जिंदगी एक अशांत नदी की तरह है, हमेशा बहती रहती है और रास्ता बदलती रहती है. कभी यह हमें नई ऊंचाइयों तक पहुंचाती है, तो कभी पीछे खींच लाती है. लेकिन, जैसा कि शेक्सपियर ने अपने प्ले 'जूलियस सीजर' में लिखा है, 'जीवन में कुछ क्षण समुद्र में उठे उच्च ज्वार भाटे की तरह आते हैं- जिसे इंसान अगर अगर संभाल ले, तो वह सफलता और समृद्धि हासिल कर सकता है.' सोमवार को इस्तीफा देने वाले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के जीवन की कहानी भी इसी नदी की तरह है, जो उतार-चढ़ाव से भरी है.
साल 1989 में भारत का राजनीतिक परिदृश्य अशांत था, कांग्रेस को एकजुट विपक्ष से अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. यह गैर-कांग्रेसी विपक्ष के लिए सबसे अच्छा समय और कांग्रेस तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए सबसे बुरा समय था. एक युवा प्रधानमंत्री, जिसने अपने व्यक्तित्व और दूरदर्शिता से देश का ध्यान आकर्षित किया था, अचानक अपनी चमक खो बैठा था. भ्रष्टाचार, अवसरवाद और सांप्रदायिकता की छाया ने उनकी छवि को धुमिल किया था.
उस समय 'बोफोर्स' (आर्टिलरी गन बनाने वाली स्वीडन की डिफेंस कंपनी) की हर घर में चर्चा थी और सड़कों पर एक नारा गूंज रहा था- 'गली, गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है.' राजीव गांधी का करिश्मा कम होने के साथ एक और नैरेटिव सामने आ रहा था- हिंदुत्व का उदय, जिसे अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर बीजेपी के अभियान ने और बल दिया. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या तक 'रथ यात्रा' निकाल रहे थे, जिसने देश में हिंदुत्व को एक प्रमुख मुद्दा बना दिया. उसी दौरान एक अजीबोगरीब गठबंधन ने भारतीय राजनीति को आकार दिया. इसने जगदीप धनखड़ को भाग्य के ज्वार भाटा पर सवार होने का अवसर प्रदान किया.
लेफ्ट-राइट एक हुए और धनखड़ पहुंचे लोकसभा
लेफ्ट और राइट कभी एक नहीं हो सकते. लेकिन राजनीति का यह सिद्धांत तब उलट गया जब 1989 के चुनावों में भाजपा, वीपी सिंह के नेतृत्व वाले जनता दल और वामपंथियों ने राजीव गांधी के खिलाफ हाथ मिला लिया. इस गठबंधन ने कांग्रेस द्वारा चतुराईपूर्वक जातिगत और सांप्रदायिक समीकरणों के माध्यम से बुने गए सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया. कई स्थानों पर इसने प्रतिद्वंद्वी सामाजिक समूहों को एक साथ लाकर कांग्रेस के विरुद्ध एक ठोस वोट बैंक तैयार कर दिया. इस गठबंधन का प्रभाव राजस्थान जैसे राज्यों में सबसे अधिक महसूस किया गया, जहां सामंती युग की वफादारी ने जाटों और राजपूतों जैसी राजनीतिक रूप से मुखर जातियों के बीच गहरी फूट पैदा कर दी थी. भारतीय इतिहास में पहली बार ये कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट हुए.
राजस्थान का शहर झुंझुनू, जिसका नाम संभवतः झुंझुनू नामक सरदार के नाम पर रखा गया है. यह राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र (शेखावत क्षत्रियों का शासन होने के कारण इस क्षेत्र का नाम शेखावाटी पड़ा) का दिल है और जिसे भारत के कुछ सबसे बड़े व्यापारिक दिग्गजों की जन्मस्थली के रूप में जाना जाता है. झुंझुनू के एक छोटे से गांव में जन्मे जगदीप धनखड़ वकालत करने जयपुर चले गए, जहां वह हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष बने. लेकिन उनकी राजनीतिक नियति झुंझुनू में ही उनका इंतजार कर रही थी.
