अमेरिका के 37वें राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को आजकल अमेरिकी खूब याद कर रहे हैं. वजह? डोनाल्ड ट्रंप की बातें कुछ हद तक निक्सन से मेल खाती हैं. निक्सन के बारे में अमेरिकी मीडिया कहता था- उनकी एक ही बात पर भरोसा किया जा सकता है कि उनकी किसी बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता. बात पटलने के माहिर और लगातार झूठ बोलते निक्सन से अमेरिका का मोहभंग इस कदर हुआ कि उन्हें इस्तीफा ही देना पड़ गया था.
डोनाल्ड ट्रंप का रवैया भारत को लेकर कुछ ज्यादा ही तल्ख हो रहा है. हाल में भारत-पाकिस्तान जंग हुई, जिसमें सीजफायर का क्रेडिट ट्रंप ने लेना चाहा, लेकिन नई दिल्ली से उसे तवज्जो नहीं मिली. कुछ इसका दर्द होगा, और कुछ इसका भी हर मौके पर भारत अपनी आजाद राय और छवि रखता है. यही वजह है कि वे इंटरनेशनल मंच पर भी भारत के लिए ठंडापन दिखा रहे हैं, जबकि पहले टर्म में यही ट्रंप पीएम नरेंद्र मोदी की तारीफ करते नहीं थकते थे.
भारत ही नहीं, ट्रंप कई देशों पर अलग-अलग बयान देते रहे. उनकी अनप्रेडिक्टेबलिटी और बदलते बयान काफी हद तक 70 के दशक के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मिलते हैं.
साधारण परिवार से आते निक्सन की शुरुआत बेहद तेज-तर्रार रही. वे दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद राजनीति में आए और जल्द ही सीनेट पहुंच गए. निक्सन को कमजोर नस पहचानना आता था. अमेरिका तब कम्युनिस्ट सोच से सबसे ज्यादा डरा हुआ था. वे इसी आग में घी डालते हुए आगे बढ़ते रहे. साठ के दशक के आखिर में यूएस भीतरी युद्ध और तनाव से गुजर रहा था. लोग शांति चाहते थे और निक्सन उन्हें यही भरोसा देकर वाइट हाउस पहुंच गए. लेकिन फिर चीजें बदलने लगीं.
निक्सन पर सिर्फ एक ही चीज का भरोसा किया जा सकता है कि उनपर भरोसा नहीं किया जा सकता. अमेरिकी राष्ट्रपतियों के इतिहास में ये सबसे तल्ख कमेंट रही. न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार जेम्स रेस्टन ने पहली बार ये बात कही थी.
बात 1970 के शुरुआती सालों की है, जब निक्सन का झूठ धीरे-धीरे सुर्खियां बनने लगा था, लेकिन वॉटरगेट स्कैंडल अभी तक पूरी तरह खुला नहीं था. रेस्टन वॉशिंगटन की राजनीति के अंदरूनी गलियारों के पुराने जानकार थे. वे बार-बार राष्ट्रपति के बयान बदलते देखते. निक्सन ने सार्वजनिक रूप से एक बात कही और उसी हफ्ते बंद दरवाजों के पीछे ठीक उसकी उलट दिशा में निर्देश दिए.
वियतनाम में पीस टॉक की चर्चा करते हुए वे कंबोडिया में गुप्त बमबारी की मंजूरी दे चुके थे. यहां तक कि उनके सलाहकार भी मानने लगे कि निक्सन अपनी बातें बदलते रहते हैं. किसी के सामने कुछ तो किसी के सामने कुछ और.
पत्रकार की यह लाइन पूरे अमेरिका में चर्चा बन गई. लोग इसे दोहराने लगे. जब वॉटरगेट का बम फटा, तो इसे वो पूर्वानुमान माना गया, जो सच साबित हो गया. दरअसल साल 1972 में निक्सन की पार्टी के लोग डेमोक्रेटिक पार्टी के दफ्तर में चोरी-छुपे घुसे और वहां से दस्तावेज चुराए. जब ये बात मीडिया में आई, तो निक्सन ने साफ कहा कि वो ये बात जानते तक नहीं. लेकिन फिर रिकॉर्डिंग्स आने लगीं. टेप में निक्सन की आवाज मिली जो मामले को दबाने के तरीके बता रहे थे.
ओवल ऑफिस में रिकॉर्डिंग सिस्टम था. जब कोर्ट ने उन्हें टेप्स देने को कहा, तो पहले उन्होंने मना किया, फिर एडिटेड वर्शन दे दिया. और जब असली टेप्स आए तो उसमें से भी एक बड़ा हिस्सा गलती से मिटा बताया गया. इस पर अमेरिका में एक आम जुमला चल पड़ा कि निक्सन जितनी बार भी झूठ बोलते हैं, वो केवल इत्तेफाक है. दबाव इतना बढ़ा कि निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि अमेरिकी में पलटने को लेकर अब भी निक्सन की ही मिसालें दी जाती हैं.
ट्रंप के तरीके अलहदा हैं. उनके झूठ रियल टाइम में टीवी पर चलते हैं, वायरल होते हैं, और अगले दिन वो नए बयान से पुराने को झुठला देते हैं. इसे डिसइन्फॉर्मेशन ऑन द मूव कहते हैं, यानी झूठ बोला जाता है, वो फैलता भी है और जब लोग उसे पकड़ते हैं तो बोलने वाला उसका मतलब बदल देता है, या उसमें व्यंग्य की छौंक लगा देता है ताकि लोग कन्फ्यूज हो जाएं. ट्रंप अपनी बात से पलट जाते हैं या कहते हैं कि उनका मतलब ये नहीं, वो था.
ताजा मामला भारत का है. उन्होंने भारत पाकिस्तान सीजफायर को लेकर अपनी कॉलर ऊंची की. हालांकि जब भारत ने इसे अपना मूव बताया तो ट्रंप ने बयान में हेरफेर कर दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका ने बीच-बचाव नहीं किया लेकिन कोशिश जरूर की.
भारत से अलग भी ट्रंप के बयान यहां से वहां होते रहे. जैसे कोविड की शुरुआत में ट्रंप ने कहा था कि ये जल्द ही गायब हो जाएगा. कुछ दिनों बाद इंफेक्शन तेजी से फैला. तब ट्रंप ने कहा कि किसी को अंदाजा नहीं था कि ये आएगा. जब उनसे पुराने बयानों पर सवाल हुआ तो उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ आशावादी हो रहा था. पिछली बार चुनाव हारने के बाद उन्होंने भ्रम रचा कि वे बड़े अंतर से जीते थे, और विपक्षियों ने इसे छिपा लिया. इसी के बाद कैपिटल हिंसा हुई थी.