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संघ के 100 साल: देवरस को मिली थी रोज राम नाम लिखने की सलाह, कहा जाता था ‘संघ का कम्युनिस्ट’

संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब ईश्वर का अस्तित्व मानते थे, व्रत, पूजा, पाठ से उनका कोई विरोध नहीं था. किंतु स्वयं वह संध्या-वंदन, स्तोत्रों का पाठ नित्य नैमित्तिक कर्म आदि में उदासीन थे. एक बार उन्होंने कहा, ‘मुझे संघ का कम्युनिस्ट कहते हैं’. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है बालासाहब देवरस की कहानी.

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देवरस संघ के तीसरे सरसंघचालक थे. (Photo: AI generated)
देवरस संघ के तीसरे सरसंघचालक थे. (Photo: AI generated)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस अपने पूर्ववर्ती गुरु गोलवलकर से कई मामलों में बिल्कुल अलग थे. उनके निजी सचिव बाबूराव चौथाईवाले ने उनके बारे में कई दिलचस्प बातें अलग-अलग लोगों को बताई हैं. रामबहादुर राय और राजीव गुप्ता द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हमारे बालासाहब देवरस’ में भी उनके एक लेख से कुछ बातें पता चलती हैं. उनमें सबसे ज्यादा दिलचस्प था धार्मिक परम्पराओं के प्रति बालासाहब का अलग रुझान. वो इतना अलग था कि बालासाहब के खुद के शब्दों में उन्हें ‘संघ का कम्युनिस्ट’ माना जाता था
 
‘रोज राम नाम लिखा करिए’

बाबराव चौथाईवाले गुरु गोलवलकर के बाद बने नए सरसंघचालक की अलग आदतों के बारे में ज्यादा विस्तार से बताते हैं कि, “वर्ष 1973 के पूर्व सभी पत्रों का उत्तर गुरुजी स्वयं लिखते थे. डॉ. आबाजी थट्टे और कृष्णराव मोहर्रिर भी पत्रों के उत्तर लिखते थे. अतः संघ से संबंधित पत्र लिखने का काम बालासाहब को नहीं करना पड़ता था. आवश्यकता पड़ने पर डॉ. आबाजी या कृष्णराव को पत्र लिखने के लिए वे कह देते थे. उनके प्रवास के विषय में कई पत्र मैंने भी लिखे. सरसंघचालक बनने पर पत्रों के उत्तरों की उनसे अपेक्षा होना स्वाभाविक था.

तब पत्र का आशय वे बताते थे और मैं अपने हाथ से पत्र लिखता या टंकित करवाता और वे हस्ताक्षर करते. केवल पत्र ही नहीं, संदेश, अभीष्ट चिंतन, विजयादशमी उत्सव के भाषण, प्रश्नावलियों के उत्तर, व्यक्ति चित्रण, पुस्तकों को आशीर्वाद या प्रस्तावना के संदर्भ में भी यही सिलसिला चलता था. आपातकाल के समय मार्गशीर्ष शुक्ल 5 को उनके जन्मदिन पर यरवदा कारागार में 3-4 हजार शुभेच्छा पत्र उनको भेजे गए. वहां के संघ के अधिकारियों ने कुछ अच्छे लिखने वाले स्वयंसेवकों को इस काम में लगाया. उन्होंने बालासाहब के कहने के अनुसार पत्रों के उत्तर लिखे और बालासाहब ने उन पर हस्ताक्षर किए थे”.
 
अपने हाथ से पत्र लिखने का अभ्यास न रहने के संदर्भ में तत्कालीन कार्यालय प्रमुख पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने एक किस्सा बताया था. बालासाहब सरकार्यवाह थे. अखिल भारतीय बैठक के पत्र पांडुरंग पंत तैयार करते थे और सरकार्यवाह हस्ताक्षर करते थे. ऐसे ही एक पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बालासाहब को एक अच्छा सा फाउंटेन पेन दिया गया था.

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हस्ताक्षर करने के लिए बालासाहब ने पेन खोला तो उसकी स्याही सूख चुकी थी. इसलिए उन्होंने पांडुरंग पंत से पेन मांगा. पंत ने हंसते-हंसते कहा, “प्रतिदिन कुछ लिखने पर स्याही सूखेगी नहीं और ऐसा प्रसंग नहीं आएगा.” “इस पर बालासाहब ने पूछा, “हर रोज क्या लिखूं?” पंत ने कहा, "राम नाम लिखा करिए" बालासाहब कहने लगे, “बाबू ने मुझे संध्या - वंदन करने को कहा, अब तुम राम नाम लिखने को कह रहे हो”, वहां बैठे हुए हम सभी लोग ठहाका मारकर हंस पड़े. इस अकेली घटना से समझा जा सकता है कि बालासाहब वाकई में  गुरु गोलवलकर से अलग थे.
 
