संडे की आधी रात अचानक आसमान आतिशबाज़ियों की रोशनी से नहा गया. सोशल मीडिया पर वर्ल्ड कप जीतने वाली महिला क्रिकेट टीम वायरल हो रही थी. 'बेटियां सब कुछ कर सकती हैं', 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं' जैसे जुमले सबकी जुबान पर थे. ये ऐतिहासिक पल था जिसका जश्न तो बनता ही था.
लेकिन इस जीत का एक और जश्न था वो जो मैदान से नहीं, मन से जीता गया. इस पूरे टूर्नामेंट की विजेता गाथा का सबसे भावनात्मक अध्याय लिखने वाली जेमिमा रोड्रिग्स का. जेमिमा ने अपने बल्ले से नहीं बल्कि अपनी सच्चाई से लोगों का दिल जीता. उन्होंने जिस साहस के साथ ये कबूल किया कि मैदान पर रन बनाते वक्त वो अंदर से टूट रही थीं, इस निश्छल सच्चाई ने उन्हें सबका चहेता बना दिया.
लगभग हर दिन रोई हूं...
बता दें कि पिछले साल जेमिमा को विश्वकप टीम से बाहर कर दिया गया था. वो फॉर्म में थीं लेकिन किस्मत और हालात दोनों उनके खिलाफ थे. वो हर दिन खुद से जंग लड़ती रहीं. उन्होंने सेमी फाइनल जीतने के बाद कहा कि इस पूरे दौरे में मैं लगभग हर दिन रोई हूं. मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं थी, एंजायटी से गुजर रही थी. लेकिन मुझे पता था कि मुझे डटे रहना है. उनके इस कबूलनामे ने उन लाखों लड़कियों को उनसे जोड़ा जो मुस्कान के पीछे अपनी तकलीफ छिपाती हैं. साथ ही समाज की इस सोच को भी हरा दिया जहां कहा जाता है कि लड़कियां बात बात पर रो देती हैं. शायद ही कोई है जो इसके पीछे छिपी तकलीफ को भांप पाता है.
जेमिमा का साहसी कदम
दिल्ली स्थित IHBAS के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. ओमप्रकाश कहते हैं कि अधिकांश लोग मानसिक स्वास्थ्य की परेशानी को देर से पहचान पाते हैं. जब तक लक्षण गहराते हैं, तब तक व्यक्ति अंदर ही अंदर घुटने लगता है. जेमिमा ने जिस तरह खुलकर ये बात कही, उससे कई लोग अपने भीतर झांकने और मदद लेने की हिम्मत जुटा पाएंगे.
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी का कहना है कि एंजायटी जैसी स्थिति में खुलकर बात करना ही इलाज की पहली सीढ़ी है. जेमिमा जैसी खेल हस्तियों का इस विषय पर बोलना समाज के लिए बड़ा संदेश है. उन्होंने जरूर अपने परिवार, दोस्तों और खेल मनोवैज्ञानिक की मदद ली होगी. मानसिक सेहत के लिए पेशेवर सहायता लेना कमजोरी नहीं बल्कि सबसे साहसी कदम है.
मन की चोटें भी हील करना जरूरी
क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक डॉ. विधि एम. पिलनिया कहती हैं कि मशहूर लोग अक्सर मानसिक स्वास्थ्य की बात इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें डर होता है कि लोग उन्हें जज करेंगे या कमजोर समझेंगे. सच्चाई ये है कि अपने मन की चोटों को नजरअंदाज़ करना, उन्हें और गहरा बना देता है. जैसे शरीर की चोट पर हम डॉक्टर के पास जाते हैं, वैसे ही मन की चोटों के लिए थेरेपी लेना जरूरी है.
डॉ. पिलनिया आगे कहती हैं कि एंजायटी को संभालना एक स्किल है और इसे सीखा जा सकता है. सांसों के अभ्यास, रूटीन लाइफस्टाइल और छोटी-छोटी उपलब्धियों पर ध्यान देना इसमें मदद करता है. सबसे जरूरी है, खुद के साथ ईमानदार रहना.
कैसे पहचानें कि मदद की जरूरत है?
अगर आप बिना वजह बेचैनी महसूस करते हैं.
बार-बार डर या नकारात्मक विचार आते हैं.
नींद नहीं आती या हर वक्त कुछ बुरा होने का डर रहता है.
शरीर कांपता है, सांस तेज होती है या धड़कनें बढ़ जाती हैं.