अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया कूटनीतिक प्रयास पर भी रूस ने ठंडा पानी फेर दिया. वो ऐसी तमाम कोशिशों को अस्वीकार कर रहा है. रूस को शांति के बदले क्या-क्या चाहिए, इसपर तो कई बार चर्चा हो चुकी, लेकिन शर्तें मानने के बदले यूक्रेन की क्या कंडीशन्स हैं? क्या ये बातें इतनी मुश्किल हैं, कि युद्ध चला ही आ रहा है?
भारत यात्रा के बीच ही रूस के नेता व्लादिमीर पुतिन ने वॉशिंगटन के पीस प्लान को रिजेक्ट कर दिया. उसका कहना है कि वो यूक्रेन में आने वाले डोनबास इलाके को अपना बनाकर ही रहेगा. इससे पहले पुतिन अलास्का भी गए थे, जहां उनकी ट्रंप से मुलाकात हुई थी, लेकिन वहां भी बात नहीं बन सकी. जेलेंस्की से भी ट्रंप की चर्चा में कुछ नहीं निकला. कुल मिलाकर, वॉशिंगटन भी यहां शांति वार्ता कराने में खास कामयाब नहीं दिख रहा.
रूस इस युद्ध से क्या चाहता है
- यूक्रेन के क्रीमिया पर वो आधिकारिक सत्ता चाहता है, जिसपर उसने लगभग दशकभर पहले ही कब्जा कर लिया था.
- एक और यूक्रेनी क्षेत्र डोनबास में भी रूसी सेनाएं काबिज हैं. अब मॉस्को इस इलाके को भी अपनाना चाहता है.
- बकौल रूस, कीव को NATO में शामिल होने की अपनी अर्जी पीछे खींच लेनी चाहिए.
- यूक्रेन से यह भी चाहा जा रहा है कि वो अपनी आर्मी का साइज घटा ले.
- रूस शांति प्रस्ताव में किसी भी यूरोपीय देश को शामिल न करके, सीधे अमेरिका से डील करना चाहता है.

क्या हैं यूक्रेन की शर्तें
भौगोलिक आकार से लेकर आर्थिक और सैन्य मामले में भी कीव, मॉस्को से काफी छोटा है. इसके बावजूद वो लगभग चार सालों से युद्ध कर रहा है. इसका मतलब कुछ तो ऐसा है, जिसपर वो समझौता करने को तैयार नहीं. दरअसल, उसके लिए ये लड़ाई लड़ने के लिए नहीं, बल्कि यह पक्का करने के लिए है कि रूस इसके बाद फिर उसपर आक्रमण न करे.
साल 2014 में भी रूस ने हमला करके क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था. अब वो एक लंबा-चौड़ा इलाका फिर से हड़पना चाहता है. इस तरह चलता रहा तो यूक्रेन की सीमाएं सिकुड़ती ही जाएंगी. यूक्रेनी लीडरशिप मांग कर रही है कि अब की बार जो शांति वार्ता हो, उसका मकसद केवल यही लड़ाई रोकना न हो, बल्कि यूक्रेन की सुरक्षा भी तय हो सके.
जेलेंस्की प्रशासन ने साफ कर दिया कि वो रूस के डोनबास पर कब्जे की शर्त नहीं मानेंगे. उन्हें डर है कि लगातार शर्तें मानते जाना, रूस को और ताकत देगा कि वो उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करता ही जाए. यूक्रेनी विदेश मंत्री आंद्रेई सिबिहा ने हाल में म्यूनिख एग्रीमेंट 1938 का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें असर शांति चाहिए, न कि तुष्टिकरण.
क्या शर्तें मानना बढ़ा सकता है उग्रता
म्यूनिख एग्रीमेंट 1938 वह समझौता था जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली ने जर्मनी को चेकोस्लोवाकिया के सुडेटेनलैंड क्षेत्र पर कब्जा करने की अनुमति दे दी. यह फैसला बिना चेकोस्लोवाकिया की सहमति के लिया गया. इसे तुष्टिकरण की चरम मिसाल माना गया. समझौते का तर्क यह था कि हिटलर की मांगें मान लेने से युद्ध टल जाएगा, लेकिन हुआ उलटा. इससे हिटलर और आक्रामक हो गया और सालभर के भीतर दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया.

यूक्रेन के विदेश मंत्री ने हाल में इसका हवाला इसलिए दिया, ताकि यह दिखा सकें कि किसी आक्रमणकारी को शांत कराने के लिए उसकी मांगें मान लेना बड़े खतरे को जन्म देता है. उनका संकेत रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों की नीति की ओर था.
यूक्रेन अब की बार गारंटी चाहता है कि रूस उसपर फिर हमला न करे. इसके लिए वो NATO की सदस्यता चाहता है ताकि उसपर हमला पूरे संगठन पर हमले की तरह गंभीरता से लिया जाए. यह डिमांड वो लंबे वक्त से कर रहा है, लेकिन रूस ये कतई नहीं चाहता.
रूस पर आरोप है कि उसने युद्ध के दौरान यूक्रेनी बच्चों को जबरन कब्जे में लेकर उन्हें रूसी इलाकों में भेज दिया और उन्हें रीएजुकेट कर रहा है. इसके अलावा वो स्कूल और अस्पतालों पर भी बमबारी कर रहा है, जहां बच्चे और महिलाएं मारे जा रहे हैं.
यूएस के ड्राफ्ट के मुताबिक, यूक्रेन को नाटो सदस्यता की अर्जी वापस लेनी होगी. यूक्रेन के लिए यह सदस्यता का मुद्दा नहीं, बल्कि साफ है कि इसके जरिए उसकी जरूरतों पर रूस का कंट्रोल है. इसी बात से उसे एतराज है.