हमारे समाज में किसी भी पर्व-त्यौहार, शादी या अंतिम संस्कार को लेकर तमाम तरह के रीति रिवाज बनाए गए हैं. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन रीति-रिवाजों को मानकर समझें या समझकर मानें. आस्था के पीछे कई बार साइंस व लॉजिक लगाने की कोशिश की जाती रही है. साइंस और कस्टम के बीच की इसी आपसी मतभेद की कहानी है गुडबाय. गुडबाय महज फैमिली ड्रामा फिल्म नहीं है, बल्कि यहां अपने रीति-रिवाजों के प्रति हमारी सोच व धारणाओं की भी बात है. विकास बहल की यह फिल्म दर्शकों के लिए कैसी है, जानने के लिए पढ़ें रिव्यू..
वैसे तो हम अपनी जिंदगी में बहुत सी प्लानिंग करते रहते हैं. पर क्या कभी इस बात की प्लानिंग की है कि मरने के बाद हमारा अंतिम संस्कार किस तरह का होगा? किसी की मौत के बाद उसके तमाम करीबी उस इंसान से जुड़ीं पसंदीदा चीजों का जतन कर अंतिम संस्कार की तैयारी करते हैं, लेकिन अगर पहले से ही अंतिम संस्कार की प्लानिंग हो, तो कितना अलग होगा न. फिल्म गुडबाय देखने के बाद आपके जेहन में भी यह ख्याल जरूर आता है.
कहानी
चंडीगढ़ में हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) और उनकी पत्नी गायत्री (नीना गुप्ता) अपने चार बच्चों के साथ रहते हैं. चारों बच्चे अब अपनी पढ़ाई करने के बाद देश व विदेश में शिफ्ट हो चुके हैं. तारा (रश्मिका मंदाना) मुंबई में वकील हैं, दो बेटे अंगद (पवेल गुलाटी) विदेश में मल्टीनैशनल कंपनी में जॉब करते हैं और छोटा बेटा नकुल माउंटेनियर है. जिंदगी से भरपूर गायत्री की अचानक हार्ट-अटैक से मौत हो जाती है. सभी बच्चे अपनी मां की अंतिम विदाई के लिए चंडीगढ़ पहुंचते हैं और यहां से शुरू होती है उनकी कहानी.
डायरेक्टर
क्वीन, शानदार, सुपर 30 जैसी फिल्मों के बाद विकास अपने दर्शकों के लिए फैमिली ड्रामा के रूप में गुडबाय लेकर आए हैं. इस फिल्म के जरिए विकास ने कई मुद्दों को छूने की कोशिश की है. रीति-रिवाज और साइंस का मतभेद, एक साधारण मीडिल क्लास फैमिली में रोजाना होने वाली उलझनें, आज के दौर में परिवार के बीच बढ़ती दूरियां और किसी अपने का जाने गम, आपको इस फिल्म में तमाम तरह के रस मिलेंगे. किसी के जाने के बाद मुंडन करने का लॉजिक, बॉडी की नाक में रुई क्यों डाली जाती है, बॉडी के पैरों के अंगूठों को एकसाथ क्यों बांधते हैं क्या ये महज अंधविश्वास है या कोई साइंस, इस तरह के सवालों का जवाब विकास ने फिल्म के जरिए बखूबी दिया है.
फिल्म वाकई में आपको एक इमोशनल राइड पर लेकर जाती है, जहां आप कभी हंसते हैं, तो कभी आपके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते हैं. क्रिटिक के नजरिए से बेशक फिल्म में कुछ कमियां जरूर हैं, लेकिन कहानी इतनी अपनी सी लगती है कि आप उन कमियों को नजरअंदाज कर जाते हैं. एक बहुत समय के बाद फैमिली ड्रामा फिल्म स्क्रीन पर आई है, इसका फायदा जरूर मेकर्स को मिल सकता है. फिल्म की शुरूआत होते ही आप 15 मिनट में रोने लगते हैं और इसकी खासियत यह है कि इंटेंस सब्जेक्ट होने के बावजूद मेकर ने इसको बखूबी बैलेंस किया है. सभी सिचुएशन इतनी खूबसूरती से फिट किए गए हैं कि आप रोते-रोते कब हंसने लगते हैं, वो समझ नहीं आता है.
