंने इन महिलाओं को स्वीकारने से इनकार कर दिया. ऐसे लोगों के लिए महिला का देह जाति और धर्म के सम्मान का प्रतीक बन गया था.
इसी स्पेशल रिकवरी यूनिट का हिस्सा रह चुके अनीस किदवई ने अपनी ऑटोबायोग्राफी In Freedom's Shade में अपने अनुभवों को बयां करते हुए कहा कि जिन घरों में महिलाओं को अगवा कर उन्हे ब्याह दिया गया था. उस घर के मर्द इन महिलाओं को परिवार की इज्जत बताकर विरोध करते थे. हमें हथियारों के साये में गालियां और धमकियां झेलते हुए काम करना पड़ता था. लेकिन जब हम किसी महिला को उसके परिजनों को सौंपते तो उसकी आंखों में लौटी खोई हुई चमक हमें हिम्मत देती थी. विभाजन का असली दंश तो महिलाओं और बच्चों को ही झेलना पड़ा.मर्दों की बनाई सरहदों ने मुल्क तो बांट दिया लेकिन औरतों का दर्द कभी नहीं बंट सका. वे अपने भीतर के सूनेपन को साथ लेकर लौटीं और जो ना लौट सकीं वो हमेशा के लिए शून्य में समा गईं...