scorecardresearch
 

कैसे इरफान खान बने थे पान सिंह तोमर? ऐसी थी तैयारी जैसे दिमाग के एक कोने में दर्ज हो किरदार

इरफान खान की बर्थ एनिवर्सरी पर उनसे जुड़ी बहुत सारे किस्से कहानियां याद आते हैं. ऐसा ही किस्सा फिल्म पान सिंह तोमर से भी जुड़ा हुआ है. शुरू में हमें आर्मी की अनुमति नहीं मिल पाई थी. फिल्म में एक बड़ा हिस्सा आर्मी के साथ था. लेकिन फिर कैसे बनी बात? क्यों इरफान चाहते थे पान सिंह तोमर की कहानी को पर्दे पर लाना?

Advertisement
X

'पान सिंह तोमर' लिखे जाने के पहले से...कह लें कि रिसर्च के समय से ही इरफ़ान ऑन-बोर्ड थे. रिसर्च के पहले तिग्मांशु और मैंने निर्माता के साथ मिलकर तय कर लिया था कि इरफ़ान ही पान सिंह तोमर की भूमिका निभाएंगे. रिसर्च के दौरान भी तिग्मांशु और इरफ़ान की मुलाकातें होती रहती थीं. हम लोगों का मानना था कि इस भूमिका को उनसे बेहतर और कोई नहीं कर पाएगा.

फिल्म के परिवेश और किरदार के मनोभाव और भाषा आदि के लिहाज से वही ठीक रहेंगे. कहानी में गंवई भदेसपन था और तब तक यह कहानी अनकही थी. स्थानीय तौर पर ही लोग जानते थे. हमें पान सिंह तोमर के लिए ऐसा कलाकार चाहिए था, जो उस किरदार को गहराई से समझे. जितनी मेहनत हम लोग कर रहे थे, उसे परदे पर उतार सके.

दूसरा व्यावहारिक कारण इरफ़ान और तिग्मांशु की ट्यूनिंग रहा. एक्टर-डायरेक्टर के तौर पर उनकी जबरदस्त समझदारी थी. भारत और हॉलीवुड के कुछ निर्देशक-अभिनेता के बीच ऐसी समझदारी रही है. उसका असर परफॉर्मेंस और फिल्म पर दिखता है. दोनों के बीच ऐसा था कि तिग्मांशु आधा बोलेगा और इरफ़ान वाक्य पूरा कर देगा. ऐसी समझदारी दुर्लभ होती है.

पान सिंह तोमर के लिए इरफान खान क्यों?
एक और कारण था कि 'पान सिंह तोमर' बनने में कितना वक्त लगेगा यह किसी को नहीं मालूम था. हमें हमारे लिए उपलब्ध ऐसा अभिनेता चाहिए था, जो समर्पित भाव से जुड़े. फिल्म शुरू होने के पहले इरफ़ान ने एशियाड के एक धावक के साथ अभ्यास शुरू कर दिया था. पर्दे पर दिखना जरूरी था कोई धावक दौड़ रहा है. इरफ़ान ने धावक का लंबा प्रशिक्षण लिया. दौड़ने का अभ्यास किया. इंडस्ट्री के प्रचलित कलाकारों को लेने पर यह भी आशंका थी कि शूटिंग उससे मिली तारीखों के करनी होगी. 

Advertisement

शुरू में हमें आर्मी की अनुमति नहीं मिल पाई थी. फिल्म में एक बड़ा हिस्सा आर्मी के साथ था. हम कलाकार की वजह से फंस या रुक नहीं सकते थे. फिल्म में एक राष्ट्रीय चैंपियन के बागी बन जाने की कहानी से इरफ़ान बहुत प्रभावित थे. कहानी के नएपन से वह बंध गए थे. रिसर्च शेयर करते थे तो वह खुशी और विस्मय जाहिर करते थे. फिल्म शुरू होने तक वह कहानी में रम गए थे. ढाई-तीन सालों तक वह पान सिंह तोमर के कैरेक्टर पर काम करते रहे. मुझे ऐसा लगता है कि उनके दिमाग के एक कोने में पान सिंह तोमर दर्ज होता जा रहा था. एक फाइल-सी बन गई थी.

