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वेदों से पुराण कथाओं तक... 150 साल के वंदे मातरम् के पीछे युगों पुराना वैदिक दर्शन

भारत की प्राचीन वैदिक परंपरा में मातृभूमि की महत्ता को उजागर किया गया है. इसमें पृथ्वी को माता के रूप में देखा गया है. वेदों, रामायण, महाभारत और पुराणों में धरती को जीवनदायिनी, पालनहार और सहनशील शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है.

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वंदे मातरम् की मूल भावना और विचार वैदिक सूक्तियों और मान्यताओं से प्रेरित है
वंदे मातरम् की मूल भावना और विचार वैदिक सूक्तियों और मान्यताओं से प्रेरित है

संसद के शीतकाल सत्र में लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों का माहौल गर्म बना हुआ है. वजह है भारत का राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम्' जिसे 150 साल पहले रचा गया और भारत की आजादी के साथ ही इसे राष्ट्रगीत के तौर पर अपनाया गया. आनंद मठ नाम के उपन्यास में शामिल बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की यह रचना भारत की आत्मा है और देश व इसकी भूमि की कल्पना माता के रूप में करते हुए इसे देवत्व की श्रेणी में ले जाकर स्थापित करती है. यही वजह है कि यह गीत आज तक भारत की जनभावना का प्रतीक भी है और विरोध का कारण भी.  

खैर, विरोध के कारणों पर न जाते हुए इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि आखिर वह कौन सी परंपरा और कौन से संस्कार हैं जो रिहायशी के तौर पर इस्तेमाल होने वाली जमीन के टुकड़े को माता का दर्जा दे देते हैं और क्यों? 

इसका उत्तर भारत की प्राचीन वैदिक परंपरा में मिलता है और वहीं से इस बात के तार भी जुड़ते हैं कि कोई अपनी भूमि को, या जहां वह जन्म लेता है उसे अपनी पहचान के तौर पर देखता है और उससे सबसे अधिक नजदीकी का रिश्ता बयां करने के लिए उसे मातृभूमि कहता है. यानी ऐसी भूमि जो माता के समान है. यही भावना फारसी में 'मादरे-वतन' कहलाती है और इंग्लिश में 'Mother Land'. भारत की वैदिक परंपरा में कई श्लोंको और सूक्तियों में धरती को माता कहा गया है. 

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Bankim Chandra Chattopadhyay

वैदिक साहित्य में ‘धरती’ का मातृत्व

भारतीय वेद सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ मनुष्य के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक संबंधों का गहरा दार्शनिक दस्तावेज भी हैं. इन ग्रंथों में पृथ्वी को मात्र भूमि या संसाधन नहीं, बल्कि माता के रूप में देखा गया है. एक ऐसी माता जो जीवन देती है, पोषण करती है और धारण करती है. यह भावना आज की पर्यावरणीय चेतना से कहीं पहले मानव-मानस में रची-बसी हुई थी.

वेदों में पृथ्वी-मातृत्व का सबसे स्पष्ट और विस्तृत स्वरूप अथर्ववेद के भूमि सूक्त (Atharva Veda 12.1) में मिलता है. इस पूरे सूक्त में पृथ्वी को देवी, जननी, पालनहार और सब जीवों की आधार-शक्ति बताया गया है. इसमें कहा गया है-

‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु’
 

यह भूमि हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं. ‘पर्जन्य’ अर्थात मेघ हमारे पिता हैं और ये दोनों मिल कर हमारा ‘पिपर्तु’ यानी पालन करते हैं. 

यह वाक्य वेदों में प्रकृति-मानव संबंध का सबसे सशक्त और आत्मीय उद्घोष है. इसमें धरती के प्रति कृतज्ञता, निकटता और भावनात्मक जुड़ाव एक साथ दिखाई देता है, जैसे संतान अपनी माता के प्रति प्रेम और सम्मान का इजहार करती है. 

पूरे भूमि-सूक्त में पृथ्वी को सबको धारण करने वाली, औषधियों और अन्न की जननी, दया और धैर्य की मूर्ति, आश्रय देने वाली और मानव समेत जीव-जंतुओं को अपार सहिष्णुता से स्वीकार करने वाली माता के रूप में रेखांकित किया गया है. 

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अथर्ववेद का सूक्त अधिक प्रसिद्ध है, लेकिन इससे पहले ऋग्वेद के भी एक सूक्त का कम महत्व नहीं हैं, जिसमें सबसे पहले धरती (या जन्मभूमि) को माता के रूप मे देखा गया है.

