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पहाड़ों से फायरिंग, कबाइलियों की बर्बरता और वजीर मेहता का बलिदान... कश्मीर पर पहले पाकिस्तानी हमले की कहानी!

कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को हुआ आतंकी हमला भारत को और भारतीयों को याद दिला गया कि पाकिस्तान कश्मीर को हमेशा रक्तरंजित करता रहेगा जब तक कि उसे करारी चोट न दी जाए. 1947 में देश की आजादी और अंग्रेजों द्वारा विभाजन किए जाने के साथ ही कश्मीर को हड़पने के लिए पाकिस्तान की साजिशें शुरू हो गईं थीं. कबाइलियों के भेष में पाकिस्तानी आतंकी कश्मीर पर हमले के लिए आने लगे और हिंदू तथा सिख आबादी और यहां तक कि कश्मीरी मुस्लिमों का भी खून बहाने लगे. इस खास सीरीज में हम आपको बताएंगे कश्मीर पर हुए पहले हमले की रक्तरंजित लेकिन अनसुनी सच्ची कहानियां. पढ़िए पार्ट-1...

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कश्मीर पर पहले पाकिस्तानी हमले की कहानी!
कश्मीर पर पहले पाकिस्तानी हमले की कहानी!

छत्तीसिंहपुरा, उरी, पुलवामा और अब पहलगाम... ये केवल शहरों के नाम नहीं हैं बल्कि कश्मीर को हड़पने की पाकिस्तानी साजिश के रक्तरंजित पन्ने भी हैं... जहां पाकिस्तानी आतंकियों ने बेगुनाहों का खून बहाया और खुद को इंसान की जगह जानवर साबित किया. आतंकवाद के रूप में पाकिस्तान की ये वहशियत कोई नई नहीं है. जम्मू-कश्मीर के इतिहास में पाकिस्तानी आतंक के तमाम ऐसे पन्ने हैं जिन्हें अगर पलटा जाए तो पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं एक आतंकी संगठन के रूप में ही नजर आएगा, जिसके नेता और जनरल जनसेवक नहीं बल्कि आतंकी आकाओं का रोल निभाते दिखेंगे.

हां, तो हम शुरुआत करते हैं कि कश्मीर में आतंक की कहानी शुरू कैसे, कब और किनके द्वारा हुई थी. वो पहला दिन कब था जब कश्मीर पाकिस्तानी आतंक की साजिश से रक्तरंजित हुआ. दरअसल 1947 में जब अंग्रेज गए तो उन्होंने भारत और पाकिस्तान नामक दो देश बनवा दिए और 500 से अधिक रियासतों को आजादी देकर चले गए. सरदार पटेल ने अधिकांश रियासतों का भारत में विलय करा लिया लेकिन कश्मीर का मामला राजा हरि सिंह के हाथ में था. अब नए-नए बने पाकिस्तान को ये कैसे बर्दाश्त होता कि बड़ी मुस्लिम आबादी वाली एक रियासत उसकी सीमा पर बनी रहे और वो भी एक हिंदू राजा के हाथ में. तो उसने साजिशें रचनी शुरू कर दी.

उस समय के जम्मू-कश्मीर में 20 फीसदी आबादी हिंदुओं की, 70 फीसदी मुस्लिमों की और बाकी सिख समेत कई जातियों की आबादी थी. तब का कश्मीर जम्मू से लेकर मुजफ्फराबाद तक फैला हुआ था. जमीनी स्तर पर कश्मीर के हालात 15 अगस्त 1947 के बाद कैसे बदल रहे थे कृष्णा मेहता ने अपनी किताब में काफी विस्तार से वर्णन किया है. इसमें उनकी खुद की झेली हुई जिंदगी की कहानी भी है जो उन्होंने पहले कबाइली हमले में अपने परिवार को तबाह होते हुए देखकर महसूस की थी.

