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ना RJD से दोस्ती, न कांग्रेस से प्यार... मुसलमानों को AIMIM में दिखी 'अपनी' सरकार

AIMIM इस बार बिहार में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायकों विधानसभा भेज रही है. ऐसा तब हुआ है जब कांग्रेस और RJD ओवैसी की पार्टी को बीजेपी की B टीम बता रहे थे. लेकिन सीमांचल के मतदाताओं ने इन आलोचनाओं की परवाह न करते हुए AIMIM को वोट देने का रिस्क उठाया. क्योंकि ओवैसी उनकी आकांक्षाओं पर सटीक उतर रहे हैं.

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(Photo:X/aimim_national)
(Photo:X/aimim_national)

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित किया है कि राज्य की राजनीति में मुस्लिम वोटर अब पहले की तरह किसी एक ध्रुव पर स्थिर नहीं हैं. दशकों तक यह वोट बैंक RJD–कांग्रेस गठजोड़ का 'सुरक्षित आधार' माना जाता रहा. लेकिन लगातार दो बार असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने जिस तरह से मुस्लिम इलाकों में सेंध लगाई है. इसका मैसेज साफ है. मुसलमान मतदाता अब केवल सेकुलर दावों के भरोसे वोट नहीं दे रहा, बल्कि उसे अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व की ठोस मौजूदगी चाहिए. AIMIM के विकल्प में मुसलमानों को 'अपना' प्रतिनिधित्व दिखता है.

इस बार बिहार विधानसभा में हैदराबाद के सांसद ओवैसी की पार्टी AIMIM से 5 मुस्लिम विधायक जीतकर सदन पहुंचे हैं. ये सीटे हैं- बायसी, जोकिहाट, बहादुरगंज,कोचाधामन और आमौर. 

इस बार AIMIM के खाते में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायकों को विधानसभा भेजने का गौरव भी मिला है. इस चुनाव में बिहार विधानसभा में मुस्लिम विधायकों का प्रतिनिधित्व सबसे कम रह गया है. मात्र 11 मुस्लिम विधायक ही इस बार सभी पार्टियों से जीते हैं. 2020 में 19 मुस्लिम विधायक जीते थे. 2025 में जीते 11 मुस्लिम विधायकों में 5 AIMIM, 3 आरजेडी, 2 कांग्रेस और 1 जेडीयू के हैं. 

इस लिहाज से AIMIM वो पार्टी है जिस पर मुसलमानों ने सबसे ज्यादा भरोसा जताया है. 

नतीजे बताते हैं कि जब मुसलमानों के सामने अपना नेता चुनने की बात आई तो उन्होंने AIMIM पर सबसे ज्यादा भरोसा किया. AIMIM जिन पांच सीटों पर चुनाव जीती है वहां 40 फीसदी से ज्यादा आबादी मुसलमानों की है. 

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AIMIM के विजयी उम्मीदवारों ने महागठबंधन या JDU की ओर उतारे गए 4 मुस्लिम उम्मीदवारों को शिकस्त दी है. जबकि एक सीट पर बीजेपी द्वारा उतारे गए हिन्दू उम्मीदवार को AIMIM ने हराया है. 

आमौर सीट पर AIMIM कैंडिडेट ने जेडीयू के मुस्लिम कैंडिडेट सबा जफर को मात दी. जोकिहाट में  AIMIM कैंडिडेट ने जेडीयू के मुस्लिम उम्मीदवार को हराया. 

AIMIM उम्मीदवारों ने न सिर्फ सत्ता पक्ष बल्कि विपक्ष के उम्मीदवारों को भी हराया और इस बात को साबित किया कि मुस्लिम समुदाय को उनका प्रतिनिधित्व स्वीकार है. 

बहादुरगंज सीट पर AIMIM कैंडिडेट ने 28726 वोटों के भारी भरकम अंतर से कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार को हराया. 

कोचाधामन सीट पर AIMIM उम्मीदवार ने आरजेडी के मुजाहिद आलम को 23021 वोट से पराजित किया. 

बायसी सीट पर ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार ने बीजेपी के विनोद कुमार को मात दी. 

इस तरह पूर्वी बिहार के मुस्लिमों ने सीमांचल में अपना जनप्रतिनिधि चुनने में  AIMIM को तरजीह दी और बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस को नकार दिया. 

इस चुनाव में ओवैसी ने कुल 23 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे. महागठबंधन की ओर से 30 मुस्लिम उम्मीदवार तो नीतीश कुमार की JDU ने 4 मुस्लिमों को टिकट दिया था. 