ऋग्वेद में कई स्थानों पर प्रकृति को 'पिता-माता' के रूपक में रेखांकित किया गया है. यहां प्रकृति के दो मूल तत्व, द्योः (आकाश-पिता) और पृथ्वी (माता) को सृजन करने वाली जोड़ी के रूप में देखा गया है.

ऋग्वेद में कहा गया है:
'द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्.' (ऋग्वेद 1.164)

इसका अर्थ है, 'आकाश मेरा पिता है, पृथ्वी मेरी माता है, और इनके मध्य जो अंतरिक्ष है, वह मेरे लिए संबंधों का नाभि-बिंदु है.' यहां पृथ्वी केवल भूमि नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व की जड़, पोषण-शक्ति और सांस्कृतिक आधार है.

माता और धरती में समानता कैसे?
वेदों में पृथ्वी को माता कहने का भाव सिर्फ पन्नों तक सीमित नहीं है. यह भारतीय समाज की जीवन शैली का अंग रहा है. पृथ्वी को मातृत्व से जोड़ने के कई कारण हैं और वह कारण ऐसे हैं जो एक मां और उसके छोटे बच्चे के बीच जिस तरह का बॉन्ड होता है उसके आधार पर देखे गए हैं. जैसे मां अपने बच्चे पर हर तरह से प्यार लुटाती है. उसके सुख-दुख का ध्यान रखती है. उसे मजबूत बनाती है. बच्चा कभी पैर मारता है, कभी बाल खींच लेता है, कभी भोजन कराने में उंगली काट खाता है. ऐसी तमाम बाते हैं जिन्हें प्रकृति के साथ जोड़ा गया है.

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प्रकृति अपने बच्चों की तरह करती है हमारा पालन
प्रकृति या जमीन हमें अपने ऊपर धारण करती है. हम चलते हुए एक तरह से इसे रौंदते हैं. जरूरत पड़ने पर इसके पेड़ों को काटते हैं. घास-फूस, खर-पतवार को उसी तरह उखाड़ लेते हैं जैसे बाल खींचे जाते हैं. हल से इसे कुरेदते हैं. जैसे बालक कई बार मां पर ही मल-मूत्र का त्याग कर देता है, मानव समेत सभी जीव-जंतु बड़े सहज भाव से धरती पर ऐसा करते हैं, लेकिन धरती यह सब सहन करती है. ठीक उसी तरह जैसे मां सहन करती है. हालांकि मां के जीवंत होने और धरती के निर्जीव होने में बहुत फर्क है, लेकिन यह इंसानी भावना ही है जो दोनों बातों में साम्य देख लेती है और फिर इसी तरह से उसे सम्मान देती है.  

इस मातृत्व की मुख्य विशेषताएं हैं कि धरती के पास धारण-शक्ति यानी धारण करने वाली, सहनशील और स्थिर शक्ति के रूप में देखा गया. अन्न, जल, औषधियां, खनिज आदि सभी कुछ देकर पोषण करती है. भूमि-सूक्त कई बार पृथ्वी की सहनशीलता की प्रशंसा करता है और उसे क्षमाशील बताता है.  मनुष्य को पृथ्वी के समान धैर्य, सांत्वना और करुणा रखने की प्रेरणा दी गई है. 

Vande Matram

रामायण में भी मातृभूमि को बताया गया है महान
यह बातें सिर्फ वेदों तक ही सीमित नहीं है. पौराणिक कथाओं की ओर बढ़ते हैं तो धरती को माता मानने भावना और प्रबल हो जाती है. वाल्मीकि रामायण में इसका स्पष्ट जिक्र आता है. जब श्रीराम रावण का वध कर लेते हैं और अयोध्या वापसी की तैयारी कर रहे होते हैं तो विचलित लक्ष्मण उनसे कहते हैं कि यह सोने की नगरी कितनी सुहावनी है, हम यहीं से रहकर साकेत का राज्य संभालते हैं. तब श्रीराम कहते हैं...

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अपि स्वर्णमयी लंका, न मे लक्ष्मण रोचते, 
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।।

वह कहते हैं, 'हे लक्ष्मण! भले ही यह सोने की लंका बहुत लुभावनी और सुहावनी है, लेकिन मुझे बिल्कुल भी रुचिकर नहीं लगती है. माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर/महान होती हैं.' 