झुंझुनू की राजनीति में तीन समूहों का दबदबा है- संख्या में श्रेष्ठ जाट, राजनीतिक रूप से एकजुट मुसलमान, और सामाजिक रूप से शक्तिशाली राजपूत, जो कभी सरदारों के रूप में शासन करते थे. झुंझुनू की राजनीति पर ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस का दबदबा रहा है, जिसने जाटों, मुसलमानों और दलितों का एक मजबूत वोट बैंक बनाया है. 1989 में इस सौहार्द को समाप्त करने में दो नेताओं की भूमिका रही, जिससे जगदीप धनखड़ को एक दुर्लभ अवसर मिला.
राजनीतिक नियति झुंझुनू में कर रही थी इंतजार
राजस्थान के जाटों के बीच, विशेषकर शेखावाटी क्षेत्र में, चौधरी देवीलाल एक अप्रत्याशित सितारे के रूप में उभरे, भले ही उनकी कर्मभूमि निकटवर्ती राज्य हरियाणा थी. समर्थकों द्वारा ताऊ के रूप में जाने जाने वाले देवीलाल ने राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य को तब हिला दिया जब उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज और साथी जाट नेता बलराम जाखड़ के खिलाफ सीकर से अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की. देवीलाल के सीकर से चुनाव लड़ने के फैसले ने, जो झुंझुनू से सटा हुआ है, पूरे शेखावाटी क्षेत्र में जाटों को कांग्रेस से विपक्ष की ओर खींच लिया. उन्होंने भाजपा के दिग्गज नेता भैरों सिंह शेखावत के नेतृत्व में राजपूतों और ठाकुर वीपी सिंह के साथ मिलकर एक मजबूत समूह बनाया, जिसने विपक्ष की जीत सुनिश्चित कर दी.
ताऊ देवीलाल का 75वां जन्मदिन था, और दिल्ली के बोट क्लब में विपक्ष ने इस मौके पर जोरदार आयोजन किया था. राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले युवा वकील जगदीप धनखड़ ने झुंझुनू से 75 गाड़ियों का काफिला लेकर देवीलाल के जन्मदिन में शामिल होने दिल्ली पहुंचे. कुछ दिनों बाद, जब जयपुर में संग्राम कॉलोनी स्थित उनका घर बिजली कटौती के कारण अंधेरे में डूबा हुआ था, तब उन्हें रोशनी की किरणें दिखाई दीं. देवीलाल और अजित सिंह उनसे मिलने आए और उन्हें झुंझुनू से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी, जाट-राजपूत गठबंधन की संयुक्त ताकत से आगे बढ़ते हुए, धनखड़ ने चुनाव में भारी जीत हासिल की.
नवंबर 1990 में नियति की धारा ने अपना रुख बदल दिया. वी.पी. सिंह, बड़ी उम्मीदों और जनता की इच्छाशक्ति के बल पर सत्ता में आए और उन्होंने सरकार बनाई. कांग्रेस नेता बंसीलाल की सिफारिश पर जगदीप धनखड़ को राज्य मंत्री के रूप में कैबिनेट में शामिल किया गया. नवंबर 1989 में, वी.पी. सिंह की सरकार गठबंधन टूटने के कारण गिर गई. चंद्रशेखर, जिनका सफर लंबे समय से मुख्यधारा से अलग रहा था, अब खुद देश की बागडोर संभाल रहे थे.
