उत्तराखंड की राजनीति में दलित वोट निर्णायक साबित होते हैं. उत्तराखंड में अनुसूचित जाति की आबादी 18.50 फीसदी के करीब है. ऐसे में इस पहाड़ी राज्य में एक मजबूत दलित समुदाय के नेता की जरूरत हमेशा से रही है. पिछले कई सालों से दोनों कांग्रेस और बीजेपी के लिए उस कमी को समय-समय पर यशपाल आर्य ने दूर किया है. यशपाल आर्य उत्तराखंड राजनीति के सबसे बड़े दलित नेता के तौर पर जाने जाते हैं. कांग्रेस के साथ लंबा राजनीतिक सफर तय कर चुके यशपाल आर्य ने कुछ साल बीजेपी की सरकार में भी काम किया है. ऐसे में उनकी जरूरत दोनों पार्टी को रही है.
एन डी तिवारी ने दिलवाई थी यशपाल को पहचान
उत्तराखंड के कुमाऊ क्षेत्र में यशपाल आर्य की काफी मजबूत पकड़ है. वे 6 बार विधायक रह चुके हैं और एक बार उत्तराखंड कांग्रेस के विधानसभा अध्यक्ष भी रहे हैं. यशपाल आर्य के निजी जीवन की बात करें तो उनका जन्म 8 जनवरी 1952 को नैनीताल जिले के रामगढ़ में हुआ था. लेकिन उनका सियासी सफर तो साल 1977 में तब शुरू हुआ था जब कांग्रेस के दिग्गज नेता एन डी तिवारी ने उन्हें एक खास जिम्मेदारी दे दी थी. बताया जाता है कि 1977 के आम चुनावों के दौरान एन डी तिवारी ने 25 वर्षीय यशपाल आर्य को नैनीताल जिले के देवलचौर केंद्र में कांग्रेस का पोलिंग एजेंट बना दिया था. ये जिम्मेदारी उन्हें तब दी गई थी जब पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल चल रहा था. आपातकाल के बाद चुनाव हुए थे, लिहाजा पार्टी के कई नेताओं के खिलाफ नाराजगी थी. नतीजों में नाराजगी दिखाई भी पड़ी और कांग्रेस के कई नेताओं का प्रदर्शन काफी खराब रहा. लेकिन उस विरोध की लहर के बीच भी यशपाल आर्य ने देवलचौर केंद्र में बतौर पोलिंग एजेंट शानदार काम किया और वहां से एन डी तिवारी को सर्वधिक वोट मिले.
राजनीतिक सफर कैसे शुरू हुआ?
एन डी तिवारी ने तब 25 वर्षीय यशपाल आर्य में एक अलग ही गुण देख लिया था, वे भांप चुके थे कि भविष्य में पहाड़ी राज्य की राजनीति में इनका सक्रिय योगदान रह सकता है. यशपाल आर्य के लिए आने वाले सालों में ऐसा हुआ भी. 1984 में यशपाल आर्य ग्राम प्रधान बन गए थे और फिर कुछ ही समय में उन्हें नैनीताल का जिला युवा अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया था. ऐसे में उन्होंने अपने शुरुआती राजनीतिक सफर में ही बड़ी बढ़त हासिल कर ली थी. इसके बाद यशपाल आर्य ने चुनावी राजनीति में भी कदम रखा और 1989 में खटीमा से चुनाव लड़ा. पहला चुनाव था और यशपाल आर्य ने उसमें जीत हासिल कर ली. विश्वास इतना रहा कि उन्होंने 1993 में फिर विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार जीत की जगह हार ने उनका स्वागत किया.
अब चुनाव तो हारे लेकिन जमीन पर यशपाल आर्य का काम जारी रहा, ऐसे में कांग्रेस ने उन्हें फिर खटीमा से ही अपना उम्मीदवार बनाया. नतीजा ये रहा कि 1993 के उत्तर प्रदेश चुनाव में वे दूसरी बार खटीमा से विधायक बन लिए. इसके बाद जब उत्तराखंड अलग राज्य बना, तब लगातार 2002 और 2007 में वे मुक्तेश्वर सीट विधानक बने. अब कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में यशपाल आर्य की चर्चा होने लगी थी. 2012 में कांग्रेस ने उन्हें बाजपुर से चुनाव लड़वाया और वे फिर जीतने में कामयाब रहे. पिछले चुनाव में भी यशपाल आर्य ने बाजपुर से ही चुनाव लड़ा और बड़ी जीत भी दर्ज की. फर्क इतना रहा इस बार वे हाथ नहीं 'कमल' के निशान पर चुनाव लड़े. कई सालों बाद बीजेपी का दामन थाम लिए थे.
कांग्रेस छोड़ बीजेपी में जाने वाला अध्याय
अब उस किस्से पर भी एक नजर डाल लेते हैं जिस वजह से यशपाल आर्य को कुछ समय के लिए ही सही, कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थामना पड़ गया था. जब 2016 में हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे और 2017 की तैयारी जोरों पर चल रही थी, तब काशीपुर रैली में फ्लैक्स पर यशपाल आर्य का नाम नहीं लिखा था. हरीश रावत और दूसरे नेताओं के नाम थे, सिर्फ यशपाल आर्य का गायब रहा. ऐसे में तब दिग्गज कांग्रेस नेता खासा नाराज हो गए थे. खुद हरीश रावत को उन्हें मनाने जाना पड़ा था, 30 मिनट तक बातचीत की गई. अब उस समय तो मामला ठंडा पड़ गया लेकिन फिर 2017 चुनाव से पहले उन्होंने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया. तब उनके बेटे भी कांग्रेस छोड़ बीजेपी में आ गए थे. लेकिन अब यशपाल आर्य की घर वापसी हो चुकी है और फिर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. उन्हें कांग्रेस ने एक बार फिर बाजपुर से ही अपना प्रत्याशी बनाया है.
रावत का दलित कार्ड और यशपाल की घर वापसी
वैसे कांग्रेस हो या फिर बीजेपी, यशपाल आर्य की उपस्थिति ऐसी रही कि उन्होंने दोनों ही सरकारों में कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त किया है. वे दोनों ही सरकारों में परिवहन, समाज कल्याण समेत कई मंत्रालय समय-समय पर संभाल चुके हैं. लेकिन अब जब हरीश रावत दलित सीएम कार्ड का दांव चल दिया है, ऐसे में यशपाल आर्य और उनके समर्थक उत्साहित हैं. उत्तराखंड की राजनीति में पहले दलित सीएम की संभावना को लेकर भी अटकलें तेज हो गई हैं. अब समीकरण को मजबूत करने में यशपाल आर्य क्या जिम्मेदारी निभाते हैं, ये आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा.