अंतरिक्ष की तरह अब भारत समुद्र की गहराइयों को भी जानने की तैयारी कर रहा है. वैज्ञानिक स्वदेशी मत्स्य-6000 पनडुब्बी बनाने के आखिरी चरण में हैं, जिसे दो भारतीय एक्वानॉट्स लीड करेंगे. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी (एनआईओटी) के पायलट प्रोजेक्ट के तहत सबमर्सिबल पहले पांच सौ मीटर तक जाएगा, फिर गहराई बढ़ाई जाएगी. एक्वानॉट रमेश राजू और जतिंदर पाल सिंह इस 28 टन के सबमर्सिबल की कमान संभालेंगे.
डीप ओशन मिशन के तहत पहली बार इंसान छह हजार मीटर की गहराई तक जाएंगे. वैसे समुद्र के सबसे गहरे हिस्से चैलेंजर डीप में लगभग दस हजार मीटर की दूरी मापी जा चुकी है. अमेरिकी खोजकर्ता विक्टर वेस्कोवो एक पनडुब्बी में इतने भीतर गए थे, लेकिन खतरों की वजह से यात्रा रिसर्च से ज्यादा रिकॉर्ड बनाने तक रह गई. अब भारत इसकी तैयारी में जुटा है.
क्या खास होगा सबमर्सिबल में
मत्स्य 6000 सबमर्सिबल को ऐसे डिजाइन किया जा रहा है कि वो 12 से 16 घंटों तक बिना रुके चल सके. टाइटेनियम से बने कैप्सूल में लगभग सौ घंटों तक ऑक्सीजन सप्लाई रहेगी. इसमें प्रेशर-शॉक सहने की भी क्षमता होगी. साथ ही लगभग एक दर्जन कैमरे लगे होंगे, जो आसपास को देख सकें. खाने का भी अलग इंतजाम रहेगा. कुल मिलाकर, सेफ्टी के सारे बंदोबस्त होंगे, लेकिन जमीन से हजार गुना ज्यादा दबाव वाली जगह भी एक्वानॉट्स की चुनौतियां भी कम नहीं हैं.

क्या मुश्किलें आती हैं डीप-सी में
- गहराई में पानी का दबाव काफी ज्यादा होता है. छोटी चूक पर पनडुब्बी को नुकसान हो सकता है.
- सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती. तापमान लगभग 1 से 2 डिग्री सेल्सियस तक रहता है.
- पनडुब्बियों के अंदर जगह बेहद कम होती है. कई घंटे तंग जगह में रहना पड़ता है.
- पानी में रेडियो वेव्स काम नहीं करतीं, इसलिए संपर्क टूटना आम है.
- बाहर निकलकर कुछ नहीं किया जा सकता. यहां सब रोबोटिक आर्म्स पर रहता है.
- इमरजेंसी जैसे हालात बनने पर सतह से तुरंत मदद पहुंचना मुश्किल हो सकता है.
किस तरह की होती है ट्रेनिंग
एक्वानॉट बनने का प्रशिक्षण बेहद मुश्किल और लंबा होता है, क्योंकि उन्हें समुद्र की ऐसी गहराइयों में भेजा जाता है जहां इंसान सीधे जाकर काम नहीं कर सकता. आमतौर पर ट्रेनिंग 1 से 3 साल तक चलती है लेकिन ये ज्यादा भी हो सकती है.
सबसे पहले वैज्ञानिकों और गोताखोरों को बेसिक फिटनेस, तैराकी, पानी में लंबे समय तक रहने और घबराहट को काबू करने की ट्रेनिंग मिलती है. इसके बाद हाइपरबेरिक चेंबर में ले जाकर दबाव सहने की क्षमता बढ़ाई जाती है, ताकि वे समझ सकें कि गहरे समुद्र जैसा दबाव शरीर पर क्या असर डालता है.
अब असल ट्रेनिंग शुरू होती है. एक्वानॉट्स को पनडुब्बी के हर सिस्टम को समझना, चलाना और आपात स्थिति में उसे ठीक करने की प्रैक्टिस करवाई जाती है. ये काम वैसे रोबोटिक आर्म्स करते हैं. कई बार उन्हें टेस्ट टैंक में रखा जाता है ताकि वे अंधेरा, ठंड जैसी चीजें अनुभव कर सकें.

टेस्ट टैंक के बाद समुद्र में ट्रायल
आखिरी चरण में उन्हें समुद्र में ट्रायल मिशन दिए जाते हैं. ये पायलेट प्रोजेक्ट होते हैं, जो कम गहराई के लिए होते हैं. यहीं उन्हें परखा जाता है और पक्का हो जाए कि वे गहरे समुद्री मिशन के लिए शारीरिक और मानसिक तौर पर तैयार हैं, तभी असल मिशन पर भेजा जाता है.
एक्वानॉट्स को खाने-पीने की भी खास ट्रेनिंग दी जाती है, क्योंकि हजारों मीटर की गहराई में शरीर की जरूरतें पूरी तरह बदल जाती हैं . मिशन के दौरान उन्हें हल्का, हाई-एनर्जी और लो- फाइबर खाना मिलता है. ठंड और मानसिक तनाव में शरीर जल्दी थकता है, इसलिए पानी और इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस पर खास ध्यान रखना पड़ता है.
घरवापसी पर भी होती हैं कई समस्याएं
एक्वानॉट्स को पानी से लौटने के बाद भी दिक्कतें हो सकती हैं. मसलन, अगर मिशन बहुत गहरा हो और दबाव ज्यादा हो, तो ऊपर आने के बाद भी शरीर को सामान्य प्रेशर से एडजस्ट करने में वक्त लगता है. नीचे दबाव ज्यादा होता है, इसलिए शरीर के अंदर नाइट्रोजन घुल जाता है. जब इंसान अचानक ऊपर आता है, तो यह नाइट्रोजन बुलबुले बनाकर खून और ऊतकों में फंस जाता है. इससे जोड़ों में दर्द, चक्कर, सांस लेने में दिक्कत, त्वचा पर दाने या कई बार लकवे जैसी समस्या हो सकती है.
यही वजह है कि एक्वानॉट्स को धीरे-धीरे ऊपर लाया जाता है. कई बार उन्हें कुछ वक्त के लिए हाइपरबेरिक चैंबर में रखा जाता है ताकि शरीर वक्त के साथ एडजस्ट कर सके.