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महाराजा हरि सिंह

कृष्णा मेहता बाद में कश्मीर से संसद सदस्य भी बनीं. वे आजादी और विभाजन के समय कश्मीर रियासत के वजीर और आज के पीओके की राजधानी मुज़फ्फराबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट दुनी चंद मेहता की पत्नी थीं. जब पहली बार कश्मीर पर पाकिस्तानी कबाइलियों ने हमला किया तो सबसे पहले मुज़फ्फराबाद में उनके सरकारी आवास को घेरा, शहर पर कब्जा जमाया और चारों ओर कत्लेआम मचाया. उस कायराना हमले में पाकिस्तान से आए कबाइलियों का सामना करते हुए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट दुनी चंद मेहता ने सर्वोच्च बलिदान दिया. काफी दिन उनके कब्जे वाले इलाके में रहने के बाद रेड क्रॉस की मदद से कृष्णा मेहता और उनके बच्चे श्रीनगर पहुंचे. उन्होंने अपनी किताब में कश्मीर के हमले का जो ब्योरा पेश किया है उसे सुनकर किसी की भी रूह कांप जाएगी. 

कृष्णा मेहता अपनी किताब 'कश्मीर पर हमला' में लिखती हैं- ''जुलाई 1947 में मेरे पति दुनी चन्द मेहता को कश्मीर सरकार ने मुजफ्फराबाद का वजीर-वजारत बनाकर भेजा. श्रीनगर में वह असिस्टेंट गवर्नर के पद पर थे. वह जुलाई में ही अपना नया पद संभालने श्रीनगर से मुजफ्फराबाद गए. शासन की ओर से वहां एक कर्नल और फौज की एक टुकड़ी भी थी. मैं उस समय साथ न जा सकी क्योंकि कई मेहमान घर आए हुए थे. एक महीने बाद बच्चे और मैं भी वहां पहुंच गए. हमारे साथ हमारे दो बेटे, दो बेटियां और एक मेरे पति के भाई की बेटी थी. जिन सबकी उम्र 7 साल से 15 साल के बीच थी. हमारी कोठी वहां एक छोटे से टीले पर थी. उसके चारों ओर काफी खुली जगह थी. बीच में एक छोटा सा बाग और मैदान था. हमारी कोठी से थोड़ी दूर असिस्टेंट इंस्पेक्टर पुलिस की कोठी थी.

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उस जगह से दो फरलांग दूर अस्पताल और डॉक्टर की कोठी थी. हमारी कोठी के एक ओर कुछ दूरी पर एक मस्जिद थी और दूसरी ओर साथ ही मुसलमानों की एक जियारतगाह के साथ घास और घने वृक्षों से भरपूर जंगल था. मुजफ्फराबाद जाने के तीन दिन बाद जन्माष्टमी का त्योहार आया. हम सबने घर में व्रत रखा. बच्चों का भी वहां मन लगने लगा था. मेरे पति हमेशा काम में बिजी रहते थे. वे कर्नल के साथ अलग-अलग मोर्चों के लगातार दौरे कर रहे थे. घर पर उन्होंने कभी नहीं बताया कि मोर्चों पर तनाव की कोई स्थिति बन रही है.''

अचानक बिगड़ने लगे हालात... मुजफ्फराबाद तब कश्मीर का सबसे खूबरसूरत शहर हुआ करता था. यहां से दो रास्ते जाते थे एक एबटाबाद और दूसरा रावलपिंडी. ये दोनों जगह पाकिस्तान में पड़ते थे. मुजफ्फराबाद कश्मीर की खूबसूरत पहाड़ियों में बसा था जिसके बीचों-बीच कृष्णगंगा नदी निकलती थी जिसे पीओके बनने के बाद नीलम नदी नाम दे दिया पाकिस्तान कब्जे वाले इलाके की सरकार ने. आज इसी इलाके में नीलम वैली है जहां पाकिस्तान के टूरिस्ट आते हैं. साल 1947 में भी मौसम और प्राकृतिक खूबसूरती के लिहाज से ये इलाका काफी संपन्न था. लेकिन अचानक इस शांति के बीच मुज़फ्फराबाद की आबोहवा बदलने लगी.

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कृष्णा मेहता लिखती हैं- 'कुछ दिन यूं ही बीत गए. एक दिन उन्होंने बाहर से आते ही कहा, सुनो आज कर्नल साहब मुझसे कह रहे थे कि मैं अपने बच्चों को श्रीनगर भेज दूं और खुद उनके यहां जाकर रहूं. कर्नल ये भी कह रहे थे कि दोमेल में जहां वे रहते हैं वहां जीप और फोन आदि का प्रबंध है. किसी आपात स्थिति में सूचना देने और आने-जाने में सुविधा होगी. फिर वे बोले कि मैंने कर्नल साहब से कह दिया कि मुझसे ये न हो सकेगा कि जनता को तो शासन के आदेशानुसार यहां से बाहर न जाने दूं और खुद अपने परिवार को भेज दूं. अगर कुछ गड़बड़ी होगी तो जो हाल सारी जनता का होगा वही मेरे बीवी-बच्चों का भी होगा. मेरा सिर उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया.''

