Anant Singh the King of Mokama: बिहार विधानसभा चुनाव में मोकामा के वोटरों ने एक बार फिर अपना वही फैसला दोहराया, जिसके लिए यह इलाका जाना जाता है. जेल में बंद होने के बावजूद बाहुबली नेता अनंत सिंह ने शानदार जीत दर्ज की और महागठबंधन प्रत्याशी सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी को 28,206 वोटों के बड़े अंतर से पराजित कर दिया. नतीजों में अनंत सिंह को 91,406 वोट मिले, जबकि वीणा देवी 63,210 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहीं. यह जीत साफ दिखाती है कि मोकामा में आज भी अनंत सिंह की पकड़ बेहद मजबूत है.
अनंत सिंह जेल में बंद थे, फिर भी दोनों तरफ से चुनावी गढ़ में पूरी ताकत झोंकी गई. दिलचस्प बात यह है कि अनंत सिंह और वीणा देवी दोनों ही भूमिहार समाज से आते हैं, इसलिए मुकाबला सिर्फ दो प्रत्याशियों के बीच नहीं, बल्कि एक ही समाज के भीतर प्रभाव और नेतृत्व की जंग बन गया था. जिसमें अनंत सिंह ने बाजी मार ली.
कौन है अनंत सिंह?
अनंत कुमार सिंह को 'छोटे सरकार' के नाम से जाना जाता है. उनका जन्म एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार में हुआ था. उनके बड़े भाई दिलीप कुमार सिंह उर्फ 'बड़े सरकार' ने 1990 और 1995 में मोकामा से जीत हासिल की. अनंत ने साल 2005 में पहली बार JDU के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीतकर विधायक बने. तब से वे मोकामा की राजनीति के केंद्र में हैं. लक्जरी कारें, घोड़े और सादगी भरा तेवर ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाया. लेकिन विवादों ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा, फिर भी वोटरों ने हमेशा उनका साथ दिया.
मोकामा का सियासी इतिहास
बंदूकों से सियासत तक मोकामा विधानसभा क्षेत्र पटना जिले में स्थित है, जहां भूमिहार, यादव, कुर्मी और ईबीसी जैसे समुदाय प्रमुख हैं. 1951 में बनी यह सीट हमेशा बाहुबलियों का गढ़ रही. 1990 के दशक में दिलीप सिंह का दबदबा था, लेकिन 2000 में सूरजभान सिंह ने जेल से ही उन्हें हराया. इसके बाद अनंत ने कमान संभाली. यहां रेलवे ठेके, जमीन विवाद और गैंगवार ने राजनीति को रंग दिया. अनंत के आने के बाद मोकामा में विकास के साथ-साथ अपराध की खबरें भी सुर्खियां बटोरती रहीं.
64 साल के अनंत सिंह को 'छोटे सरकार' को उनके समर्थक अब उन्हें 'दादा' कहकर बुलाते हैं. अनंत सिंह की एक बाहुबली नेता माने जाते हैं. इस बार वह मोकामा से जेडीयू के उम्मीदवार थे, उनके खिलाफ आरजेडी से सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी चुनावी मैदान में थीं. मुकाबला इन्हीं दोनों के बीच हुआ.
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अनंत सिंह के खिलाफ 28 मुकदमें
चुनाव के दौरान मोकामा में एक हत्या का इल्जाम अनंत सिंह पर लगा. जिसके चलते उन्हें जेल जाना पड़ा. मोकामा का इलाका एक ऐसी जगह है, जहां बाहुबलियों के बीच गैंगवार आम बात रही है. अनंत सिंह ने खुद अपने चुनावी हलफनामे में बताया था कि उनके खिलाफ इस वक्त 28 मुकदमें चल रहे हैं.
मोकामा और बाहुबल की राजनीति
सच कहा जाए तो मोकामा विधानसभा सीट बिहार में बाहुबली-राजनीति का गढ़ माना जाती है. यह वह इलाका है, जहां लंबे वक्त से दबदबा रखने वाले दबंग और बाहुबली नेता ही सक्रिय रहे हैं. इस सीट पर जमने वाले बाहुबली नेता सिर्फ सियासी हस्ती नहीं होते, बल्कि स्थानीय शक्ति संरचना का हिस्सा होते हैं, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और अपराध-राजनीति का आपस में तालमेल रहता है.
जुर्म से राजनीति तक का सफर
अनंत सिंह की कहानी जुर्म से राजनीति तक का क्लासिक उदाहरण है. वे शुरुआती दौर में आपराधिक पृष्ठभूमि से उभरे और धीरे-धीरे स्थानीय मजबूत व्यक्ति और फिर बाहुबली नेता बन गए. उनकी राजनीतिक पैठ वहीं मजबूत हुई, जहां अपराध और राजनैतिक समझौते एक साथ चलते रहे.
