डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में सीरिया पर लगे सारे प्रतिबंध खत्म करने का आदेश दे दिया है. ये फैसला चौंकाने वाला है क्योंकि अमेरिका पिछले कई सालों से सीरिया पर काफी सख्त रुख अपनाए हुए था. इतना ही नहीं, ट्रंप ने सीरियाई लीडर अहमद अल-शरा से भी मुलाकात की. ये वही नेता है, जिसे यूएस हाल-हाल तक मोस्ट वांटेड आतंकवादी मानता था. तो क्या अमेरिका पुरानी कड़वाहट मिटाकर आगे निकल चुका, या वर्ल्ड ऑर्डर में बदलाव के लिए कुछ बड़ा किया जा रहा है.
सीरिया से यूएस की नाराजगी कई दशक पुरानी है
साल 1979 में उसने इस देश को स्टेट स्पॉन्सर ऑफ टैररिज्म का दर्जा दे दिया. इसका मतलब ये है कि दमिश्क का हाथ आतंकवाद फैलाने में है. इस स्टेटस के साथ ही देश पर ढेर की ढेर पाबंदियां लग गईं. इसके तहत अमेरिकी नागरिक या वहां की कंपनियां सीरिया के साथ किसी तरह का व्यापार नहीं कर सकती थीं. सीरिया को डॉलर में लेनदेन की इजाजत नहीं थी, जिसकी वजह से वो अंतरराष्ट्रीय व्यापार से लगभग कट गया था. हथियारों की बिक्री पर भी पाबंदी थी क्योंकि अमेरिका का मानना था कि सीरियाई आतंकवादी इसी से टैररिज्म फैला रहे हैं.
साल 2019 में इस देश पर सीजर सीरिया सिविलियन प्रोटेक्शन एक्ट लगाया गया. इसके तहत दमिश्क में काम करने वाली दूसरी देशों की कंपनियों पर भी कार्रवाई की जा सकती थी. हालत ये हुई कि एनजीओ भी वहां जाने और सोशल वर्क करने से बचने लगे.
प्रतिबंध लगा क्यों था
दमिश्क पर अमेरिकी बैन वैसे तो 70 के दशक के आखिर से ही हो गया लेकिन असल शुरुआत साल 2004 में हुई थी, जब तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने वहां की सरकार पर आतंकवाद को बढ़ावा देने, लेबनान में दखल देने और इराक में अमेरिकी सेना के खिलाफ कार्रवाई में सहयोग का आरोप लगाया था. साल 2011 में सीरिया में सिविल वॉर शुरू हो गया. तब बशर अल-असद की सरकार ने अपने ही लोगों पर हिंसा की. इसे रोकने के लिए भी वॉशिंगटन ने सीरिया पर नई पाबंदियां लगी दीं. अमेरिका का मकसद था कि सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद को इतने दबाव में लाया जाए कि वो सत्ता छोड़ दें या बातचीत के रास्ते पर आएं.

तो अब क्या बदल गया
अब आते हैं मौजूदा फैसले पर. ट्रंप ने कहा है कि सीरिया पर लगाए गए बैन अमेरिका के हित में नहीं और इन्हें जारी रखना बेकार के आर्थिक दबाव ला रहा है. उनके मुताबिक, ये कदम अमेरिकी कंपनियों को भी नए मौके देगा और पश्चिम एशिया में स्थिरता लाने में भी मदद करेगा. हालांकि ये कदम बेहद नपा-तुला है.
ट्रंप भले ही रूस के करीब दिख रहे हों, लेकिन असल में वे सीरिया समेत तमाम इस्लामिक देशों को लेकर डरे हुए हैं. दरअसल, सीरिया में रूस और ईरान अपने पैर जमा चुके, वहीं अमेरिका लंबे समय से कटा हुआ है. ऐसे में इकनॉमिक प्लेयर के तौर पर ही सही, वो सीरिया में कमबैक करना चाहेगा. ट्रंप का ये कदम एक साथ दो शिकार करेगा. उसे इकनॉमिक बढ़त मिलेगी. साथ ही वो बाकी देशों पर नजर रख सकेगा.
सीरियाई सरकार भी ट्रंप प्रशासन का यकीन जीतने के लिए खास जतन कर रही है. उसने खुद को सभी आतंकी समूहों के असर से दूर रखने का दावा किया. साथ ही वादा किया कि वो काउंटरटैररिज्म में बाकी देशों की मदद करेगी. रॉयटर्स की एक खबर के मुताबिक, सीरिया ने ट्रंप के सामने खुद को गुंजाइशों से भरपूर इकनॉमिक पार्टनर की तरह रखा.
हाल में ट्रंप ने सऊदी अरब, कतर और यूएई का भी दौरा किया. असल में रियाद में ही उन्होंने सीरिया से प्रतिबंध हटाने का एलान किया. लगभग 5 दशक से चली आ रही पाबंदियों को हटाना यूं ही नहीं हुआ. माना जा रहा है कि इस्लामिक देशों से, जो लंबे समय तक आतंकवाद से घिरे रहे, ट्रंप की ये नजदीकी नया वर्ल्ड ऑर्डर बना सकती है. इसमें सऊदी, कतर, यूएई और सीरिया तो होंगे ही, साथ ही एक अनोखी बात हो सकती है. ट्रंप ने सीरिया से बैन तो हटाए लेकिन साथ ही ये भी जोड़ दिया कि वो इजरायल को मान्यता दे.

ट्रंप के दोनों कार्यकाल में खासा फर्क दिख रहा है, खासकर मुस्लिम देशों के लिए उनके रवैए में. साल 2017 में उन्होंने कई मुस्लिम देशों पर ट्रैवल बैन लगा दिया. ईरान के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया. साथ ही सीरिया से सैनिकों की वापसी का एलान कर दिया. इससे ताजा-ताजा इस्लामिक स्टेट से चंगुल से छूटे सीरिया में अस्थिरता और बढ़ गई. वहीं अब ट्रंप प्रशासन सीरिया, सऊदी, यूएई, यहां तक कि तालिबान से भी बातचीत की संभावनाएं जता रहा है.
इसका मकसद यूएस की पारंपरिक इमेज यानी सैन्य जिम्मेदारियों को कम कर, उसे मोटे तौर पर इकनॉमिक ताकत की तरह पेश करना है. ग्लोबल पावर वही रहे, लेकिन सैन्य शक्ति की बजाए आर्थिक ताकत का इस्तेमाल करते हुए.
सीरिया के साथ रिश्ते सुधारना ट्रंप के लिए रूस और ईरान के असर को संतुलित करने का एक तरीका हो सकता है. अगर अमेरिका सीरिया की सरकार से सीधे बातचीत करता है या किसी सौदे की ओर बढ़ता है, तो इससे इन दोनों की पकड़ वहां कमजोर हो सकती है. ट्रंप का मकसद हो सकता है कि वह मध्य-पूर्व में अमेरिका की गैर-जरूरी सैन्य मौजूदगी खत्म करके राजनीतिक सौदों से अपर-हैंड बनाएं.
इससे चीन को भी साधा जा सकता है. बता दें कि बेल्ड रोड इनिशिएटिव के जरिए बीजिंग ने कई इस्लामिक देशों तक पैठ बना ली है. ये अमेरिका के लिए बड़ा खतरा हो सकता है. ऐसे में पुरानी दुश्मनी भुलाकर अमेरिका खुद आगे आ रहा है और वही तरीका अपना रहा है, जो चीन का है.