वर्ष 1971... इस साल का जिक्र होते ही हमें भारत पाकिस्तान का वो युद्ध याद आ जाता है, जहां भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त देकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था. जिसे हम विजय दिवस के रूप में भी मनाते हैं. इसी विजय दिवस से जुड़ी कई वीर गाथाओं को हमने सुना और पढ़ा है, लेकिन एक ऐसी साहसीय गाथा, एक ऐसी पराक्रम की कहानी, जो कई वर्षों से अनसुनी है, अनकही है.
वैसे देखा जाए तो यह लड़ाई अपने आप में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि पाकिस्तान की सेना खालरा के रास्ते पुल को पार करते हुए अंदर की ओर आ जाती तो खालरा के जरिए पंजाब पर पकड़ बनाना आसान था, लेकिन 65 Infantry Brigade और 14 JAK Rifles के जवानों ने ऐसा होने नहीं दिया. देखा जाए तो यह युद्ध हर लिहाज से एक बड़ी भूमिका अदा करता है, लेकिन इतिहास के पन्नों में धुंधला नजर आता है.

सन् 1971 में जहां एक ओर पूर्वी पाकिस्तान तो दूसरी ओर पश्चिमी पाकिस्तान के साथ युद्ध, जिसका एक हिस्सा खालरा की लड़ाई थी, जिसे बैटल ऑफ खालरा के नाम से जाना जाता है. बैटल ऑफ खालरा में भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान की हरिके आने की साजिश को नाकाम कर दिया था.

यह लड़ाई 3 दिसंबर 1971 से लेकर 17 दिसंबर 1971 तक चली थी, लेकिन इसकी शुरुआत 3 दिसंबर की शाम 6 बजकर 40 मिनट पर हुई थी. दरअसल, पाकिस्तान की सेना खालरा के जरिए हरिके आने का मन बना चुकी थी, लेकिन 65 Infantry Brigade और 14 JAK Rifles के जांबाज सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना को दूर से ही खदेड़ दिया.

सन् 1971 में भारत पाक युद्ध के दौरान भारतीय सेना पश्चिमी सरहदों पर तीन प्रमुख Axes की सुरक्षा के लिए तैनात थी. लाहौर अमृतसर, लाहौर खालरा हरिके और लाहौर फिरोजपुर. अमृतसर और फिरोजपुर जहां आबादी वाले इलाके थे, वहीं हरिके हेडवर्क्स ब्यास और सतलुज नदी के संगम पर स्थित भौगिलिक एवं सामरिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण क्षेत्र था.

पूरी तरह तैयार थे 65 Infantry Brigade के जांबाज सैनिक
हरिके तक जाने के लिए लाहौर बुर्की पट्टी सड़क के रास्ते खालरा के जरिए ही पहुंचा जा सकता था. पाकिस्तान के लिए खालरा को पार करने का मतलब अपर बड़ी दोआबा कैनाल (UBDC) और मारी मेघा ड्रेन पर तैनात भारतीय सेना को परास्त करना था, लेकिन इस इलाके में 65 Infantry Brigade के जांबाज सैनिक पूरी तरह तैयार थे.

ब्रिगेड का मुख्य डिफेंस मारी मेघा ड्रेन पर और स्क्रीन के तौर पर एक बटालियन मारी मेघा ड्रेन के पश्चिम में UBDC पर तैनात थी. UBDC को पार करने के लिए तीनों पुलों, कलसियां, खालरा और नारली पर 14 JAK बटालियन का एक सेक्शन तैनात था और बटालियन का मुख्य डिफेंस खालरा डिफेंसिव पोजिशन में था.

छोटी-छोटी टुकड़ियां दुश्मन पर पड़ीं भारी
3 दिसंबर 1971 की रात भारी मात्रा में पाकिस्तान द्वारा हवाई और आर्टिलरी बमबारी इस इलाके में की गई. IB के पास वाले BSF Posts और गांवों में धमाकों की आवाजें गूंज उठीं. गांव वाले सुरक्षित स्थानों की ओर जाने के लिए पूर्व की ओर जाने लगे और उन्हीं की आड़ में हमलावर दुश्मन सेना आगे बढ़ने लगी और शीघ्र ही UBDC के पुलों के नजदीक पहुंच गई.
मगर, इस समय तक भारतीय सेना के जांबाज सिपाहियों ने अपने मोर्चे संभाल लिए थे. तीन और 4 दिसंबर और 4 व 5 दिसंबर की रात दुश्मन ने पुलों पर कब्जा करने के अनेकों प्रयास किए, लेकिन हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी. तैनात टुकड़ियां छोटी थीं, लेकिन उनके हौसले बुलंद थे.
पाकिस्तानी सेना एक इंच तक आगे नहीं बढ़ पाई

साल 1971 में बैटल ऑफ खालरा में सेना में शामिल रि. कर्नल एच एस बाजवा बताते हैं कि बैटल ऑफ खालरा कई मायनों में एक महत्वपूर्ण लडाई थी. यदि ये लड़ाई नहीं जीतते तो पाकिस्तानी सेना कई गांवों पर आसानी से कब्जा कर लेती, लेकिन 65 Infantry Brigade और 14 Jak rifles ने ऐसी लड़ाई लड़ी कि पाकिस्तानी सेना एक इंच तक आगे नहीं बढ़ पाई. कर्नल एच एस बाजवा बताते हैं कि यह समय अपने आप में काफी कठिन समय था, क्योंकि एक तरफ ईस्ट पाकिस्तान की लड़ाई थी तो दूसरी ओर वेस्ट पाकिस्तान में भी तनाव की स्थिति थी.
चरम पर था हमारी फौज का हौसला, एक-एक सैनिक दस के बराबर
इस युद्ध में फ्रंट सेक्शन पर लड़ने वाले रि कर्नल पीएम सिंह देव बताते हैं कि पाकिस्तान को यदि न रोकते तो शायद उनकी सेना अमृतसर तक बड़ी ही आसानी से पहुंच जाती. कर्नल देव बताते हैं कि पाकिस्तान की तरफ से बड़ी संख्या में फौज आगे की तरफ बढ़ रही थी, तब हमारी बटालियन बने कुछ तीन या चार साल ही हुए थे. ऐसे में यह हमारे जवानों के लिए और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण था. शुरूआत में लगा जैसे कि हमें ही पीछे हटना पडे़गा, लेकिन पूरी फौज का हौसला चरम पर था और हमारा एक-एक सैनिक दस के बराबर था. इसलिए पाकिस्तान की सेना आगे नहीं बढ़ पाई.
छह जवान हुए थे शहीद, 11 हो गए थे घायल

खालरा के इस युद्ध में इस बटालियन के 6 जवानों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया और 11 जवान बुरी तरह जख्मी हो गए, लेकिन उन्होंने दुश्मन को उसके नापाक इरादों में सफल नहीं होने दिया. खालरा पुल पर तैनात सेक्शन के सेक्शन कमांडर लांस हवलदार रघबीर सिंह को मरणोपरांत उनके अदम्य साहस एवं पराक्रम के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया.
वहीं, तीन अन्य जवानों को Mention in Despatches के सम्मान से अलंकृत किया गया. ये युद्ध और इसकी शौर्य गाथा पिछले 51 वर्षों से आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है. अनंत काल तक वीरता की मिसाल रहेगी.