कृष्णा मेहता आगे लिखती हैं- ''21 अक्टूबर 1947 को हमारे यहां रात के समय फौज के कर्नल और कैप्टन आदि की दावत थी. उस दिन थोड़ी बारिश हो रही थी, कैप्टन कहीं जीप पर गए थे इसलिए देरी से दावत के लिए वे सब पहुंचे. ये कैप्टन जाति के 'मुसलमान' थे और सीमा पर गतिविधि जानने के लिए गए थे. लौटकर उन्होंने 'सब ठीक है' की सूचना दी. खाना खाकर सभी अपने-अपने ठिकानों पर लौट गए.

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रात को 12 बजे मेहता साहब सोने के लिए कमरे में गए लेकिन उन्हें नींद नहीं आ रही थी. कुछ बेचैनी थी उनके अंदर जिसे वे किसी से साझा नहीं करना चाहते थे. वे सारे बच्चों के पास ही बैठे रहे. मेरे दोनों बेटे, दो बेटियां और उनके भाई की बेटी सब साथ ही थे. काफी देर बाद वे सब गहरी नींद में सो गए.

और तूफान आ गया... सवेरे के 5 बजे होंगे, अचानक मेरी आंख खुली. मैंने सुना गोलियों कि भयानक आवाज पर्वत की ओर से चट्टानों से टकरा-टकराकर आ रही थी. मैं उनको जगाने लगी. कई बार आवाज देने के बाद जागे. मेरे मुंह से अचानक ये शब्द निकले- 'हमला हो गया, आप उठते क्यों नहीं.', हालांकि सही में मुझे कुछ पता नहीं था. उन्होंने करवट बदलते हुए कहा- यह हमला नहीं है, हमारी फौज चांदमारी (प्रैक्टिस) कर रही होगी. लेकिन जब हमने बाहर आकर देखा तो हालात ही कुछ और थे. गोलियां दनादन हमारी ही कोठी की तरफ आ रही थीं. हमने बच्चों को जमा किया और गोलियों की दिशा से बचने की कोशिश की.

तभी ग्राउंड के बाहर एक सब-इंस्पेक्टर 23 सिपाहियों को साथ लिए मेहता साहब से आ मिला. इन सिपाहियों में बीस मुसलमान थे और तीन हिंदू. सब-इंस्पेक्टर खुद राजपूत था. वजीर साहब को उन्होंने बताया कि हमला हो गया है. शत्रु कृष्णगंगा का पुल पारकर नगर के पास आ रहे हैं. मैंने उनसे पूछा कि आप दोमेल जाकर फौज क्यों नहीं बुला रहे? वे अंदर आए और कहा कि गोलियां तेजी से चल रही हैं, कुछ थमे तो दोमेल जाऊं. फिर वे बाहर निकल गए और कभी नहीं लौटे. जाते-जाते जोर से हंसे और बोले- देखो, मेरे बच्चे गोलियों की आवाज सुनकर जरा भी नहीं घबराते, निर्भय होकर हंस रहे हैं... मेरी और उनकी ये अंतिम मुलाकात और बातचीत थी.'

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ये कश्मीर के इतिहास का अहम पल था, एक ऐसी सुबह जिसने पहली बार पाकिस्तान की साजिश और कबाइलियों के रूप में आतंकियों का खूनी खेल देखा. कश्मीर पर हमले की उस पहली सुबह के बारे में कृष्णा मेहता आगे लिखती हैं- ''इस भयानक विपत्ति के समय कोठी के सभी कर्मचारी तितर-बितर हो गए थे. केवल विश्वासपात्र नौकर ओमप्रकाश साथ था. नगर में चारों ओर भगदड़ मची हुई थी. गोलियों की बौछार, लोगों की चीत्कार और हाहाकार से दिल दहल रहा था. इतने में किसी ने आकर बताया कि हमलावर अस्पताल तक आ चुके हैं. वे जहां जाते हैं आग लगाते हैं, अस्पताल में आग लगा दी गई है, सभी मरीज जल रहे हैं. मैंने जल्दी से सारे जेवर उतारे, बाहर देखा तो पति की कोई सूचना नहीं थी, घर में 5 बच्चे थे जिन्हें बचाने की चिंता अब मुझे हुई.

