
सालभर पहले मणिपुर में कुछ ऐसा हुआ जिसने एक ही राज्य में रहने वाले लोगों के बीच लंबी लकीर खींच दी. कहीं गोलीबारी तो कहीं आगजनी, कहीं महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाया गया तो कहीं मासूमों को मार दिया गया. बीता एक साल मणिपुर के लिए हिंसा का ऐसा दौर लेकर आया, जिसकी कल्पना इस पूर्वोत्तर राज्य ने नहीं की थी. हिंसा के आक्रामक दौर को 1 साल बीत चुका है, लेकिन इस एक बरस में मणिपुर के जमीनी हालात कितने बदले, जानते हैं इस ग्राउंड रिपोर्ट में...
इंफाल की सड़कों पर अब लोगों की चहल-पहल पहले से ज्यादा दिखाई देती है, स्कूल, अस्पताल, दुकान, मकान, प्रतिष्ठान अब सामान्य रूप से सुचारू हो चुके हैं. इंफाल की जिन सड़कों पर शाम को 5 बजे के बाद कर्फ्यू लग जाता था वहां हालात सामान्य हो गए हैं. यहां के हालात ऐसा लगता है कि रोजमर्रा के संघर्ष में इंफाल के लोग बीते एक साल का जख्म भूल गए हैं.
रंजीत कुमार बताते हैं कि 1 साल पहले गोलियां चलती थीं, कर्फ्यू लगते थे लेकिन अब हालात पहले से बेहतर हैं, लेकिन जिरिबाम जैसे कुछ इलाकों में एक बार फिर हिंसक झड़प शुरू हो गई है. रंजीत सिंह कहते हैं कि चुनाव तक सब शांत था, लेकिन चुनाव खत्म होते ही हिंसा का दौर कुछ इलाकों में लौट रहा है.
घर-जमीन छोड़कर भागने को मजबूर हुए लोग
लगभग 37 लाख की आबादी वाले मणिपुर के इतिहास में कई घटनाएं हुई हैं. लेकिन पिछले 1 साल में मणिपुर में जो हुआ, इसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की होगी. अदालत के एक आदेश के बाद 3 मई 2023 को मणिपुर की घाटी और पहाड़ों में रहने वाले 2 समुदायों के बीच ऐसी जंग छिड़ गई थी, जिसका अभी तक अंत नहीं हो सका है. इंफाल समेत पूरी घाटी में रहने वाले मैतेई बहुल इलाकों और घाटी के चारों तरफ पहाड़ों पर रहने वाले कुकी आदिवासी बहुल इलाकों के बीच एक अनकही खाई बन गई है, हिंसा के बाद हिंदू मैतेई बहुल इलाकों से कुकी आदिवासी समाज के लोग अपना घर, जमीन छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए, तो वहीं कुकी बहुल इलाकों में रहने वाले हिंदू सब कुछ छोड़कर या तो इंफाल घाटी में लौट आए या राज्य छोड़कर दिल्ली समेत दूसरे इलाकों में बसने पर मजबूर हो गए.

'घर की याद आती है तो रोना आता है'
मणिपुर के सामाजिक संस्थान और स्वराज सरकार मिलकर ऐसे तमाम रिलीफ कैंप चला रहे हैं, जहां जिंदगियां बस बीत रही हैं. बेहद मामूली सुविधाओं के साथ बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग इन रिलीफ कैंप में मुश्किलों का बोझ ढो रहे हैं. इंफाल ईस्ट के इस रिलीफ कैंप में पारी जैसे कई बच्चे अपने परिवार के साथ एक साल से रह रहे हैं. म्यांमार सीमा से सटे मोरे शहर में पारी का परिवार दशकों से रहता था. 3 मई को शुरू हुई हिंसा 10 मई तक मोरे शहर पहुंच गई. पारी जैसे सैकड़ों मैतेई हिंदू परिवार अपना घर छोड़कर इंफाल की तरफ भागने पर मजबूर हो गए. घर छूटा, आंगन छूटा, स्कूल छूटा और दोस्त भी छूटे. इसलिए पारी कहता है कि घर की याद आती है और रोना भी आता है पुराने दोस्त भी याद आते हैं, लेकिन अब यहां नए दोस्त बन गए हैं. जैसे फुटबॉल इस कोने से उस कोने तक जा रही है, इन बच्चों के भविष्य पर भी मानो किस्मत ने लात मार दी है.
रिलीफ कैंप में बदहाल जिंदगी
रिलीफ कैंप के अलग-अलग कमरों में नाम मात्र के संसाधनों के साथ जीने पर मजबूर महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य को लेकर फिक्रमंद हैं, इसलिए विषम परिस्थितियों में भी अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा पर पूरा ध्यान देती हैं. हिंसा भड़कने पर मोरे चुराचांदपुर जैसे कुकी बहुल इलाकों में रहने वाले मैतेई समुदाय के लोग यह नहीं जानते कि उनकी घर वापसी कब होगी. सरकारी रिलीफ केंद्र में 2 वक्त का खाना तो मिलता है लेकिन स्वाभिमान की रोटी कमाने और रोजगार के कोई अवसर उनके सामने नहीं हैं.
हथकरघा के धागों की तरह उलझी किस्मत
कुछ महिलाएं कुशल कारीगर हैं, तो स्थानीय संस्थाओं ने हथकरघा दान किया है. धागों के बीच उलझती महिलाओं की जिंदगी हर दिन घड़ी के सुइयों की तरह चलती जा रही है. कई घंटे तक उमस वाली गर्मी में पसीना बहाने के बाद बाजार में बेचने लायक कपड़ा तैयार होता है. 2 दिन की मेहनत के बाद बचत के नाम पर हाथ में आते हैं सिर्फ डेढ़ सौ रुपए.