नीतीश कुमार के साथ गठजोड़
अनंत सिंह की राजनीतिक उठा पटक में एक बड़ा मोड़ तब आया, जब उन्होंने नीतीश कुमार के साथ गठजोड़ कर लिया. ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने नीतीश को चांदी के सिक्कों से तौला था, जो उनकी ताकत और नीतीश के प्रति उनके भरोसे का प्रतीक बन गया. इस गठजोड़ ने उन्हें कानून की दहलीज पर सियासी वैधता दिला दी.
नहीं डगमगाया राजनीतिक आधार
एक हत्याकांड के मामले में भले ही अनंत सिंह जेल में थे, लेकिन उनकी राजनीतिक छवि और समर्थक बहुत मजबूत हैं. उनके समर्थकों ने उनकी गिरफ्तारी को शहादत बता कर इलाके की जनता के सामने पेश किया. ऐसा करने से उनकी स्थिति चुनाव में मजबूत हुई साथ ही उन्हें अपने वोटरों की सहानुभूति भी मिली.
चुनाव में सहानुभूति
अनंत सिंह की गिरफ्तारी और जेल भेजे जाने की घटना चुनाव में एक संदेश के रूप में इस्तेमाल की गई. उनके समर्थकों ने इसे अन्याय और राजनीतिक उत्पीड़न के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे उनकी राजनीतिक विरासत और बाहुबली नेता की पहचान और मजबूत हुई. यह सहानुभूति वोट और ध्रुवीकरण उन्हें लाभ पहुंचाता दिखा. उनके जेल में होने से वोट बैंक में परिवर्तन नहीं हुआ.
वोट बैंक की रणनीति
मोकामा की राजनीति में जातिगत समीकरण का बड़ा रोल है. उनके विरोधी सूरजभान भी भूमिहार समाज से आते हैं, जिनकी पत्नी उनके खिलाफ चुनाव लड़ रही थी. लेकिन भूमिहार बिरादगी में अनंत सिंह की पकड़ ज्यादा मजबूत है, और यही वोट बैंक की राजनीति का अहम हिस्सा है. इसलिए जेल में बंद होने के बावजूद उनके वोटर्स उनके प्रति वफादार रहे.
अनंत सिंह का मजबूत नेटवर्क
अनंत सिंह का नेटवर्क में सिर्फ वे खुद नहीं हैं, बल्कि उनके आसपास समर्थकों, सहयोगियों और स्थानीय गुटों का एक मजबूत समन्वय है, जो उनकी ताकत है. वो चाहें जेल में हों या फिर बाहर... चाहे अभियान हो, मतदान या फिर जन संपर्क. सभी में ये नेटवर्क उनके लिए मददगार है. क्योंकि वे सभी को परिवार की तरह मानते हैं.
हिंसा, दबदबा और हत्या का आरोप
मोकामा में चुनावी घटनाओं से जुड़े कुछ मामलों में हिंसा की छाया रही है. हाल का एक प्रमुख मामला है दुलारचंद यादव की हत्या, जिसमें अनंत सिंह और उनके गुट पर आरोप लगे हैं. इसी मामले में उन्हें जेल भी जाना पड़ा. इस प्रकार की हिंसा, सहायक गुटों, समर्थकों और डर की राजनीति, उनकी शक्ति को और बढ़ाती नजर आती है.
सूरजभान गुट की चुनौती
सूरजभान सिंह या उनके गुट भी लंबे समय से मोकामा में प्रभाव रखते रहे हैं. लेकिन इस चुनाव में उनकी चुनौती सीमित रही क्योंकि अनंत सिंह का स्थानीय आधार बहुत मजबूत और स्थिर है. उनके गुट ने शक्ति खोई नहीं है, लेकिन अनंत की जेल से सक्रियता और समर्थन ने उन्हें चुनाव में पीछे हटने नहीं दिया.
भविष्य की भूमिका
अब जबकि अनंत सिंह की जीत से यह साफ है कि उनकी शक्ति सिर्फ वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनका एक दीर्घकालिक राजनीतिक और सामाजिक सफर है. विरोधियों, सूरजभान गुट और विपक्ष के सामने उनकी जीत ने फिर से बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि वे कैसे उनकी पकड़ को कमजोर कर पाएंगे. भविष्य में यह देखना रोचक होगा कि चुनाव के बाद मोकामा की राजनीति कैसे बदलती है.
ये है अनंत सिंह की पूरी कहानी
दिल्ली से हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़ेंगे तो पटना से 40 मिनट बाद आएगा बाढ़. यहां दो अगड़ी जातियों राजपूत और भूमिहार की खूनी जंग का इतिहास रहा है. यहीं के लदमा में पैदा हुए अनंत सिंह. चार भाइयों में सबसे छोटे. बताया जाता है कि जिस वक्त अनंत सिंह पहली बार जेल गए, उनकी उम्र महज 9 साल की थी. उसके बाद वे जुर्म की दुनिया में ऐसे बढ़े कि बड़े-बड़े नेता भी उनके रुबाब के आगे घुटने टेकने लगे. अब सवाल उठता है कि जिस गंगा के तट पर बाहुबलियों का कोई अकाल नहीं है, वहां अनंत सिंह का इतना खौफ कैसे है.