‘मुझे संघ का कम्युनिस्ट कहते हैं’

बालासाहब ईश्वर का अस्तित्व मानते थे, किसी के व्रत, पूजा, पाठ, संध्या वंदना आदि से उनका कोई विरोध नहीं था. किंतु खुद संध्या-वंदन, स्तोत्रों का पाठ, आध्यात्मिक ग्रंथों का पठन, नित्य नैमित्तिक कर्म आदि में उदासीन थे. चौथाईवाले लिखते हैं कि, “उन्हें बुद्धिवादी माना जाता था. एक बार उन्होंने कहा, ‘मुझे संघ का कम्युनिस्ट कहते हैं’, किंतु उन्होंने अपने विचार किसी पर लादने का प्रयास नहीं किया. उनके सहयोगियों में अनेक नित्य उपासना करते थे, किंतु उनको बालासाहब ने कभी टोका नहीं. मेरे जैसे निकटवर्तियों का मजाक करते थे, किंतु किसी की श्रद्धा की उन्होंने अवहेलना नहीं की”.

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वह उनके दृष्टिकोण को एक उदाहरण के जरिए भी समझाते हैं, “नागपुर की पिछड़ी बस्ती की शाखा के एक मुख्य शिक्षक अब्राह्मण होते हुए भी कर्मठ ब्राह्मण जैसे आचार धर्म का पालन करते थे. वे पदवी परीक्षा में तत्त्व ज्ञान विषय लेकर उत्तीर्ण हुए थे. तत्त्व ज्ञान की पुस्तकें, ज्ञानेश्वरी, तुकारामजी की गाथा नित्य पठन करते थे. अतः तात्त्विक चर्चा करना उनको अच्छा लगता था. किंतु बुद्धि के अभाव में धारणा स्थिर नहीं थी. इस कार्यकर्ता से बालासाहब का बचपन से परिचय था. उनकी पत्नी और कन्या उनसे भी सुंदर थीं. संघ कार्यकर्ता होने के कारण उनके घर का वातावरण काफी मुक्त था. घर आनेवालों से पत्नी की मुक्त रूप से बातचीत होती थी किंतु उस कार्यकर्ता की बुद्धि परिपक्व न होने से उसके मन में पत्नी के चरित्र के विषय में संदेह पैदा हुआ. मन का संतुलन खो गया. स्वास्थ्य पर परिणाम हआ, डॉक्टर की दवाइयों का परिणाम नहीं होता था”.

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

वो आगे लिखते हैं कि, “बालासाहब ने यह देख मुझसे कहा, ‘तू उसे खातखेड़कर महाराज के पास ले जा’. खातखेड़कर महाराज मेरे छोटे भाई के ससुर थे. साक्षात्कारी पुरुष थे. उनके पास उस कार्यकर्ता को ले जाने के लिए कहने पर मैंने बालासाहब से पूछा, ‘आपका तो इन बातों पर बिल्कुल विश्वास नहीं, फिर भी आप मुझे यह काम क्यों बता रहे हैं?’ बालासाहब ने कहा, ‘मेरा विश्वास नहीं, किंतु उनका है न! सब उपाय, सब पैथी हो चुकी है. यह उपाय एक पैथी के रूप में करने में क्या आपत्ति है? वह ठीक होने से मतलब है. पैथी का दुराग्रह क्यों?’ कार्यकर्ता को महाराज के पास ले गया. उनको पूर्वकल्पना दी गई थी. वह कार्यकर्ता लगभग एक घंटा उनके सामने बैठा. 45 मिनट तक उसका ही भाषण चलता रहा. विषय आध्यात्म ही था. ज्ञानेश्वरी गाथा आदि ग्रंथों की ओवी, अभंग आदि बोले जा रहे थे; किंतु सब बोलना असंबद्ध था. मैं भी बैठा था, थक जाने पर उसका बोलना बंद हुआ. बाद में महाराज ने कहा, ‘आप व्यंकटेश स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करिए’ उसके माथे पर विभूति लगाई. विभूति देकर वह सुबह-शाम माथे पर लगाने को कहा. योगायोग से वह कार्यकर्ता दो माह में पूर्णतः स्वस्थ हुआ. मन का संदेह हट जाने से वैवाहिक जीवन भी सुचारु रूप से चलने लगा.”
 
