
जब रणवीर सिंह को '83' (2021) में कपिल देव के रोल में कास्ट किया गया था तो सोशल मीडिया पर कई फिल्म फैन्स ये सवाल उठाते नजर आए थे कि क्रिकेट आइकॉन के रोल में वो फिट होंगे या नहीं. मगर कपिल देव बने रणवीर का फर्स्ट लुक आया तो लोगों का मुंह खुला रह गया. जनता का तब भी कुछ ऐसा ही रिएक्शन था जब 'संजू' (2018) में संजय दत्त बने रणबीर कपूर की पहली झलक सामने आई थी.
इन दोनों के पीछे थे मेकअप के जादूगर विक्रम गायकवाड़. और सिर्फ यही रियल लाइफ शख्सियतें नहीं हैं, जिन्हें पर्दे पर विक्रम ने अपने मेकअप के जादू से क्रिएट किया. अपनी मेकअप स्किल से उन्होंने सरदार पटेल, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बाबासाहेब आंबेडकर, भगत सिंह और मिल्खा सिंह जैसे आइकॉनिक किरदार भी पर्दे पर जिंदा किए थे. विद्या बालन को सिल्क स्मिता के किरदार में ट्रांसफॉर्म करने के लिए तो विक्रम को 2012 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था.
बीते शनिवार, मुंबई के अस्पताल में, 61 साल की उम्र में विक्रम का निधन हो गया. विक्रम को ब्लड प्रेशर की समस्या के लिए हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था मगर तीन दिन बाद उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया. सिर्फ हिंदी ही नहीं, मराठी, बंगाली, गुजराती और साउथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्रीज में भी विक्रम ने खूब काम किया.
मेकअप को 'जादूगर का काम' मानने वाली विक्रम कहते थे कि 'अगर ये जादू दर्शकों की पकड़ में आ जाए, तो जादूगर नाकाम हो गया.' आइए आपको बताते हैं मेकअप के जादूगर विक्रम गायकवाड़ के बारे में जिन्होंने सिर्फ पर्दे पर किरदारों को गढ़ने में ही नहीं, बल्कि मेकअप आर्टिस्ट्स को फिल्मों में मिलने वाले सम्मान के लिए भी बहुत बड़ा योगदान दिया.

राक्षसों और चुड़ैलों को देखकर मेकअप में जागी दिलचस्पी
अपने कई इंटरव्यूज में विक्रम बताते थे कि वो 8-9 साल की उम्र में बच्चों के एक नाटक में काम कर रहे थे. स्टेज के पीछे जब उन्होंने मेकअप से अपने साथी बच्चों को राक्षसों और चुड़ैलों में बदलते देखा तो बहुत फैसिनेट हुए. यहां से उनकी दिलचस्पी मेकअप में हुई और अपने गुरु बबनराव शिंदे के अंडर उन्होंने थिएटर में मेकअप सीखने की शुरुआत की.
पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी कला में और महारत हासिल करने के लिए विक्रम ने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट (FTII) में एडमिशन ले लिया. यहां विक्रम ने 4 साल अपने हुनर को धार लगाई. इस इंस्टिट्यूट के आर्ट डायरेक्शन हेड महेश तावड़े ने उन्हें सलाह दी कि वो अपने स्किल्स को वहीं खर्च ना करें बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में काम तलाशना शुरू करें.
श्याम बेनेगल ने दिया था विक्रम को पहला ब्रेक
नाक के सवाल पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से नफरत करने वाले विक्रम को अपनी पहली हिंदी फिल्म एक नाक की वजह से ही मिली थी. अपने पुराने इंटरव्यू में विक्रम ने बताया था कि उन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मेकअप आर्टिस्ट्स को जिस तरह काम करते देखा था, वो उन्हें पसंद नहीं आता था. उन्हें स्टार की 'जी-हुजूरी' करने वाले तरीके से समस्या थी. विक्रम अपनी फील्ड के बेहतरीन आर्टिस्ट थे और मानते थे कि आर्टिस्ट की अपनी एक इज्जत होती है. ऐसे में किसी के आगे झुके-झुके घूमना तो नाक नीची करने वाली बात है.
एक दिन विक्रम के पास एक एक्टर उनसे मदद लेने पहुंचा. उसने बताया कि वो श्याम बेनेगल की फिल्म 'सरदार' (1993) में खान अब्दुल गफ्फार खान का का रोल कर रहा है और उसे अपने किरदार के लिए परफेक्ट और ऑथेंटिक लुक चाहिए. खान अब्दुल गफ्फार खान के चेहरे का सबसे नोटिस होने वाला फीचर उनकी नाक थी. विक्रम ने मोम के इस्तेमाल से एक्टर के लिए एक नाक तैयार की. ये नाक लगाए हुए जब वो एक्टर श्याम बेनेगल के सामने पहुंचा तो वो मेकअप की सफाई देखकर हैरान थे. उन्होंने विक्रम को बुलवाया और कुछ किरदारों के लुक्स डिस्कस करने लगे.
