मशहूर उद्योगपति और हरदिल अजीज रतन टाटा अब हमारे बीच नहीं रहे. उनका निधन इस देश के लिए ही नहीं बल्कि हर भारतीय के लिए एक निजी क्षति है. इसकी वजह है- उनका सरल और सादा जीवन. कामयाब उद्योगपति होने के बावजूद उनका डाउन टू अर्थ व्यवहार. ऐसे समय में जब देश उन्हें याद कर रहा है. हम आपको उनके जीवन से जुड़ा एक ऐसा किस्सा बताने जा रहे हैं, जो उन्हें जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा के करीब ले आया था.
रतन टाटा ने इस दुनिया की सबसे सस्ती गाड़ी बनाने का सपना देखा था और Tata Nano के साथ उसे पूरा भी किया. उनकी स्कूली पढ़ाई कैथिड्रल स्कूल में हुई और बाद वह आर्किटेक्चर की पढ़ाई करने के लिए कॉर्नेल यूनिवर्सिटी गए. यह वह समय था, जब वह अमेरिका में अपने भविष्य की प्लानिंग कर रहे थे. लेकिन उनकी दादी जिससे रतन टाटा बेशुमार प्यार करते थे, उन्होंने रतन को हिंदुस्तान लौटने को कहा. वह फौरन हिंदुस्तान लौटे और टाटा ग्रुप में नौकरी करने लगे.
वह टाटा की जमशेदपुर स्थित दो सबसे बड़ी कंपनियों टाटा स्टील और टैल्को (अब टाटा मोटर्स) से जुड़ गए. लेखक आर.एम. लाला की किताब 'जीवन का उद्देश्य' में लिखा है कि यही रतन टाटा की जिंदगी का टर्निंग प्वॉंइट साबित हुआ. उन्होंने जमशेदपुर में एक फ्लाइंग स्कूल खोलने का प्रस्ताव रखा और यही बात उन्हें जेआरडी टाटा के करीब ले आई. रतन टाटा को मुंबई लौटने पर नैल्को नाम की कंपनी चलाने को कहा गया, जो उस समय घाटे में चल रही थी. रतन टाटा ने एक बार कहा था कि जब किसी वाद-विवाद में जेआरडी हारने लगते थे तो वह अचानक आपके पक्ष में फैसला पलट देते थे.
जब JRD ने उत्तराधिकारी के तौर पर रतन टाटा को चुना
साल 1991 की बात है. जेआरडी टाटा ग्रुप को अलविदा कहने का मन बना चुके थे. जब अपना उत्तराधिकारी चुनने का समय आया तो उन्होंने रतन टाटा को अपना उत्तराधिकारी बना दिया.
आर एम लाला की किताब में बताया गया है कि जेआरडी ने उनसे कहा था कि रतन टाटा उनकी तरह ही साबित होगा. टाटा संस के अध्यक्ष के तौर पर रतन के शुरुआती पांच साल काफी मुश्किल भरे थे. एक समय ऐसा भी आया, जब रतन टाटा ने अपनी दूरदर्शिता और मेहनत से ग्रुप की सभी कंपनियों को कामयाबी की राह पर आगे बढ़ाया.