फिर ऐसे बदलते चले गए बालासाहब देवरस

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सावरकर तर्कवादी थे, कहा जाता है कि बालासाहब देवरस के जीवन पर उनका बड़ा प्रभाव था. लेकिन सरसंघचालक बनने के बाद उनको ये अहसास होने लगा था कि इस पद पर विराजित व्यक्ति से लाखों स्वयंसेवक प्रेरणा लेते हैं और उनके जीवन, उनके कृत्यों, तौर तरीकों से सीखते हैं, उनका पालन करते हैं. ऐसे में जीवन में कुछ बदलाव लाने ही होंगे.  बाबूराव चौथाईवाले लिखते हैं, “सरसंघचालक होने के पूर्व आधुनिक, शिक्षित और स्वातंत्र्यवीर सावरकर कहने के अनुसार श्रुति स्मृति पुराणोक्त नहीं, बल्कि आधुनिक चीजों को प्रमाण मानते हुए जीवन रचना करने का उनका विचार था. दैनंदिन शाखा कार्य को छोड़कर संध्या - वंदन, स्तोत्र पठन आदि चीजों को उनके जीवन में स्थान नहीं था. सरसंघचालक होने पर गुरुजी जैसे ही उनका नित्यक्रम होगा, ऐसा समझकर संध्या वंदन की तैयारी करने के विषय में लोग पूछा करते. साधारण स्वयंसेवकों की श्रद्धावान् मानसिकता को देखकर बालासाहब ने अपने जीवन में कुछ बातों का प्रारंभ किया. स्नान के पश्चात् अगरबत्ती जलाकर 'गीता' का एक अध्याय पढ़ना उन्होंने प्रारंभ किया. यह बदलाव इतना स्वाभाविक रीति से हुआ कि कई दिन उनके निकटवर्ती मित्रों के भी ध्यान में नहीं आया. यह परिवर्तन लोगों को बहुत अच्छा लगा.”
 
कितने बदल गए बालासाहब

प्रारंभ में कोई झुककर उनके पैर छूकर प्रणाम करे, यह उन्हें पसंद नहीं था. किंतु बाद में लगा कि किस किस को रोकें, मना करने से पैर छूने वाले की भावनाओं को ठेस लगती. उनको समझाया गया कि सरसंघचालक के पद से लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं, वो उनके पैर छू रहे हैं, ये सोचकर छूने दीजिए. बाद में वो धीरे-धीरे मानते गए. इसी तरह स्वयंसेवकों के परिवारों में या उनके खुद के विवाह होते थे, तो सरसंघचालक की तरफ से भेजे गए पत्र में विवाहित जोड़े को सुखी वैवाहिक जीवन जीने के आशीर्वचन लिखने होते थे. बालासाहब को वो भाषा या शब्दों के प्रयोग पसंद नहीं आते थे. लेकिन बाद में उनको समझ आया कि उनकी तरफ से लिखी गई एक-एक लाइन ना केवल स्वयंसेवक के परिवार के लिए बल्कि उनसे जुड़े सारे परिवारों को प्रभावित करती है तो उस पर भी वो राजी हो गए थे.

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बाबाराव चौथाईवाले लिखते हैं, “सरसंघचालक बनने के पहले बालासाहब बुद्धिवादी, इहवादी तथा पूर्णतः ऐहिक दृष्टिकोण रखनेवाले व्यक्ति के रूप में परिचित थे. कथा-कीर्तन, उत्सव, यज्ञ-याग, साधु-संतों से मिलना आदि विषयों का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था. अतः इस संदर्भ में उनको निमंत्रण देने की लोग हिम्मत नहीं करते थे. किंतु सरसंघचालक बनने के बाद वे निमंत्रण का आदर कर सब कार्यक्रमों में उपस्थित रहने लगे.

विविध क्षेत्रों के ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और आदरणीय व्यक्तियों से भेंट मुलाकात करने लगे, सब कार्यक्रमों में उपस्थित रहने लगे. शंकराचार्य आदि आदरणीय व्यक्तियों को प्रणाम कर उनके आशीर्वचन स्वीकारना आदि क्रियाओं का अभ्यास हुआ. उनके जन्मदिन पर अनेक स्वयंसेवक सत्यनारायण की पूजा करते थे. ऐसे स्वयंसेवकों के घर जाकर अब वे प्रसाद भी ग्रहण करने लगे. उनकी बीमारी के समय एक स्वयंसेवक ने श्री सप्तशती का पाठ किया था. वह प्रतिदिन प्रसाद लेकर कार्यालय में जाकर भोजन के पूर्व बालासाहब को देता था. बालासाहब वह ग्रहण करते थे. दो- तीन दिन वह स्वयंसेवक देरी से पहुंचा. किंतु बालासाहब उसके आने तक भोजन के लिए रुके रहे. अंतिम वर्षों में उनके चलने-फिरने पर कुछ निर्बंध आए थे. इसलिए उनके जन्मदिन पर गोविंदराव आर्वीकर और उनके सहकारी कार्यालय में जाकर वैदिक मंत्रों से बालासाहब का अभीष्ट चिंतन करते थे. बालासाहब प्रणाम कर उनका स्वागत करते थे.”
 
‘नास्तिक नहीं थे बालासाहब’

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दरअसल बालासाहब देवरस सुधारवादी थे, जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने कहा था दलितों, गरीबों में भगवान ढूंढो, उनकी सेवा करो, भगवान की सेवा के बराबर होगी. वे भी यही मानते थे. खुद ब्राह्मण होते हुए भी कुछ कर्मकांडों के खिलाफ थे. डॉ श्रीरंग गोडबोले लिखते हैं, “बालासाहेब नास्तिक नहीं थे, लेकिन साथ ही वे रीति-रिवाजों में भी विश्वास नहीं रखते थे. वे न तो जनेऊ पहनते थे और न ही भोजन से पहले चित्राहुति (देवताओं को अर्पित करने के लिए भोजन का एक भाग) देते थे. वे अक्सर कहते थे, "मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगा जो मुझे मेरे साथी स्वयंसेवकों से अलग करे." वे अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करते, सहायता करते और कभी-कभी तो उनमें सहयोग भी करते थे. वे ऐसे विवाहों में अवश्य शामिल होते थे”. दरअसल सैकड़ों साल तक विदेशी आक्रमणों के चलते हिंदू समाज में जो कुरीतियां आ गई थीं, पूजा पाठ के बजाय वो उनको दूर करना चाहते थे.

डॉ गोडबोले आगे लिखते हैं, “बालासाहब एक प्रबुद्ध सुधारवादी थे. बालासाहब को यह सुधारवादी विरासत कहां से मिली? देवरस परिवार संपन्न था और उनके पास कृषि भूमि पर काम करने के लिए कई नौकर थे. फिर भी, देवरस परिवार में कभी कोई भेदभाव नहीं किया गया. बालासाहब के पिता भैयाजी प्रतिदिन पूजा-अर्चना में घंटों व्यतीत करते थे. बालासाहब की माता पार्वतीबाई पूजा की सारी तैयारियां करती थीं, लेकिन स्वयं केवल हाथ जोड़कर दिनभर अपने कामों में लगी रहती थीं. बाल (बालासाहब देवरस का बचपन का उपनाम) और भाऊ (बालासाहब के भाई भाऊराव देवरस का उपनाम} को भोजन परोसती थीं, अक्सर उनके विभिन्न जातियों के मित्रों को भी और उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए बर्तनों को साफ करती थीं”
 
‘सुना है राम मंदिर पर ताले लगे हैं’

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देवरस ने RSS अभियानों में हिंदू एकता बनाने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों और प्रतीकों का व्यावहारिक उपयोग किया. इसमें 1983 की एकात्मता यात्रा शामिल थी, जिसमें भारत माता के चित्र, गंगा जल की कलश और ओम बैज जैसे प्रतीकों का उपयोग कर सामुदायिक चेतना जगाई गई और जाति भेदों को कम किया गया. उन्होंने भगवान राम को प्रमुख एकीकृत प्रतीक माना, जिससे रामशिला पूजन जैसे अनुष्ठान शुरू हुए, जिसमें कीर्तन, प्रार्थना और प्रवचन शामिल थे. इस बारे में बालासाहब से जुड़ी एक और दिलचस्प घटना चर्चा में रहती आई है. वो घटना कुछ यूं है कि इलाहाबाद में आरएसएस प्रचारकों का एक शिविर अभी-अभी समाप्त हुआ था और देवरस प्रचारकों के साथ अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे, तभी अचानक उन्होंने पूछा, “सुना है कि अयोध्या में मंदिर पर ताले लगे हैं?” क्षेत्र के प्रभारी प्रचारक खड़े हुए और उन्होंने हां में जवाब दिया. बालासाहब ने कुछ देर सोचा और फिर जोर से पूछा, “कब तक रहेंगे?” यह देवरस का विशिष्ट अंदाज़ था. उन्होंने बिना स्पष्ट रूप से कहे ही कार्रवाई का आह्वान कर दिया था. अब फैसला उन्हीं पर निर्भर था.
 