महाभारत में भी महान है मातृभूमि
इसी तरह महाभारत में पांडवों के वनवास के समय यक्ष प्रश्न का प्रसंग आता है. जलाशय के किनारे जल लेने गए युधिष्ठिर के सभी भाइयों को एक यक्ष अपनी माया से मूर्छित कर देता है. तब युधिष्ठिर उसके प्रश्नों के उत्तर देते हैं. यक्ष के प्रश्न कुछ बेहद कठिन थे, कुछ सरल, कुछ सूझ-बूझ वाले और बहुत से गूढ़ रहस्य वाले थे. लेकिन युधिष्ठिर उसका जो उत्तर देते हैं वह मानव सभ्यता के लिए आज भी एक सीख और प्रेरणा है. प्रश्नों के सिलसिले में यक्ष प्रश्न करता है---

किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात् ।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विद् बहुतरं तृणात् ॥

यक्ष ने प्रश्न किया- पृथ्वी से भारी क्या है? आकाश से अधिक ऊंचा क्या है ? वायु से तेज क्या है ? तिनकों से भी अधिक (असंख्य) क्या है?

युधिष्ठिर उवाच–

माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा ।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया –  माता पृथ्वी से भारी है (यानी माता का गौरव पृथ्वी से ज्यादा है). पिता आकाश से अधिक ऊंचे हैं, मन वायु से तेज चलने वाला है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक (असंख्य या अनन्त) है. इस प्रसंग में भी माता और धरती की तुलना एक स्वरूप में की गई है.

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मंत्रों की असीम शक्तिशाली परंपरा में पृथ्वी गायत्री मंत्र भी धरती की तुलना देवी से करता है और कहता है कि...

'ॐ पृथ्वीदैव्यै विद्महे धराभूतये धीमहि। तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्॥'

पृथ्वी देवी यानी धरती के रूप में विद्यमान शक्ति का ध्यान हम कर रहे हैं. वही पृथ्वी माता हमें प्रकाशित करें और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें.

Vande Matram

विष्णु पुराण में मातृभूमि का जिक्र
इसी तरह विष्णु पुराण के स्कंध दो के तीसरे अध्याय में ही पहला श्लोक है, जिसमें महर्षि पाराशर, ऋषि मैत्रेय को भारत का भूगोल समझा रहे हैं. वहां वह कहते हैं कि समुद्र से घिरे जलराशि के उत्तर में और हिमालय से नीचे दक्षिण में जो लंबा भू-भाग फैला हुआ है, उसका नाम भारत है और इस भूमि पर रहने वाली इसकी संतानें भारती कहलती हैं. 

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ,
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।। (विष्णुपुराण, स्कंध-2, अध्याय-3, पहला श्लोक)

फिर अलग-अलग सूक्तियों, श्लोकों और कई स्तुतियों में जिनका रचना काल और रचनाकार न तो स्पष्ट हैं और न ही ज्ञात उनमें भी जन्मभूमि की तुलना माता से की गई है और यह कोई एक बार में नहीं हुआ है, बल्कि सदियों की परंपरा का असर है. 

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥

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"हे देवी, जो समुद्र को वस्त्र के रूप में धारण करती हैं और जिसके पर्वत दूध के समान पौष्टिक औषधीय गुणों से युक्त जल से भरे वक्ष स्थल की तरह हैं. भगवान विष्णु की पत्नी, भूदेवी मैं आपको नमस्कार करता हूं, आपको पैरों से स्पर्श करने जा रहा हूं इसके लिए क्षमा करें. 

भारत की ग्रामीण परंपरा में आज भी यह अनकहा चलन है कि जब भी लोग सोकर उठते हैं तो हर सुबह बिस्तर से उतरकर धरती पर पांव रखने से पहले उसे स्पर्श कर प्रणाम करते हैं और फिर नीचे उतरते हैं. हालांकि इसके वैज्ञानिक तर्क भी दिए जाते हैं, लेकिन धरती को छूकर प्रणाम करने की परंपरा मन में उसके प्रति वही माता वाले भाव को सामने रखती है,  जिसका वर्णन वेदों और पुराणों में सदियों से किया जाता रहा है. 

यही वजह है कि आजादी के समय में क्रांतिकारी जब विद्रोह के लिए निकलते थे और माथे पर माटी का तिलक लगा लेते थे. एक गीत भी है, 'चंदन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है.' कई फिल्मी गीतों में भी इस मिट्टी को पवित्र बताया गया है. कवि प्रदीप लिखते हैं, 

'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदोस्तान की,
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की.

मां, माटी और मातृभूमि इस देश की सदियों-सदियों पुरानी परंपरा रही है और 'वंदे मातरम्' इसी परंपरा और भावना से निकला हुआ गीत है जो देश को मां के तौर पर देखता है और एक महाशक्ति के तौर पर उसकी वंदना करता है.

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