इंटरनेट पर धर्मांतरण शब्द लिखिए और एक के बाद एक लिंक खुलते चले जाएंगे. उत्तर प्रदेश से लेकर केरल और अमेरिका से लेकर सुदूर अफ्रीका तक धर्म परिवर्तन का कथित जाल फैला हुआ है. कम से कम खबरें तो यही संकेत देती हैं. अक्सर चैरिटी की आड़ में होने वाला ये कन्वर्जन दशकों से चला आ रहा है. लेकिन इसका अल्टीमेट फायदा किसे मिलेगा, जो इस काम के लिए भारी फंडिंग हो रही है? क्या दुनिया में एक धर्म की मेजोरिटी हो जाए तो इसका लाभ किसी एक देश या किसी एजेंडा को हो सकता है?
कुछ समय पहले बांग्लादेश से तस्वीरें आई थीं. बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत सामग्री बांटते हुए लोग नाबालिग हिंदुओं से अपना धर्म छोड़ने की बात कर रहे थे. कई बार देश के आदिवासी बहुल इलाकों से खबरें आती हैं कि वहां के लोग फलां धर्म अपना लें, इसके लिए पूरा गिरोह काम कर रहा है, जो साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाता है. कन्वर्जन हमेशा तलवार की नोक पर नहीं हुआ, बल्कि मदद की आड़ में भी मन फिरते रहे.
इतिहास में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं.
पुराने समय में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए सम्राट अशोक ने बर्मा, श्रीलंका और अफगानिस्तान तक बौद्ध भिक्षुओं को भेजा. हालांकि ये धर्म परिवर्तन किसी खास मकसद के साथ नहीं था, बल्कि वैल्यूज पर टिका हुआ था, जो हिंसा छोड़कर शांति की बात करता था.
7वीं सदी के आसपास इस्लामिक धर्मांतरण शुरू हुआ. अरब के विस्तार के साथ आसपास और दूर-दराज सब चपेट में आने लगे. कई जगहों पर दबाव के साथ धर्म बदला गया, जैसे पर्शिया और अफ्रीका. भारत में भी मुगल सल्तनत के दौर में कई ऐसी घटनाएं हुईं जो जोर-जबर्दस्ती की तरफ संकेत करती थीं.

क्रिश्चियेनिटी का प्रचार-प्रसार ईसा मसीह के तुरंत बाद ही होने लगा था. उनके शिष्यों ने यूरोप से लेकर एशिया तक इसे फैलाना शुरू किया. ये ज्यादा संगठित तरीके से काम करता था, जिसमें चैरिटी के नाम पर दबदबा बनाया जा रहा था. तो कुल मिलाकर, लगभग सारे धर्म चाहते रहे, कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनकी तरह सोच-विचार वाले हो जाएं.
सदियों पुराना धर्मांतरण का चलन अब भी रुका नहीं. भारत हो या अफ्रीका, नेपाल हो या लैटिन अमेरिका, हर जगह एक पैटर्न दिखता है. गरीबी, कास्ट डिसक्रिमिनेशन, बीमारी या कुदरती आपदा के वक्त धर्मांतरण की कोशिशें तेज हो जाती हैं. इसके पीछे जो नेटवर्क काम करता है, वो इतना मजबूत और फैला हुआ है कि सरकारें भी अमूमन बेबस दिखती हैं.
ये सॉफ्ट कन्वर्जन है. धर्मांतरण का वो रूप, जो बिना जबरदस्ती के धीरे-धीरे अपना समय लेकर किया जाता है. ये ज्यादा टिकाऊ है क्योंकि लोग इसमें अपनी कल्चरल पहचान तक खो देते हैं.
अब सवाल ये है कि आखिर क्यों
इसका जवाब है पावर, कंट्रोल और ग्लोबल पॉलिटिक्स. अगर किसी देश में या दुनिया के कई देशों में एक धर्म के अनुयायी बढ़ जाए, तो वहां की पॉलिसी और यहां तक कि कानून भी उसी मुताबिक हो जाता है.