यूटीवी में जब कहानी सुनाई गई थी, तो वहां कई जवान लड़के लड़कियां थे. उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ रखी थी. कुछ ने कहा था कि यह भाषा समझ में नहीं आ रही है. आप बुंदेली की छौंक भर लगा दें. पूरी फिल्म उसी भाषा में मत रखिए. हम लोगों का कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता. हमारे पास 'बैंडिट क्वीन' का रेफरेंस था. शेखर कपूर की उस फिल्म में बुंदेली इस्तेमाल की गई थी. हमने कहा कि पहले सुनिए, फिर समझ में नहीं आए, तो बात करेंगे. मैं अड़ा हुआ था और तिग्मांशु भी अड़े हुए थे. 

Advertisement

हम दोनों ने तय किया था कि भाषा बुंदेली ही रहेगी. फिल्म को ध्यान से देखें, तो इरफ़ान की भाषा धीरे-धीरे बदलती है. आर्मी और स्पोर्ट्स की वजह उसकी भाषा में अंग्रेजी के शब्द भी आते हैं. गांव के दूसरे किरदारों की भाषा में अंग्रेजी के शब्द नहीं आते. वे अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते. फिल्म में दूसरी भाषाओं का भी इस्तेमाल हुआ है. किरदारों और परिवेश की जरूरत के अनुसार पंजाबी और अन्य भाषाएं आई हैं. इरफ़ान एक जगह पंजाबी कोच की गाली सुनकर कहते भी हैं कि हमारे यहां तो गाली पर गोली चल जाती है.

हर रोल में मंझ जाते थे इरफान खान 
गौर करें तो हिंदी फिल्मों की भाषा पर ध्यान नहीं दिया जाता. कलाकारों का प्रशिक्षण नहीं है. उन्हें इसकी आदत भी नहीं है. इरफ़ान एनएसडी से थे. वहां बाहर से दूसरी भाषाओं के निर्देशक भी आते रहते हैं. वहां के नाटकों में स्थानीय भाषाओं का खूबसूरत इस्तेमाल होता है. एनएसडी के प्रशिक्षित अभिनेता भाषा का ख्याल रखते हैं. वे भाषा की भिन्नता का महत्व समझते हैं. मैंने देखा है कि वे से भाषा पकड़ और सीख भी लेते हैं. फिल्म में जहां कहीं भी मुश्किल और खांटी स्थानीय शब्द आए, तो हमने उसका अनुवाद भी साथ में दे दिया. जैसे कि भजना. भजना मतलब भागना होता है. फिल्म में जब कोई बोलता है कि हम भजते भी हैं, तो दूसरा पूछता है कि भजना क्या हुआ? फिर वह बताता है कि भजना मतलब भागना होता है.

Advertisement

भारत की अन्य भाषाओं की फिल्मों की तरह हिंदी फिल्मों की भाषायी पहचान नहीं है. यहां सब कुछ दर्शकों का ऐसी भाषा में समझाना होता है, जो सभी के पल्ले पड़े. एक अजीब-सा सरलीकरण होता है. हिंदी फिल्मों की हिंदी वास्तव में फिल्मी हिंदी है. वह कहीं भी बोली नहीं जाती. पूरे हिंदुस्तान में वह नहीं सुनाई पड़ती. हिंदी फिल्मों में एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग भाषा बोल रहे होते हैं. प्रभाव के लिए किसी को उर्दू दे दो. किसी को मुंबइया और कोई पंजाबी लहजे में बोल रहा है. इधर थोड़ी मेहनत की जा रही है. पहले जिसे सीमा बताया जा रहा था, वही भाषा 'पान सिंह तोमर' की यूएसपी बन गई.