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मैं अभी भीतर आई ही थी कि आवाज आई कि सुपरिटेंडेंट की कोठी जल रही है. अब मेरे होश उड़े कि क्या किया जाए. पिछले दरवाजे पर एक मुसलमान चपरासी ने आकर आवाज लगाई कि आप यहां क्या कर रही हैं, हमलावर आपके सोने के कमरे का द्वार तोड़ रहे हैं. वे लगभग 60 आदमी हैं. कृपा करके बच्चों के साथ बाहर आ जाइए. मैंने घबराहट में पूछा कि मेहता साहब कहां हैं, उसने जवाब दिया कि वे मोर्चे पर गए हैं. बच्चों की रक्षा के लिए अब मैंने मन मजबूत किया. नंगे पांव खाली हाथ एक चादर और एक गुप्ती साथ लिए बच्चों को लेकर मैं उस भरे घर से सब कुछ छोड़कर निकल पड़ी. गुप्ती इसलिए रखी थी कि अगर इन बच्चों पर कोई खतरा हो या अपमानित होने का भय हो तो इस गुप्ती से सदा की नींद सोकर अपने मान की रक्षा कर सकें.

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बाहर निकलकर हम जियारतगाह वाली पगडंडी पर निकल पड़े. जोरों की वर्षा हो रही थी. बच्चे सर्दी में ठिठुर रहे थे, रास्ते में फिसलन थी. लेकिन गोलियों की आवाज नजदीक आती जा रही थी. अस्पताल का एक बूढ़ा कर्मचारी हांफता हुआ भागा जा रहा था, मैंने पूछा तो बोला- मेरा 12 बरस का बच्चा अस्पताल में था अब जल रहा है. बाद में पता चला कि बेटे के पास जाने के बाद अस्पताल के पास ही उस बुजुर्ग आदमी की लाश भी मिली.''

कृष्णा मेहता लिखती हैं- ''हम बारिश के बीच वहीं खेतों में छिपे रहे. हमें ढूंढता हुआ पीछे-पीछे हमारा नौकर ओम आया. वह रो रहा था. मेरे कारण पूछने पर बोला- जब आप यहां आईं तो मैं कोठी में ही था. साठ कबाइली वहां आए और सब जेवरात और कीमती कपड़े लूट ले गए. साहब के कपड़े भी अलमारी में से निकालकर पहन रहे थे. मैं आ रहा था तो पीछे से कोठी में से किसी के कराहने की आवाज भी सुनी थी. मेरी हिम्मत नहीं हो रही उधर जाने की.

हमारी कोठी दूर से ही जलती हुई दिख रही थी. मुझे मेरे पति की चिंता हो रही थी, साथ ही ये सवाल भी था कि उनको बिना बताए घर से क्यों निकली. कहीं वे सुरक्षा लेकर आए तो क्या कहेंगे मेरे बारे में, लेकिन बच्चों के लिए खेतों में छिपी रही.

हमने मुड़कर देखा तो पूरे शहर के ऊपर धुआं दिख रहा था, हर तरफ हमले और आगजनी हो रही थी. चपरासी बोला- माताजी चलिए आपको किसी महफूज जगह ले चलूं, अगर कबाइली आपको ढूंढते इधर आ गए तो. आगे तहसील का चपरासी मिला जिसने बताया कि आपके लिए नवाबा चपरासी के घर रहने की व्यवस्था वजीर साहब ने की है, जल्दी चलिए. हम जैसे-तैसे गिरते पड़ते उसके घर पहुंचे. उसके घर से पूरे शहर का नजारा दिख रहा था. आसपास के मुसलमान आए और उन्होंने कहा कि आप भले आदमी वजीर साहब की पत्नी है आपकी हम पूरी इज्जत करेंगे.

कुछ देर में सुपरिटेंडेंट पुलिस का अर्दली शिवदयाल वहां पहुंचा तो मैंने पूछा कि भाई तुम्हें मालूम है कि मेहता साहब कहां हैं? वह बोला- वे साहब (सुपरिटेंडेंट पुलिस) के साथ तेईस सिपाही लेकर हाईस्कूल की तरफ गए हैं, वहां सिपाहियों ने कई दिन पहले एक तोप गाड़ रखा है. वहीं जवानों को इकट्ठा कर वे पाकिस्तान से आए कबाइली मुस्लिम हमलावरों का मुकाबला करेंगे.

इधर सर्दी के मारे मेरे बच्चे थर-थर कांप रहे थे. चारों ओर हाहाकार मचा था, पहाड़ियों पर लोग अपने परिवार के लोगों को लेकर भाग रहे थे, मैं सबसे पूछती कि मेहता साहब की जानकारी है क्या उनके पास. वे सब बस भागे जा रहे थे. आने वाले बस इतना कह जाते कि हमलावर हिंदू मर्दों को मार रहे हैं, औरतों और लड़कियों को पकड़कर ले जा रहे हैं. जिस मकान में घुसते हैं लूटकर फिर उसमें आग लगा देते हैं. ऐसे हालत में ही शाम के चार बज गए. घर की मालकिन ने मकई के आटे की एक रोटी बनाकर दी तो मैंने उस रोटी के 6 हिस्से किए और हर बच्चे को एक-एक टुकड़ा पकड़ा दिया, शायद ये खाकर उनकी जान में जान आए. हम ऐसे ही बैठे रहे.

रात के 10 बजे नवाबा चपरासी आया और अपनी पत्नी को अलग ले जाकर कुछ कहने लगा. लौटकर उसकी पत्नी बोली कि आप यहां से तुरंत चले जाइए, हमलावर आकर आपको रखने के लिए हमें मार देंगे. मैंने कहा कि इतनी रात को मैं कहां जाऊं तो नवाबा भी आ गया और बोला कि आपको जाना ही होगा. हम अब आपको नहीं रख सकते. मेरे मन में ख्याल आया कि इंसान भी कितना जल्दी बदल जाता है, कल तक हम इसके लिए भगवान थे और आज आधी रात को अपने घर से ये हमें भगा रहा है. अंधेरी रात में मैं फिसलन भरी पगडंडी से बच्चों को लेकर निकली, वे सर्दी से पहले ही ठिठुर रहे थे.

हम अंधेरे में फिर निकल पड़े. हम नवाबा के एक रिश्तेदार के घर रुके, उसके कमरे में बड़े-बड़े भाले रखे थे, बाहर तीन लोगों के साथ वो फुसफुसा रहा था. उसने आकर सीधा कहा कि आपको यहां से भी जाना होगा. कान का एक जेवर देने पर एक आदमी के साथ वह मुझे अगली जगह पहुंचाने को तैयार हुआ. रास्ते में पीछे से टॉर्च लेकर गुजरता एक सिख नौजवान बोला कि ध्यान से बच्चों को ले जाइए अभी कुछ देर पहले एक सिख का बच्चा भागते वक्त पहाड़ से गिर गया, उसकी हालत बहुत खराब है. आगे हिंदुओं का एक समूह पलायन कर जा रहा था, मैं अपने बच्चों के साथ उनके पीछे-पीछे लग गई कि शायद किसी सुरक्षित जगह पहुंच पाऊं.

लेकिन आगे जाकर सब लोग एक-एक कर बिछड़ गए. तभी मुजफ्फराबाद का एक गरीब मुसलमान किसान अपने घर ले जाने को तैयार हुआ. उसके घर पहुंचे, वह नेक आदमी था लेकिन थोड़ी ही देर में उसके आस-पड़ोस के लोगों ने हिंदुओं को घर में रखने पर विरोध शुरू कर दिया और कबाइलियों को सूचना देने की धमकी देने लगे. इस गांव में सिर्फ स्त्रियां थी, सभी पुरूष लूट-खसोट करने बाहर गए हुए थे. हर थोड़ी देर में खबर आ रही थी कि फलां गांव जलाया, अमुक गांव लूटा.''