इस बातचीत के अंत में बेनेगल ने विक्रम को जल्द से जल्द सीधा गुजरात पहुंचने को कहा, जहां उनकी फिल्म का शूट चल रहा था. मगर विक्रम को तो हिंदी फिल्मों में काम करने के तौर-तरीकों से आपत्ति थी. श्याम बेनेगल ने उन्हें समझाया कि सारे फिल्म सेट्स पर ऐसा नहीं होता और हुनरमंद आर्टिस्ट को हर जगह सम्मान मिलता है. श्याम बाबू की बातों से विक्रम 'सरदार' पर काम करने के लिए राजी हो गए.
फिल्म में परेश रावल ने सरदार पटेल का लीडिंग किरदार निभाया था और उनका मेकअप विक्रम ने किया था. इस फिल्म में जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, मौलाना आजाद और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे ऐतिहासिक किरदार भी थे जो विक्रम के मेकअप से तैयार हुए. यहां से विक्रम का फिल्म करियर तो शुरू हो गया मगर उन्होंने अभी भी अपनी कला में परफेक्शन की तलाश जारी रखी. उन्होंने जर्मनी और यूएस जाकर मेकअप कई की नई तकनीकों और प्रोस्थेटिक्स की भी ट्रेनिंग ली.

इन स्किल्स ने उन्हें श्याम बेनेगल के साथ-साथ मणिरत्नम, विशाल भारद्वाज और राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैसे बेहतरीन फिल्ममेकर्स का फेवरेट बना दिया. हिंदी में विक्रम ने कई आइकॉनिक फिल्मों पर काम किया. इन फिल्मों के नाम ही आपको विक्रम के काम का लेवल बताने के लिए काफी हैं- द मेकिंग ऑफ अ महात्मा, द लेजेंड ऑफ भगत सिंह, डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर, जुबैदा, मकबूल, ओमकारा, रंग दे बसंती, इश्किया, लुटेरा, पीके.
हालांकि, भारतीय फिल्मों में विक्रम ने हर बार सिर्फ अपने बेहतरीन मेकअप स्किल का ही नहीं बल्कि क्लासिक भारतीय 'जुगाड़' का भी कमाल दिखाया. वाराणसी में फिल्म 'धर्म' (2007) में गला काटने के एक सीन के लिए विक्रम ने मौके पर ही रोटी सेंकने के लिए रखे आटे से गले का प्रोस्थेटिक बनाया था. फिल्म में जब एक्टर का आटे से बना ये गला कटता नजर आता है तो इससे खून भी निकलता दिखता है. इसी फिल्म में हाथ काटने के एक सीन के लिए विक्रम ने लौकी से भी एक जुगाड़ बनाया था.
मेकअप या नो-मेकअप
'डायरेक्टर्स डायरीज' किताब के लेखक राकेश आनंद बक्शी के साथ एक बातचीत में विक्रम ने बताया था कि उनके काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा डायरेक्टर को ये बताना भी है कि कब एक्टर को मेकअप की जरूरत नहीं है. विक्रम ने कहा, 'अगर कहानी का लक्ष्य किरदार की मासूमियत और उसके यूथ को बरकरार रखना है तो मुझे मेकअप करने के लिए जोर देकर डायरेक्टर या एक्टर असल में किरदार के विरुद्ध जा रहे हैं. क्योंकि असल में वो एक्स्ट्रा-मेकअप लगाकर उसके यूथ भरे लुक को खत्म कर रहे हैं. श्याम बेनेगल और मणि रत्नम हमेशा अपने एक्टर्स को नेचुरल लुक में दिखाना पसंद करते हैं. हालांकि, एक्टर्स को नेचुरल लुक देने का मतलब ये नहीं है कि मैं मेकअप का इस्तेमाल नहीं करूंगा. मतलब, मैं उन्हें 'नेचुरल' दिखाने का एक भ्रम तैयार करूंगा. मैंने मेकअप यूज भी किया होगा तो लगेगा कि कोई मेकअप इस्तेमाल नहीं हुआ है.'
विक्रम ने बताया कि 'ओमकारा' में उन्होंने विशाल भारद्वाज को ये सलाह दी थी कि एक्टर्स की न्यूड स्किन दिखनी चाहिए, खासकर करीना कपूर की. विशाल राजी हुए तो उन्होंने करीना का मेकअप उतरवा दिया. हालांकि, करीना ने इसका बहुत विरोध किया था. फिर विक्रम ने करीना को ये बताया कि उनकी स्किन नेचुरली कितनी खूबसूरत है, तब जाकर वो राजी हुईं.
इसी तरह 'द डर्टी पिक्चर' में विद्या बालन का किरदार साउथ की बेहद पॉपुलर एक्ट्रेस सिल्क स्मिता से प्रेरित था. इस किरदार के लिए विद्या को एक खास तरह से सुडौल और भरे हुए फिगर में दिखने की जरूरत थी. विद्या ने इसके लिए अपना वजन भी बढ़ाया था मगर उनका लुक पूरी तरह से सही लगे इसके लिए विक्रम ने प्रोस्थेटिक्स का इस्तेमाल किया था. ठंडे मौसम में तो प्रोस्थेटिक्स सही रहते हैं मगर मुंबई की गर्मी और उमस में, ढाई घंटे की मेहनत से तैयार हुआ विद्या का प्रोस्थेटिक मेकअप पिघलने लगता था. मेकअप खराब होने पर इसे फिर से तैयार किया जाता था.