पहली बार में मंत्री बने, पर ज्यादा वक्त नहीं मिला
उसी क्षण, एक और अवसर आया जब जगदीप धनखड़ को सरकार में राज्य मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए बुलाया गया. लेकिन, उन्होंने राजस्थान के नेताओं दौलत राम और कल्याण सिंह को वरिष्ठ सहयोगियों के रूप में शामिल किए जाने पर आपत्ति जताते हुए शपथ लेने से इनकार कर दिया. मार्च 1991 में, चंद्रशेखर की सरकार, जो हमेशा से ही अस्थिर रही थी, ने वह समर्थन खो दिया जिसने उसे टिकाये रखा था. बढ़ते राजनीतिक दबाव और अलगाव का सामना करते हुए, उन्होंने इस्तीफा दे दिया, जिससे उनका संक्षिप्त कार्यकाल समाप्त हो गया.
मंत्रिमंडल भंग होने के साथ, राष्ट्रीय राजनीति में जगदीप धनखड़ की भूमिका उतनी ही तेजी से फीकी पड़ गई जितनी तेजी से ऊपर उठी थी. उनके लिए संसद के द्वार बंद हो चुके थे, लेकिन महत्वाकांक्षाएं अब भी हिलोरें मार रही थीं. हालांकि, राजनीति शायद ही कभी माफ करती है या भूलती है. 1990 के दशक में कांग्रेस का दबदबा फिर से बढ़ रहा था, और धनखड़ ने एक व्यावहारिक बदलाव देखा- वह 1993 में राज्य विधानसभा की एक सीट जीतकर कांग्रेस में शामिल हो गए. विधानसभा में जीत के बाद, कुछ समय के लिए धनखड़ का करियर स्थिर हो गया.
लेकिन उन्होंने एक राजनीतिक भूल कर दी. राजस्थान की जाति-आधारित राजनीति में, जगदीप धनखड़ ने खुद को एक जाट नेता के रूप में स्थापित किया. दुर्भाग्य से, कांग्रेस की बागडोर अशोक गहलोत के हाथों में चली गई, जिन्होंने पार्टी से जाट नेताओं का सफाया कर दिया. गहलोत द्वारा विधानसभा चुनाव लड़ने का मौका न दिए जाने पर, धनखड़ पहले राकांपा में शामिल हुए और फिर 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए. उनकी पुरानी मित्र और भाजपा की नई क्षत्रप वसुंधरा राजे ने धनखड़ को राज्यसभा का टिकट देने से इनकार कर दिया, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में वापसी का उनका सपना टूट गया.
कुछ गलत फैसले और राजनीतिक करियर बेपटरी
उनकी राजनीतिक यात्रा, जो कभी आशाओं से भरी हुई थी, उनकी अपनी अधीरता, निष्ठा में अचानक परिवर्तन और गलत कदमों के कारण पटरी से उतर गई. साथ ही क्षेत्रीय नेताओं के उदय ने भी उनके लिए मौका नहीं बनने दिया, जो इस अनुभवी वकील को संदेह की दृष्टि से देखते थे. परिणामस्वरूप, एक दशक के भीतर लगभग हर प्रमुख राजनीतिक दल में संक्षिप्त कार्यकाल के बाद, उन्होंने स्वयं को किनारे पर धकेला हुआ पाया. गुमनामी की अपनी लय होती है. धनखड़ ने धैर्यपूर्वक समय के पलटने का इंतजार किया. जयपुर के बाहरी इलाके में स्थित उनके फार्म पर आने वाले लोगों को उस कॉफी का आनंद मिलता था जिसे वह घंटों चम्मच से फेंटकर खुद बनाते थे. उनका राजनीतिक वनवास लगभग 15 वर्षों तक चला.
वह कानूनी दुनिया में सक्रिय रहे और सुप्रीम कोर्ट में एक प्रखर, तर्कशील वकील के रूप में ख्याति अर्जित की. इन वर्षों में, उन्होंने आरएसएस के साथ शांत लेकिन मजबूत संबंध बनाए. संघ और भाजपा को कानून की उनकी जानकारी का लाभ मिलता रहा. हालांकि, उन्हें अब भी औपचारिक भूमिका से वंचित रखा गया था. 2019 में उनकी किस्मत ने करवट ली. एक अनुभवी और क्षेत्रीय रूप से विश्वसनीय नेता की तलाश में जुटी भाजपा ने जगदीप धनखड़ को पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त कर दिया- एक आश्चर्यजनक कदम जिसने उन्हें फिर से राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में ला दिया.