पाकिस्तानी हमलावरों ने कश्मीर के उस पूरे इलाके में हिंसा और लूटमार का साम्राज्य फैला रखा था. कृष्णा मेहता लिखती हैं- ''हमें समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाएं. घर का मालिक और उसकी मालकिन कहीं गए हुए थे, उनके पीछे उनके लड़के ने हमें निकाल दिया. वह समय बड़ा भयानक था. मैंने सुना कि उस गांव की हिंदू स्त्रियों और कन्याओं ने एक मकान में अग्नि प्रज्वलित की और स्वच्छ कपड़े पहनकर मंत्र-पाठ करते हुए उसमें कूद पड़ीं. ऐसे हालात में अपने मान की रक्षा के लिए स्त्रियों के पास कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. उन्होंने हंसते-हंसते जौहर की प्रथा निभाई. कहते हैं कि बाद में हमलावरों ने जलती हुई लाशें खींचकर बाहर निकाली और उनके शरीर से जेवर उतारे. जिस समय पास के गांव में ये सब हो रहा था उस समय हम भी अपने ठिकाने से निकाल दिए गए. मैंने बच्चों को आगे चलने को कहा और उनके पीछे-पीछे अनजान राह पर निकल पड़ी.''

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रास्ते में एक मुस्लिम लड़का मिला और बोला कि बहन मैं तेरी रक्षा करूंगा. सब एक जैसे नहीं होते. उस पर भरोसा करके हम सब उसके घर पहुंचे. उसने जगह भी दी और खाने रहने की व्यवस्था भी की लेकिन वहां कबाइली आ गए. हट्टे-कट्टे दो मुसलमान हाथों में बंदूक लिए वहां आ पहुंचे. उसमें एक उस गांव का नंबरदार था और दूसरा अक्सर हमारे घर-शहर में दूध देने आता था, मैंने उसे पहचान लिया लेकिन बोली नहीं. माहौल ऐसा था कि हर कोई लुटेरा बना हुआ था, उस समय पहचान बताकर खुद को खतरे में ही डाला जा सकता था. उसने आते ही बोला- इन्हें निकालो यहां से, तुम्हें कबाइली बुला रहे हैं. हमें उसके साथ जाना पड़ा. मैंने लड़कियों को याद दिलाया कि भूलना मत कि भारत की वीर बालाएं समय पड़ने पर मौत से खेली हैं, यह ध्यान रखना.

कुछ दूर चलकर वे हमें एक स्थान पर ले गए. वहां पहले से कई हिंदू और सिख मर्दों और औरतों को पकड़कर रखा गया था. सामने कबाइली बंदूकें ताने पहरा दे रहे थे. इतने में कुछ और कबाइली आए. उनका रूप बड़ा भयानक था. उन्होंने इनसे कहा- देखो, रात भर इन्हें यहीं रखो और एक बछड़ा मारो, वह इन काफिरों को खिलाओ ताकि ये सब मुसलमान बन जाएं. इतना कहकर वे चले गए. मैंने मन ही मन भगवान को स्मरण किया- हे प्रभो हमारी लाज आपके हाथों में ही है. अब कोई रास्ता नहीं दिख रहा था बचने का. तभी रात में अचानक वे कबाइली हमें वहां से लेकर चल दिए.

हमारे लिए धरती पर कहीं नरक था तो यहीं था. रास्ते में कबाइली हर औरत-मर्द-बच्चे से उनके कपड़े, गहने जो देखते सबकुछ छीन रहे थे. अंधेरे में हम चलते रहे. दस बजे हम दोमेल पहुंचे. वहां कश्मीर रियासत का एक जानवरों का अस्पताल था जो जलने से रह गया था. यह कृष्णगंगा के किनारे था. हमें एक कमरे में ले जाया गया. वहीं तीन दिन से कई हिंदू बच्चे और स्त्रियां रखी गईं थीं.

तभी कुछ वहशी कबाइली और डोगरा रेजिमेंट के बागी मुसलमान फौजी तूफान की तरह आए और स्त्रियों और लड़कियों को टॉर्चों से देख-देखकर ले जाने लगे. देखते ही देखते कोहराम मच गया. कई औरतें कोने में दुबकी पड़ी थीं. उनके बच्चे रो रहे थे. उनमें से कइयों ने तो अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बच्चों तक का गला घोंट दिया था. कई देवियां शौच के बहाने बाहर गईं और कृष्णगंगा नदी की गोद में समा गईं. अनेक माताओं ने अपने जिंदा बच्चे इस नदी को भेंट कर दिए.