इस फिल्म में विक्रम के मेकअप का कमाल फिल्म के आखिरी सीन्स में खूब नजर आता है जब विद्या का किरदार बुरे दूर से गुजर रहा है. सिल्क स्मिता के जीवन के इस फेज को दिखाने वाले सीन्स में आपको विद्या के चेहरे पर झुर्रियां बढ़ी हुईं नजर आएंगी. उनकी आंखों के नीचे काले घेरे भी दिखेंगे. इस मेकअप का, शूट के दौरान हर आधे घंटे में दोबारा टच-अप किया जाता था. इससे समझ आता है कि विक्रम को 'द डर्टी पिक्चर' के लिए बेस्ट मेकअप का नेशनल अवॉर्ड क्यों मिला.
मेकअप आर्टिस्ट्स के लिए सम्मान की लड़ाई
2006 से पहले तक सिनेमा के लिए सबसे जरूरी आर्ट्स में से एक, मेकअप के लिए नेशनल अवॉर्ड नहीं दिया जाता था. विक्रम ने बताया था कि उन्हें अपने काम को उचित सम्मान ना मिलने से काफी शिकायत थी और उन्होंने कई बड़े फिल्ममेकर्स से इस बात की शिकायत की थी.
उन्होंने एक जगह कहा था, 'श्याम बाबू को मैंने बोला कि ये क्या है? सब लोगों को नेशनल अवॉर्ड मिल रहा है. हम लोग इतना काम करते हैं, हमारे लिए तो अवॉर्ड है नहीं. सब लोगों को खाने के लिए परोसा गया है और मैं खाली बैठा हूं. श्याम बाबू हैं, मणिरत्नम हैं, ऋतुपर्णो घोष हैं... इन सब बड़े-बड़े डायरेक्टर्स के साथ मैंने काम किया और सबसे शिकायत की कि हमारे लिए नेशनल अवॉर्ड क्यों नहीं है? हम इतना काम करते हैं, मैं इतना एक्स्परिमेंट कर रहा हूं. आखिरकार, 2006 में मेकअप के लिए नेशनल अवॉर्ड क्रिएट हुआ और श्याम बाबू ने मुझे कॉल करके कहा- 'विक्रम, अब अपना अवॉर्ड ले लेना.'
हालांकि, 2006 से जब मेकअप के लिए नेशनल अवॉर्ड मिलना शुरू हुआ तो सबसे पहले फिल्म 'ट्रैफिक सिग्नल' के लिए अनिल मोतीराम पलांदे को दिया गया. उस साल विक्रम की फिल्म 'रंग दे बसंती' इस अवॉर्ड के लिए रेस में थी. इसपर एक इंटरव्यू में विक्रम ने कहा था, 'अवॉर्ड मुझे नहीं मिला वो ठीक है. मगर मेकअप आर्टिस्ट को मिलने लगा ये अच्छी बात है.' फाइनली, विक्रम को ये अवॉर्ड 2010 में मिला बंगाली फिल्म 'मोनेर मानुष' के लिए. 2011 में उन्हें फिर से दो फिल्मों के लिए ये अवॉर्ड मिला- हिंदी की 'द डर्टी पिक्चर' और मराठी की 'बाल गंधर्व'.
2013 में विक्रम एक बार फिर नेशनल अवॉर्ड लेकर आए और इस बार उन्हें ये अवॉर्ड बंगाली फिल्म 'जातिश्वर' के लिए दिया गया. जिन दो बंगाली फिल्मों के लिए विक्रम को नेशनल अवॉर्ड मिला, उन दोनों के हीरो प्रोसेनजीत चटर्जी थे. एक बार प्रोसेनजीत ने विक्रम को कॉल करके मजाकिया तौर पर ये शिकायत भी की थी कि उनके चेहरे पर मेकअप के लिए विक्रम को अवॉर्ड मिल रहे थे, लेकिन खुद उन्हें एक्टिंग के लिए नेशनल अवॉर्ड नहीं मिल रहा!
विक्रम का कहना था कि जब एक एक्टर उनके सामने मेकअप चेयर पर बैठता है, उससे पहले ही वो उसका दिमाग पढ़ लेते हैं. एक इंटरव्यू में अपने काम का दर्शन समझाते हुए उन्होंने कहा था- 'एक शॉट के लिए सेट पर जाने से पहले मेकअप चेयर वो आखिरी कुर्सी होती है जिसपर एक एक्टर बैठता है. उस चेयर पर एक एक्टर मेकअप करवाने के लिए जो कुछ मिनट या घंटे बिताता है, उसमें उसके दिमाग को रिलैक्स कर देना मेरा धर्म है.' अपने हुनर से एक्टर्स को यादगार किरदार में बदल देने वाले मेकअप के जादूगर को भारतीय सिनेमा यकीनन बहुत मिस करेगा...