बड़े भाई ने पढ़ाया राजनीति का सबक
दरअसल अनंत सिंह के बड़े भाई दिलीप सिंह बिहार के बाहुबली नेता थे. पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव की सरकार में मंत्री भी रहे. इसका मतलब राजनीति में शुरुआती पंजे मारना अनंत को भाई दिलीप ने सिखाया. 80 के दशक में कांग्रेस विधायक रहे श्याम सुंदर धीरज के लिए बूथ कब्जाने का काम करने वाले दिलीप उन्हीं को मात देकर जनता दल के टिकट पर विधायक (1990-2000) बने थे. सफेदपोश हो चुके थे और उन्हें दबदबा कायम रखने के लिए एक भरोसेमंद की जरूरत थी. ऐसे में लंबी-चौड़ी कद काठी और रौबदार रवैये वाले भाई से बेहतर साथी कौन हो सकता था, जो दो हत्याएं करके रंगदारी की राह पर आगे निकल चुका था.
कम उम्र में वैराग्य
कहा ये भी जाता है कि कम उम्र में अनंत सिंह वैराग्य ले चुके थे. साधु बनने के लिए अयोध्या और हरिद्वार में घूम रहे थे. लेकिन साधुओं के जिस दल में थे, वहां झगड़ा हो गया. मन वैराग्य के संसार से उचटने ही लगा था कि सबसे बड़े भाई बिरंची सिंह की हत्या हो गई. फिर क्या था अनंत पर बदला लेने का भूत सवार हो गया. वे दिन-रात भाई के हत्यारे को खोजते रहे. एक दिन पता चला कि हत्यारा किसी नदी के पास बैठा है तो उसे मारने के लिए तैरकर नदी पार की और ईंट-पत्थरों से कुचलकर मार डाला.
दो बड़े नेताओं के बीच पनपे अनंत सिंह
लेकिन अनंत सिंह की कहानी एक शेपक की तरह आती है, उस कहानी के बीच, जो बिहार की राजनीति के दो सबसे ताकतवर ध्रुवों ने लिखी- नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव. बिहार में पिछले 30 वर्षों में इन्हीं दो नेताओं का शासन रहा है. एक जमाने में बिहार में जनता दल के दो बड़े नेता लालू और नीतीश साथ थे. लालू यादव सीएम बनें इसके लिए पूरा जोर लगाया नीतीश कुमार ने.
नीतीश के पाले में ऐसे आए थे अनंत
बात 1994 की है. लालू यादव को सीएम बने 4 साल हो चुके थे और नीतीश कुमार और उनके समर्थकों को साइड लाइन कर चुके थे. साल 1996 का लोकसभा चुनाव आया तो नीतीश को टेंशन होने लगी कि बिना लालू के समर्थन के नैया पार कैसे लगेगी क्योंकि बाढ़ के जातिगत समीकरण उनका गणित बिगाड़ रहे थे. तब उनकी नजर पड़ी रौबदार व्यक्तित्व वाले नेता अनंत सिंह पर. बाढ़ इलाके के जानकार अकसर बताते हैं कि साल 1996, 1998 और 1999 लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार के लिए अनंत का साथ कितना जरूरी था.
भूमिहारों के रक्षक बने अनंत
राजपूत और भूमिहार की खूनी इतिहास का गवाह रहे बाढ़ में लोग रात में घरों से निकलने से भी डरते थे. लेकिन अनंत सिंह अपने भूमिहार समुदाय के रक्षक के रूप में उभरे. सितारे तब चमके जब नीतीश कुमार ने साल 2005 में जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर उन्हें मोकामा विधानसभा से उतारा. इसे लेकर मीडिया में काफी बातें भी उछलीं कि नीतीश कुमार, जिन्होंने बिहार की राजनीति से अपराधिकरण को खत्म करने की कसम खाई थी, वे ऐसे शख्स को टिकट दे रहे हैं, जिसके खिलाफ संगीन मामले दर्ज थे. लेकिन बावजूद इसके अनंत सिंह मोकामा विधानसभा सीट से जीतने में कामयाब रहे. अजगर पालने के शौकीन अनंत सिंह साल 2005 से मोकामा विधानसभा सीट से विधायक हैं.
आम जनता के लिए मसीहा!
छठ पर धोती बांटना, रोजगार के लिए गरीबों को तांगे देकर मदद करना और रमजान के दिनों में इफ्तार करना. ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनके जरिए अनंत गरीबों के मसीहा और छोटे सरकार बन गए. उनके सामने नीतीश कुमार की हाथ जोड़ते हुए फोटो भी वायरल हो चुकी हैं. हालांकि साल 2015 में जब लालू और नीतीश साथ आए तो अनंत सिंह ने जेडीयू से इस्तीफा दे दिया. साल 2015 का विधानसभा चुनाव तो उन्होंने जेल से लड़ा था. एक दिन भी प्रचार नहीं किया. लेकिन बावजूद इसके वो 18 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गए थे.