बंगाल की उग्र और अक्सर टकराव वाली राजनीति से निपटने में, और अक्सर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से दो-दो हाथ करने में, उनकी कानूनी सूझबूझ और राजनीतिक रणनीति की गहरी समझ उनके लिए एक वरदान साबित हुई. उनकी टकराव भरी शैली का इनाम भाजपा ने उन्हें 2022 में उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनकर दिया. लेकिन एक और अध्याय अभी बाकी था. इस मार्च में, धनखड़ ने हार्ट में ब्लॉकेज से संबंधित एक ऑपरेशन करवाया था. लेकिन लो ब्लडप्रेशर की समस्या बनी रही, जिस कारण वह कई मौकों पर अचानक बेहोश भी हुए. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, स्वास्थ्य संबंधी यही कारण उनके अचानक इस्तीफे का कारण है.
भाजपा शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा बनी इस्तीफे का कारण?
लेकिन असली वजह कुछ और है. धनखड़ के करीबी सूत्रों का कहना है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा उनकी लगातार उपेक्षा की जा रही थी, जिससे बीजेपी के साथ उनके रिश्तों में तेजी से खटास आई. अपने गृह राज्य राजस्थान में, जगदीप धनखड़ को मुख्यमंत्री भजनलाल द्वारा अपमानित महसूस हो रहा था, जो अक्सर उनकी यात्राओं या अनुरोधों को नजरअंदाज कर देते थे. उनके करीबी सूत्रों का कहना है कि उन्हें जानबूझकर अपमानित किया जा रहा था- यह स्पष्ट संदेश था कि पार्टी के भीतर उनकी साख गिर गई है. 20 जुलाई को उनकी पत्नी डॉ. सुदेश धनखड़ का जन्मदिन था. कर्मचारियों के लिए एक भोज का आयोजन किया गया था, जिसमें जयपुर से जलेबियां मंगवाई गई थीं. उनके इस्तीफे का कोई संकेत नहीं था, हालांकि धनखड़ को पता था कि वह निर्धारित समय से ज्यादा इस पद पर रह चुके हैं.
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि किसानों और न्यायपालिका पर उनकी मुखर टिप्पणियों को लेकर भाजपा नेतृत्व के साथ उनका तनाव चल रहा था, हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. अपनी पत्नी के जन्मदिन के एक दिन बाद, संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन, जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया. एक पारिवारिक सूत्र ने बताया, 'वह इसलिए गुस्से में थे क्योंकि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनके प्रति उदासीनता दिखा रहा था. हालात इतने बिगड़ गए थे कि पार्टी नेतृत्व उनके अभिवादन तक को नजरअंदाज कर देता था.' न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग नोटिस को धनखड़ द्वारा स्वीकार कर लेना इस तनाव का चरम बिंदु था.
जगदीप धनखड़ की जीवन यात्रा स्थायी उत्थान की कहानी कम और उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति की कहानी ज्यादा है. इंतजार करने, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने और अवसर आने पर उसे लपक लेने की उनकी क्षमता उन्हें अलग बनाती है. उनका हालिया इस्तीफा उनके लंबे और अप्रत्याशित राजनीतिक सफर में बस एक नया मोड़ है. जगदीप धनखड़ ने अद्भुत दृढ़ता के साथ जीवन में आने वाले ज्वार भाटे का सामना किया है. क्या वह फिर से वापसी करेंगे, या यह उनके राजनीतिक सफर का अंत है? समय ही बताएगा कि आगे क्या उतार-चढ़ाव होंगे.