मिसाल के तौर पर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) को ले लें. यह संगठन मुस्लिम दुनिया की कलेक्टिव आवाज की तरह काम करता है. कोई भी संगठन या देश ओआईसी की बात को सीधे-सीधे नकार नहीं सकता. इसमें शामिल 55 से ज्यादा देश मुस्लिम बहुल हैं और मिलकर फैसले लेते हैं.
इसी तरह से वेटिकन की ताकत किसी से छिपी नहीं. यह पूरी दुनिया के कैथोलिक ईसाइयों को एक धागे में जोड़ता है और ग्लोबल पॉलिटिक्स का पावर हाउस है. सीधी बात है कि अगर किसी धर्म का ग्राफ ऊपर जाएगा तो वही ग्लोबल पावर बन जाएगा. फिर सारे फैसले उसी धर्म के अनुसार लिए जाएंगे, और उसी धर्म को मानने वालों का फायदा होगा.
द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इस्लाम में बताया गया है कि कैसे धर्म केवल एक धार्मिक-आध्यात्मिक आंदोलन नहीं रहा था, बल्कि साम्राज्य को बढ़ाने का जरिया भी बन चुका था. यही बात बाकी धर्मों के मामले में भी लागू होती थी. 15वीं सदी के आसपास यूरोपियन कॉलोनीज बढ़ने के साथ ईसाई मिशनरी तस्वीर में आए. स्पेन और पुर्तगाल के मिशनरी अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने लगे. अ शॉर्ट अकाउंट ऑफ द डिस्ट्रक्शन ऑफ इंडीज नाम की किताब हिंसक दौर की बात बताती है.
ब्रिटिश भारत में भी मिशनरी स्कूल और अस्पतालों के जरिए धर्म परिवर्तन होता रहा. आजादी के बाद इसकी जांच हुई थी और नियोगी कमेटी रिपोर्ट आई थी, जिसने जोर देते हुए कहा था कि पढ़ाई और सेवा के नाम पर कन्वर्जन हो रहा है. बहुत से आदिवासी बहुल इलाकों की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान खो चुकी.

हर दौर में कन्वर्जन के तौर-तरीके अलग रहे. पहले ये नफा-नुकसान, धमकियों या दबाव में होता था. अब इसमें सोशल मीडिया की एंट्री भी हो चुकी. यूट्यूब से लेकर तमाम प्लेटफॉर्म्स पर लोग अपने धर्म का प्रचार करते हैं, या सेवा या फिर चमत्कार के नाम पर अपना विस्तार करते हैं. ग्लोबल ताकतें अपना एजेंडा फैलाने के लिए खुद आने की बजाए लोकल नेटवर्क पर भरोसा करती हैं, जैसे कोई एनजीओ या कोई मजबूत शख्सियत. इनपर स्थानीय लोग यकीन करते हैं. इसी यकीन की आड़ में बदलाव शुरू होता है.
कहां से जुटता है फंड
प्यू रिसर्च के अनुसार अमेरिका से हर साल 12000 करोड़ से ज्यादा की रकम कई देशों तक चैरिटेबल संस्थाओं, स्कूलों और अस्पतालों में जाती है. इसपर अक्सर सवाल उठते रहे. कई देशों ने अपने यहां चल रही सामाजिक संस्थाओं पर भी सख्ती की, जिनपर सॉफ्ट कन्वर्जन के आरोप थे. न्यू यॉर्कर ने एक रिपोर्ट की थी, जिसमें अफगानिस्तान में कन्वर्जन गिरोह की सक्रियता का खुलासा था. खाड़ी देशों पर भी ऐसे आरोप लग चुके.
धार्मिक मेजोरिटी से किसे होगा फायदा
- धर्मांतरण से जिस भी मजहब का ग्राफ बढ़ेगा, तमाम सरकारी नीतियां उसी के अनुसार बन जाएंगी क्योंकि वही वोट बैंक है.
- धर्म बदलते ही भाषा, त्योहार और रीति-रिवाज भी बदलने लगते हैं, जिसे सॉफ्ट कॉलोनियलिज्म कहते हैं.
- धार्मिक आबादी के हिसाब से मार्केट बनता-बिगड़ता है. जैसे हलाल/कोशेर सर्टिफिकेशन को लें या धार्मिक पर्यटन को, सबका बड़ा बाजार है.
- बड़ी धार्मिक आबादी की आवाज भी इंटरनेशनल मंच पर ज्यादा सुनी जाती है. कोई भी उससे सीधे टकराव से बचता है क्योंकि नाराजगी का डर रहता है.