फिल्म बन जाने के बाद भी यूटीवी वालों का मानना था कि दिल्ली-मुंबई और शहरों के दर्शकों को भाषा को लेकर दिक्कत हो सकती है. मैंने उन्हें यही कहा कि फिल्म रिलीज होने दें, फिर देखते हैं. फिल्म रिलीज हुई, तो यहां मुंबई में मैंने देखा कि कॉलेज के लड़के-लड़की फिल्म देखकर निकलते समय एक-दूसरे को मोड़ी-मोड़ा बोल रहे थे. उनकी समझ में आ गया था कि मोड़ी मतलब लड़की और मोड़ा मतलब लड़का होता है. फिल्म के संवादों को वे समझ रहे थे. हमने सबटाइटल भी नहीं दिए थे.

Advertisement

इरफ़ान दृश्यों और संवादों को लेकर अधिक बातें नहीं करता था. अगले दिन की शूट के लिए परेशान नहीं रहता था. असमंजस में नहीं रहता था. सारी बात समझ लेने के बाद वह कुछ पूछता भी नहीं था. होमवर्क तगड़ा था उसका. तिग्मांशु और इरफ़ान दोनों को परस्पर भरोसा था. मैंने उन्हें कभी बहस करते नहीं देखा. उसकी मेहनत का अंदाजा कोई दूसरा देखकर नहीं लगा सकता था. उसने 'पान सिंह तोमर' को हर स्तर पर आत्मसात कर लिया था.

दिल की बात समझते थे इरफान
फिल्म में पिता के दृश्य लिखते समय मैं रोने लगा था. मुझे अपने पिता की याद आ गई थी. यह बात मैंने इरफ़ान से शेयर की थी. पिता के साथ मेरे संबंध बेहतर नहीं थे. वह बहुत मार-पिटाई करते थे. संवादहीनता थी हमारे बीच. मेरी बेटी सारा पैदा हुई, तो मैंने माता-पिता का महत्व समझा और फिर मैंने अपनी मां से माफी मांगी. मेरे पिता जीवित नहीं थे, तो उनसे माफी नहीं मांग सकता था. मेरे पिता का तकियाकलाम था-कहो हां. मैंने फिल्म में 'कहो हां' ताकियाकलाम रखकर पिता को याद किया था. इरफ़ान ने भी कहा कि उसे भी इन दृश्यों को पढ़ते समय अपने पिता की याद आ रही थी. हमने फिल्म में पान सिंह तोमर को फादर फिगर दिया था.

Advertisement

पान सिंह तोमर का एनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारियों का भी कहना कि वह शख्स अच्छा इंसान था. अगर मेरे अधिकार में होता तो हम छोड़ देते. उसकी बहुत इज्जत थी. उसकी इज्जत को किरदार में लाना मेरे लिए जरूरी था.

हिंदी फिल्मों में रिसर्च पर मेहनत नहीं की जाती. 'पान सिंह तोमर' के रिसर्च पैसे खर्च किए गए थे. निर्माता रॉनी स्क्रूवाला और सिद्धार्थ राय कपूर ने सारा 1 खर्च उठाया था. हम लोगों को बार-बार ग्वालियर की यात्राएं करनी पड़ती थीं. पर किसी से मिलना जरूरी होता था. जब पहुंचते थे, तो पता चलता था वह कहीं चला गया. हम जैसे ही लौटकर आते थे, तो फिर उसके होने की खबर मिलती थी, तो हम उल्टे पांव ग्वालियर पहुंच जाते थे. अभी लगता है कि सारी मेहनत और जिद काम आई.

(यह लेख संजय चौहान ने लिखा है जो फिल्म 'पान सिंह तोमर' के लेखक हैं. इस लेख को पत्रकार और फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की किताब '...और कुछ पन्ने कोरे रह गए : इरफान' से लिया गया है. किताब को सरस्वती बुक्स ने छापा है. इस लिंक पर जाकर ये किताब खरीदी जा सकती है https://amzn.eu/d/3bSQMCW)

 

 

Advertisement
Advertisement