AIMIM की 2025 की जीत का आकलन करते हुए 2020 के घटनाक्रम को नहीं भूला जा सकता है जब AIMIM के 5 उम्मीदवार जीते थे. लेकिन तब ओवैसी के 4 जीते हुए विधायकों ने पाला बदल लिया था. 

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इसके बावजूद AIMIM ने 2025 में भी फिर से 5 सीटें जीत लीं. 

ओवैसी का अंदाज सीमांचल को पसंद आया

2020 के चुनावों में सीमांचल में AIMIM का उभार कोई संयोग नहीं था. यह वही इलाका है जहां गरीबी, बाढ़, बदहाली और विकास की अनदेखी ने दशकों से एक राजनीतिक खालीपन पैदा किया था. कांग्रेस और RJD ने चुनावी वादों में मुसलमानों के हितों को जरूर शामिल किया, मुसलमानों को लगा कि उनकी हालत में जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ. 

ऐसे में AIMIM ने सिर्फ पहचान की राजनीति पर जोर नहीं दिया, बल्कि विकास और उपेक्षित वर्गों की भागीदारी का मुद्दा भी उठाया. 

ओवैसी को अबतक सीमांचल ने आजमाया नहीं था. वे जोशपूर्ण और तर्कपूर्ण भाषण देते थे. अंग्रेजीदां थे. सीमांचल के गरीब मुसलमानों को उनकी बातों में अपील नजर आया.

इस चुनाव में AIMIM ने यह संदेश देने में सफलता पाई कि सीमांचल के मुसलमानों को दिल्ली और पटना की सत्ता में अपनी आवाज बुलंद करनी है. मतदाता ने इसे 'अपनी सरकार, अपनी आवाज' के रूप में देखा. उन्हें लगा कि उनका नुमाइंदा न सिर्फ विधानसभा में मौजूद हो, बल्कि उनके मुद्दों को बिना फिल्टर के सरकार और मीडिया तक पहुंचाए. ओवैसी इस कसौटी पर सटीक उतर रहे थे. 

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AIMIM में क्यों दिखी मुसलमानों को 'अपनी' सरकार

AIMIM की रणनीति का दूसरा पहलू पहचान की राजनीति है. मुसलमान समुदाय का एक बड़ा हिस्सा महसूस करता है कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में उसके मुद्दों को या तो जेनरलाइज कर दिया जाता है या चुनावी मौसमी बयानबाज़ी में सीमित रखा जाता है.

चुनाव के दौरान जब वीआईपी के मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम को उम्मीदवार घोषित किया गया तो कई मुस्लिम चेहरों ने आवाज उठाई थी कि आखिर डिप्टी सीएम का पद मुस्लिमों को क्यों नहीं दिया जा सकता है.

मुसलमानों के मन में पैदा हुई इस छटपटाहट को ओवैसी एड्रेस करते हैं. वे सीधे-सीधे सांप्रदायिक हिंसा, वक्फ कानून, नागरिकता कानून, मॉबलिंचिंग और भेदभाव जैसे मुद्दों पर बोलते हैं, जिन्हें दूसरी पार्टियां अक्सर “ध्रुवीकरण” के डर से किनारे रख देती हैं.  यही मुखरता मुस्लिम युवाओं को AIMIM की ओर खींचती है, जो खुद को अब पहले से कहीं अधिक राजनीतिक रूप से जागरूक और आत्मविश्वासी महसूस करते हैं. 

यह भी सच है कि AIMIM का उभार उन्हीं इलाकों तक सीमित रहा है जहां मुस्लिम जनसंख्या 40-50 प्रतिशत तक है.

दरअसल मुस्लिम वोट बैंक अब एकरूप नहीं रहा. RJD के MY समीकरण और कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि केवल प्रतीकात्मक राजनीति के सहारे टिक नहीं सकती.

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इस चुनाव परिणाम ने यह भी बराबर दिखाया कि AIMIM मुसलमानों को एक वैकल्पिक राजनीतिक मंच प्रदान करती है. ऐसा मंच जहां वे सिर्फ वोटर नहीं हैं बल्कि नीतिगत चर्चा का हिस्सा महसूस करते हैं.

ओवैसी की पार्टी को को ये जीत तब मिली है जब कांग्रेस और आरजेडी ने AIMIM पर ये आरोप लगाया है कि वो बीजेपी की बी टीम है. इसके बावजूद मुस्लिम मतदाताओं ने ये रिस्क लेना स्वीकार किया और ओवैसी की पार्टी को वोट दिया. 


 

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