शिलान्यास के वक्त दिया गया उनका भगवान राम पर वक्तव्य ही सार है

अयोध्या में शिलान्यास कार्यकम खत्म होने के बाद वालासाहब देवरस ने एक वक्तव्य जारी किया था, जिसका शीर्षक था, ‘राम हमारे राष्ट्रीय नायक’. इसमें उन्होंने लिखा था कि, “मैं रामजन्मस्थान को पुनर्स्थापित करने और इस देश के महानतम नायक भगवान श्री राम के मंदिर को पुनः स्थापित करने के लिए सदियों से लाखों हिंदुओं द्वारा किए गए महान बलिदानों को श्रद्धापूर्वक याद करता हूं. 10 नवंबर, 1989 को शिलान्यास सदियों से हिंदुओं के संघर्ष का परिणाम और निरंतरता है. यद्यपि हमें 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई, फिर भी हम अभी भी संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं. हम अभी भी सांस्कृतिक और वैचारिक स्वतंत्रता हासिल करने की प्रक्रिया में हैं. राम जन्मस्थान का जीर्णोद्धार सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के समान है. बाबू राजेंद्र प्रसाद और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे महान राष्ट्रवादियों ने, जो वर्तमान राष्ट्रीय नेतृत्व की तुलना में कहीं अधिक प्रभावशाली थे, ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों के निर्णायक महत्व को स्पष्ट रूप से समझा था. इसलिए उन्होंने इसके पुनरुद्धार में प्रोत्साहन दिया और सहयोग किया.

देवरस ने लिखा कि जब गांधीजी ने हमारी स्वतंत्रता की कल्पना की, तो उन्होंने स्वराज को 'राम राज्य' के रूप में परिभाषित किया. उनका पूरा जीवन श्री राम से प्रेरित था. कोई भी उनके दृष्टिकोण को संकीर्ण या सांप्रदायिक नहीं कह सकता था. सभी मानते थे कि महात्मा गांधी राष्ट्र की भावना को व्यक्त कर रहे थे. और फिर भी आज जो लोग दिन-रात महात्मा गांधी का नाम लेते हैं, वही लोग छद्म सेकुलरों के साथ शिलान्यास कार्यक्रम में बाधा डालने में सबसे आगे खड़े थे.

किसी भी अन्य देश में, सत्ताधारी सरकार श्री राम जैसे राष्ट्रीय नायक की स्मृति में ऐसे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कार्यक्रम को प्रोत्साहित करती और उसमें भाग लेती. इसके विपरीत, हमारे देश में सत्ता में बैठे लोगों ने तुच्छ चुनावी स्वार्थों के चलते अयोध्या में शिलान्यास कार्यक्रम को लगातार बाधित करने का प्रयास किया है. लेकिन सौभाग्यवश, उनके ये नासमझी भरे प्रयास विफल रहे, जो होने ही थे. राष्ट्रवादियों, विशेष रूप से विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा समर्थित और योगिराज देवराहा बाबा के आशीर्वाद से संपन्न राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने सरकार और अन्य लोगों द्वारा उन पर डाले गए प्रेरित दबाव के आगे न झुकने में उल्लेखनीय दृढ़ संकल्प दिखाया. दरअसल, रामशिलापूजन के समय करोड़ों हिंदुओं की भागीदारी, देश भर में विभिन्न स्थानों पर लाखों की संख्या में, और हजारों पूजनीय संतों और महंतों की सक्रिय भागीदारी ने इतना जबरदस्त दबाव बनाया कि सरकार को झुकना पड़ा और जनता की इच्छा के आगे नतमस्तक होना पड़ा.

इस महान राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कार्य में सभी राष्ट्रवादी तत्वों की शुभकामनाएं और प्रार्थनाएं समिति के साथ हैं. मैं समिति को इस देश की एकता और अखंडता के प्रतीक राष्ट्रीय नायक के मंदिर के निर्माण के प्रयासों में सफलता की कामना करता हूं.”

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