सोमेंद्र बोले- भाईचारा बहाल करना मुश्किल
मोरे से परिवार के साथ जान बचाकर इंफाल भागने वाले सोमेंद्र बताते हैं कि कुकी और मैतेई दशकों तक भाई-भाई बनकर साथ रहे, लेकिन वह भाईचारा अब फिर से बहाल होता नहीं दिख रहा है, ऊपर से सरकार की कोशिश में शांति बहाली में कोई सफलता दिखाई नहीं देती, क्योंकि ना तो राज्य सरकार हिंसा रोकने में सफल है ना ही केंद्र सरकार.
खाना बनाने के लिए तालाब में एकत्र होता है पानी, इसमें कीड़े दिखाई देते हैं
रिलीफ कैंपो में खाना बड़े-बड़े चूल्हों पर बनता है, लेकिन आसपास का वातावरण विचलित करता है. जहां चूल्हे जलते हैं, वहां आसपास गंदा पानी है. हाल ही में मणिपुर में जो बाढ़ आई थी, उसने रिलीफ कैंपों की हालत को नारकीय बना दिया है. पीने के पानी की सप्लाई बाहर से छोटे-छोटे टांके में आती है, लेकिन खाना बनाने और नहाने के लिए एक छोटे से तालाब में पानी इकट्ठा किया जाता है, जिसमें कीड़े तैरते दिखाई देते हैं.

दिनभर मेहनत के बाद कमाई सिर्फ 70 रुपए
आसपास के बाजार से कुछ महिलाएं साग-सब्जी लाकर कैंप में ही दुकान चल रही हैं, ताकि बच्चों को रिलीफ कैंप से थोड़ा बेहतर खाना दिया जा सके. इसी रिलीफ कैंप के एक छोटे से कमरे में देविका अपने बेटे के साथ रहती हैं. मोरी से जब परिवार पलायन कर इंफाल के रिलीफ कैंप में आया तो 8 बाय 8 के कमरे में सात लोग रहते थे. कुछ लोग रिश्तेदारों के घर चले गए हैं, देविका के रिश्तेदारों ने आर्थिक मदद करने के लिए उन्हें मोमबत्ती बनाने का सामान मुहैया करा दिया है. सालभर पहले देखा डरावना मंजर, बेटे के सामने खड़ी पूरी जिंदगी की फिक्र और मंद हाथों से मोमबत्ती के सांचों के इर्द-गिर्द धागा लपेटती देविका अपना दर्द बयां करते आंखों से आंसुओं को रोक नहीं पाती हैं. देविका कहती हैं कि पिछले एक साल में मौसम की बेरहम मार झेली है, जब इस छोटे से कमरे में सभी परिवार साथ रहते थे, तो निजता के लिए जून की गर्मी में भी कंबल ओढ़ कर रहना पड़ता था, कई घंटे तक लाइट चली जाती है और बेटा पूछता है कि मां हम घर कब जाएंगे? देविका बताती हैं कि उनका घर जला दिया गया था. दर्जनभर मोमबत्ती बनाकर बेचने पर हाथ में 70 रुपए आते हैं, यह 70 रुपए ना हों तो बेटा भी रिलीफ कैंप का खाना खाकर जिएगा.

एक साल पहले जहां चली थीं गोलियां, अब शांति की बयार
इन तमाम मैतेई परिवारों में एक शिक्षिका भी हैं, बेबी चुरा चांदपुर में रहती थीं. हिंसा की चपेट में उनका भी घर आया. जान बचाकर इंफाल पहुंचीं और अब इसी कैंप के बच्चों को पढ़ा रही हैं, ताकि उनका भविष्य बर्बाद ना हो. इंफाल से मोर की ओर जाते-जाते थोबल जिला पड़ता है. कभी हिंसा की आग में जल रहा थोबल अब शांत है. इस बार किसान अपने खेतों में हैं. मणिपुर के कई जिले जहां घाटी और पहाड़ से मिलते हैं. वहां बीते साल गोलीबारी के चलते किसान खेतों में नहीं जा रहे थे. कुछ इलाकों में अब हालात सामान्य हो रहे हैं, तो खेतों में हरियाली भी दिखाई दे रही है. महिलाओं की जुबान पर पारंपरिक गीत भी हैं. यह तस्वीर सुखद है, हालांकि बीते साल चुरा चांदपुर और कानपुर पी से लगती हुई सीमाओं के पास किसानों के लिए काम करना मुश्किल था, क्योंकि तनाव के बाद रह-रह कर पहाड़ों से गोलियां चलती थीं.

खेतों में लौटी हरियाली
केंद्रीय सुरक्षा बलों की सक्रियता के बाद अब हालात कुछ बदले हैं और किसान अपने खेतों में लौटे हैं. स्थानीय किसान लाइसेन नोथम बताते हैं कि अब थोबल में हालात बेहतर हैं, लेकिन दूसरे कई जिलों में जहां घाटी पहाड़ों से मिलती है, वहां किसानों के लिए स्थिति अभी भी विषम है, लेकिन कुछ इलाकों में हालात ठीक हुए हैं, तो किसान खेती गुड़ाई के लिए फिर से खेतों में लौटे हैं. नोथम कहते हैं केंद्र सरकार और राज्य सरकार मिलकर मणिपुर की शांति व्यवस्था बहाल करें यही सबसे ज्यादा जरूर है.