ये बातें कबाइलियों को पता चलीं तो वे आ गए. पहरा कड़ा कर दिया गया. उनकी एक और पार्टी आ गई. वे सब पुरूषों को पकड़-पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गए. वे निहत्थे पुरुष यह समझ रहे थे कि ये लोग हमें मारने के लिए ले जा रहे हैं. अंतिम विदाई का ये दृश्य बहुत करुण था. बच्चे उनसे लिपट-लिपट जाते थे लेकिन यहां तरस खाने वाला कौन था?

कबाइलियों के नए पहरेदार आए तो मैंने उनसे बात करने की कोशिश की मेहता साहब के बारे में. मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम बता सकते हो कि यहां के जिला अफसरों के साथ कैसा सुलूक हुआ. मेरा पति उन्हीं में से था. वह यहां का वजीर था. उनमें से एक बोला- उसकी तो हमें पहचान नहीं, पर सबसे पहले हमें अफसरों को खत्म करने का हुक्म था. हमने आते ही सबको मार डाला. ये सुनकर मेरा दिल धक से रह गया.

अगली सुबह कबाइली हमें कहीं और के लिए लेकर निकल पड़े. रास्ते भर आगजनी और लूटमार के निशान थे. निहत्थे कैदियों और उनपर जुल्म ढाते कबाइलियों की भीड़ थी. अब हम उस जगह पहुंचे जहां से हमारी कोठी की दीवार नजर आ रही थी. हमने वहां खड़े होकर अपने उजड़े घर को देखा. मैंने अपने साथ वाले सिपाही से कहा- वह हमारा घर है. वह बोला- आजकल वहां हमारे आदमी हैं. हम आगे बढ़े और जेल के फाटक पर पहुंचे. वहीं एक नरक कुंड जैसे कमरे में शिवदयाल और ओमप्रकाश मिले. उनके साथ जेल का भूतपूर्व दारोगा भी था. मैंने मेहता साहब के बारे में पूछा तो उसने बताया- मेहता साहब को तो पहले दिन ही............

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. सारा बदन कांपने लगा. जब मैं संभली तो पूछा कि क्या पूरा हाल बता सकते हो. इस पर ओम बोला- मैं उस समय वहीं था पर मैंने जानबूझकर आपसे नहीं बताया. क्योंकि ये सुनकर आप बच्चों को लेकर कोठी में वापस आ जातीं और वे भी खतरे में पड़ जाते. दारोगा बोला- बाहर सब लोगों में वजीर साहब के बलिदान की चर्चा है. उन्होंने बड़ी बहादूरी से सच्चाई पर जान दी है.''

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कृष्णा मेहता के दिल की धड़कनें थमती दिखीं. मेहता साहब के बारे में हर जानकारी पहाड़ जैसी लग रही थी. वे आगे का विवरण अपनी किताब में लिखती हैं- ''दारोगा कहता गया- जब वजीर साहब अपनी कोठी से बाहर निकले तो वे सुपरिटेंडेंट पुलिस, सब- इंस्पेक्टर और 23 पुलिस के सिपाहियों को साथ लेकर हाई स्कूल की ओर गए. जहां कुछ दिन पहले एक तोप गाड़कर रखी गई थी. वहां नौ डोगरे सिपाही भी थे. पर वे भाग आए थे. सबने मेहता साहब को वहां जाने से रोका पर उन्होंने एक न सुनी और वहां चल दिए. वहां कोई सिपाही नहीं था. पास के कुछ मुसलमान जमा हो गए और बोले कि तू शरीफ आदमी है, तूने कुछ किया नहीं है क्यों अपनी जान गंवा रहा है. हम तुझे बचाकर यहां से कहीं पहुंचा देंगे. पाकिस्तानी हजारों की संख्या में आए हैं.''

परंतु उन्होंने किसी की बात न मानी और बोले- तुम्हारे मुल्क पर मुसीबत आई है इसे मिलकर बचाओ. तुम लोग उल्टा मुझे छिपने के लिए कह रहे हो. चलो जहां पुलिस है वहां जाकर हम मोर्चा लगावे. पर वहां उनकी कौन सुनता. उन्होंने पुकार-पुकार कर सबको मुकाबले के लिए लाना चाहा लेकिन सब लोग यहां तक कि पुलिस के सिपाही भी तितर-बितर हो गए. कुछ थोड़े से आदमी उनके साथ वहां आये जहां पुलिस ग्रुप था. वहां भी किसी ने मोर्चा नहीं बनाया. जब किसी ने उनकी नहीं सुनी तो उन्होंने कहा कि घर जाता हूं वहां भी मेरा फर्ज है. लोगों ने बताया कि तुम्हारे घर में कबाइली घुस आए हैं वहां मत जाओ. पर वह कब मानने वाले थे. वह अपनी कोठी की तरफ आए. साथ में एक राजपूत पुलिस सब-इंस्पेक्टर था. वह फाटक के बाहर रहा और वजीर साहब फाटक के अंदर गए...

ये विवरण सुनाते-सुनाते दारोगा का गला भर आया और कहा कि आगे का हाल ओम से पूछिए. ओम रूंधे गले से बोला- जब मेहता साहब अंदर गए तब मैं बाथरूम में छुपा था. उनकी नजर मुझ पर पड़ी तो उन्होंने पूछा- ओम, तुम्हारी माताजी कहां हैं? मैंने जियारतगाह की ओर इशारा किया तो वे बोले- तुम्हारी माताजी क्यों भागी, यह भागने का नहीं बलिदान का समय था. मैं इसलिए घर आया था कि सब मिलकर मौत को गले लगाएंगे.

मैंने धीरे से कहा कि आप यहां से चले जाइए. अंदर 60 कबाइली हैं. परंतु वे डटे रहे. ये कहते हुए ओम रोने लगा. फिर वह बोला- इतने में कबाइली बाहर निकल आए. वजीर साहब को देखकर सबने बंदूकें तान ली और कहा, काफिर, पाकिस्तान मंजूर करो और अपने सर से हैट उतारो. लेकिन वे चुप रहे. फिर वे कहने लगे- बता तू हिंदू है या मुस्लिम. फिर भी वे चुप रहे. इतने में हमारे पड़ोस का एक मुसलमान आया और वजीर साहब से कहने लगा, साहब कह दो कि मैं मुसलमान हूं, बच जाओगे. तुम्हारे छोटे-छोटे बच्चे हैं. क्यों जान से हाथ धोते हैं. इतने में कबाइलियों ने फिर पूछा- तुम हिंदू हो या मुसलमान? इस बार वजीर साहब ने कहा- मैं हिंदू हूं, मुसलमान नहीं. बस फिर क्या था सबने बंदूकें तान लीं. एक...दो...तीन... फायर पर फायर हुए. छाती आगे किए वे मुंह से राम....राम कहते गए. चौथी गोली लगने पर वे नीचे गिर पड़े. रोते हुए ओम बोला- मैं क्या करता भागा भागा आ गया खुद को बचाते हुए. शिवदयाल ने बताया कि बाद में कोठी जलाई गई तो उनका दाह संस्कार भी वहीं हो गया...

कृष्णा मेहता आगे लिखती हैं कि मैं खुद को बस कोस सकती थी कि क्यों बलिदान के वक्त उनके साथ नहीं थी. मैं क्यों बच्चों के मोह में वहां से निकल गई. मेहता साहब के बलिदान की पूरी बात सुनकर उनका दिल भर आया और उनको अब अपनी जान की कोई चिंता नहीं थी.

ये पूरा ब्योरा कश्मीर में आतंकवाद के खूनी इतिहास का पहले दिन का है. टेरर का ये पहला चैप्टर बताता है कि पाकिस्तान किस हद तक कश्मीर के नाम पर खूनी साजिशें रचता आया है. कैसे कश्मीर और आज के पीओके के इलाकों से सुनियोजित तरीके से हिंदुओं और सिखों का कत्लेआम किया गया और उनको वहां से या तो भागने को मजबूर किया गया या उनकी जान ले ली गई या फिर धर्म बदलने को मजबूर किया गया. कश्मीर में आतंकवाद की इस कहानी के दूसरा पार्ट में आपको और भी दहलाने वाले विवरण मिलेगा.

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