क्यों टूटता है फिल्म का सीक्वेंस?
फिल्म के सीक्वेंसेस बहुत लंबे हैं, जिस वजह से इसका पेस ड्रैग सा लगता है. इसकी एडिटिंग पर कमी दिखती हैं. फिल्म का प्लस पॉइंट है कि यहां आप किरदारों से खुद को कनेक्ट कर पाते हैं. मसलन हमारी जिंदगी में कई ऐसे मौके रहे होंगे कि हम अपने पैरेंट्स को फॉर ग्रांटेड ले बैठते हैं और जब वो हमारे बीच नहीं होते हैं, तो बस रह जाता है काश.. काश बात कर ली होती.. काश फोन का जवाब दे दिया होता.. काश एक बार मिलकर गले लगाते और बताते कि वो कितने जरूरी हैं. डेथ ट्रैजेडी पर हालिया कुछ फिल्म जैसे रामप्रसाद की तेहरवीं और वेटिंग बनीं हैं लेकिन यहां विकास ने डेथ ट्रैजेडी के साथ-साथ फैमिली ड्रामा का फ्लेवर डालकर उसे बाकियों से अलग कर दिया है. हां, एक चीज जो खलती है, वो है रश्मिका का एक्सेंट, रश्मिका ने खुद ही डायलॉग डब किया है, जो कन्विंसिंग नहीं लगते हैं. दावा है कि फिल्म देखने के बाद आप अपनी मां या करीबी को एक बार कॉल जरूर करेंगे.
टेक्निकल
इस फिल्म का प्लस पॉइंट है इसका म्यूजिक, जिसका क्रेडिट अमित त्रिवेदी को जाता है. उन्होंने हर गानों को सिचुएशन के हिसाब से कंपोज किया है. एडिटिंग के लिहाज से सीन्स पर काम किया जा सकता था. रविंद्र सिंह भदौड़िया और सुधाकर रेड्डी की सिनेमैटोग्राफी डिसेंट रही है. चाहे वो ऋषिकेश हो या चंडीगढ़, आप कन्विंस होते हैं. एक सीन जहां, अमिताभ बच्चन का मोनोलोग है, उसका क्लोजअप शॉट को बखूबी शूट किया गया है.
एक्टिंग
फिल्म की कास्टिंग सटीक रही. पिता के रूप में अमिताभ बच्चन का गुस्सा हो या बेबसी पर्दे पर हर इमोशन खूबसूरत लगता है. खासकर अपने मोनोलॉग के दौरान बिग बी छा जाते हैं. वहीं नीना गुप्ता जब-जब स्क्रीन पर आती हैं, एक फ्रेशनेस लेकर आती हैं. पूरे परिवार की धुरी रहीं नीना ने अपने किरदार को जी लिया है. इतने महान कलाकारों के बीच रश्मिका का कॉन्फिडेंस कमाल का रहा. वे कहीं भी कमतर नहीं लगती हैं. उनकी सहजता पूरे सीन्स के दौरान दिखती हैं. हिंदी फिल्मों में रश्मिका का डेब्यू आपको निराश नहीं करेगा. इस फिल्म में सुनील ग्रोवर की एंट्री सेकेंड हाफ में होती है, जितने वक्त भी वे कैमरे के सामने रहेंगे, आप उनको देखकर इंजॉय करेंगे. पवेल गुलाटी एक सीन के दौरान रूला जाते हैं. ओवरऑल उनका काम जबरदस्त रहा है. बाकी आशिष विद्यार्थी, साहिल मेहता, एली अवराम, शिविन नारंग, अरुण बाली, शयांक शुक्ला, साहिल मेहता ने अपना किरदार ईमानदारी से निभाया है.
क्यों देखें?
एक लंबे समय बाद फैमिली ड्रामा दर्शकों के सामने हैं. बेहतरीन एक्टिंग और खूबसूरत मेसेज के लिए यह फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है. स्लाइस ऑफ लाइफ वाली फीलिंग देती यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी.