एक आम आदमी अपनी धाक जमाने के लिए अक्सर महफिलों में कहता पाया जाता है कि 'उसकी पहुंच ऊपर तक' है. ये ऊपर कितना ऊपर है इसे पैमानों पर नहीं मापा जा सकता. अब पहुंच ऊपर तक है तो है. आपको क्यों गुठली गिननी है? आप तो आम खाइये न जनाब.
लेकिन, ये बात भी है कि आम अक्सर ऊपर तक पहुंच बनाने और बढ़ाने का जरिया रहे हैं. इसे बड़े ही इत्मीनान और बेतकल्लुफी के साथ बड़े बाबुओं के बंगले में भेजा गया. मंत्रियों को विधायकों की ओर से पहुंचाया गया और ठेकेदारों ने ठेके पाने के ऐवज में अफसरों की गाड़ी में 'जबरन' ही खूब आम रखवाए. आम के बाद ये वाला सुख थोड़ा बहुत लीची को ही मिला है, लेकिन सेब, अनार, अनानास और पपीते तमाम फायदों का ब्यौरा भले ही खुद के परिचय में गढ़ते रहें, लेकिन मजाल क्या कि अफसरों को रिझाने में उनका जरा भी योगदान हो?
कसम से आम ने ऐसे-ऐसों के ऐसे -ऐसे काम बनाए हैं कि आम नाम होने के बावजूद वो खास बन गया. लेखक सोपान जोशी तो अपनी किताब मैग्नीफेरा इंडिका में लिखते हैं कि आम के लिए दीवानगी तो ऐसी है कि बड़े-बड़े भी इसके चाव से बचाव नहीं कर पाते. वह लिखते हैं कि आम महज एक फल नहीं, जुनून है. भगोड़े अपराधी दाऊद इब्राहिम के कराची में छिपे होने के दावे किए जाते हैं, उसे भी बंबई के हापुस आमों की तलब लगती है. एक क्राइम रिपोर्टर ने बताया कि दाऊद के लिए दुबई के रास्ते विशेष डिब्बे भेजे जाते हैं. वह लिखते हैं कि 'यह सुनकर मैं हैरान रह गया कि एक फल इतना शक्तिशाली हो सकता है कि वह अंडरवर्ल्ड के सरगना को भी ललचाए.'
खैर, इतना सब होने के बावजूद आम के भीतर छिपी उसकी पवित्र भावना को इग्नोर नहीं किया जा सकता है. ये अकेला ऐसा फल है, जिसका फल तो फल, पेड़, फूल, पत्ते, लकड़ी और जड़ तक पूजा-पाठ में कहीं न कहीं काम आ ही जाते हैं. आम की लकड़ी हवन के लिए चाहिए, इसके पत्तों से ही मंगल कलश बनता है. वसंत पंचमी में फूलों से पूजा होती है, आम की जड़ें घर में सौभाग्य लाती हैं और फल तो फल है ही. आम का मौसम हो और ईष्ट को इसका भोग न लगे ऐसा हो ही नहीं सकता.
भारत के पूरब में बसे बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा ऐसे राज्य हैं जो भगवान के भोग में आम का सर्वाधिक इस्तेमाल करते हैं. न सिर्फ पके आम, बल्कि प्रसाद की थाली में कच्चे आमों की भी मौजूदगी रहती है. 13-14 अप्रैल को बिहार-बंगाल में सतुआनी मनाई जाती है. इस समय तक आम अपने बाल स्वरूप में रहता है, जिसे बड़े ही प्यार से टिकोरा पुकारा जाता है.
आप बिहार के गांव की पगडंडियों पर घूमें और यहां लड़कों की टोली के करीब रहकर उनकी शैतानियों को देखें. वह झुंड बनाकर पत्थर मार-मारकर टिकोरा तोड़ रहे होते हैं और अपनी ही धुन में एक बेतुकी तुकबंदी वाली कविता गाते हैं. 'टिकोरा-टिकोरा आम के अचार, मारब ढेला फुट जाई कपार' इस कविता को साहित्य कि किसी भी धारा में अब तक जगह नहीं मिली है, लेकिन ये कविता है तो है और मजाल क्या कि इसे लुप्त होने का डर रहे. जब तक गांव में आम के पेड़, टिकोरे और बालकों के झुंड रहेंगे, कविता अमर रहेगी.
खैर, तो बात हो रही थी कि सतुआनी की, जब सतुआनी मनाई जाती है, तब भगवान को सत्तू, काला नमक, आम के टिकोरे की फांके, और धनिया-पुदीना-अमिया की चटनी का भोग लगता है. इस त्योहार को जूड़ शीतल भी कहते हैं, जिसमें पेड़ों (पीपल, बरगद, आम, नीम और पाकड़) में पानी डालना एक रिवाज है. इसे धार चढ़ाना कहते हैं. फिर धीरे-धीरे दिन बीतते हैं. लूह चलती है. बदन झुलसने लगता है तब बनता है अमझोरा... कच्चे आम के पने की तरह.
कच्चे आमों को आग पर भून लिया जाता है, फिर उन्हें ठंडे पानी में मसलकर, काला-सेंधा नमक डालकर, भुने जीरे का पाउडर, सौंफ और चीनी मिलाकर शरबत तैयार करते हैं. अमझोरा को मिट्टी के कुल्हड़ों में भरकर इसका पहला भोग ठाकुर जी ही लगाते हैं.
ठाकुर जी के भोग से याद आया कि ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ को इन दिनों के भोजन में जो छप्पन भोग लगता है, उनमें दोपहर के भोजन में एक बड़ा ही स्वादिष्ट व्यंजन शामिल है, जिसे अंबा खट्टा कहते हैं.
स्वाद से भरपूर, खाने में आनंददायक, पचने में आसान और गर्मी के रोगों के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता पैदा करने वाला. इस व्यंजन के लिए उन आमों का इस्तेमाल करते हैं, जो अब कच्चे नहीं रहे, लेकिन पके भी नहीं है. यानी आमों की किशोरा अवस्था की आखिरी दहलीज जब वह जरा-जरा जवानी की ओर बढ़ने ही वाले होते हैं. खट्टे-मीठे आमों से बनने वाला अंबा खट्टा, जगन्नाथ जी का प्रिय प्रसाद है.
'अंबा खट्टा' ओडिया डिश है, लेकिन देशभर को एक जैसे बनाते हैं आम... यही अंबा खट्टा दक्षिण दिशा की यात्रा कर लेता है, तो तिरुपति से लेकर रामेश्वरम के मंदिरों तक पहुंचते हुए मांगई पाचड़ी बन जाता है. रसदार, मीठा और दांतों के बीच खटास की न भूलने वाली निशानी छोड़ता हुआ मांगई पाचड़ी, रसम की ही तरह चावल के साथ स्वाद लेकर खाया जाता है. उत्तर भारतीयों की लार ग्रंथियां अगर सक्रिय हो गई हैं तो वे राजस्थान की खास 'आम की लौंजी' का स्वाद ले सकते हैं. अंबा खट्टा, मांगई पाचड़ी और आम की लौंजी एक ही जैसे व्यंजन हैं. वैसे ही जैसे विष्णु के कई अवतार हैं, लेकिन वह कहीं जगन्नाथ, कहीं तिरुपति तो कहीं कोदंडधारी नाम से जाने जाते हैं.
भगवान जगन्नाथ का इतना जिक्र हो चुका है तो बता दें कि अगर आम न होते तो ओडिशा की विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा भी नहीं होती. यानी कि इस धार्मिक उत्सव में भी आम एक प्रमुख किरदार निभाता है. होता यह है कि जगन्नाथ धाम में आषाढ़ पूर्णिमा को स्नान पूर्णिमा मनाई जाती है. इस दिन भगवान को बेहद गर्मी के कारण स्नान कराया जाता है, फिर छककर आमरस पिलाया जाता है. शाम तक होते-होते भगवान की नाक में झुरझुरी होने लगती है और फिर रात होते-होते वह ज्वर से पीड़ित हो जाते हैं.
इसके बाद भगवान विश्राम में चले जाते हैं. इन 15 दिनों तक वह दर्शन नहीं देते हैं. उनका महाभोग, देव प्रसादी आदि भी बंद रहता है, उन्हें समय-समय पर केवल पथ्य (रोगी को दिया जाने वाला आहार) दिया जाता है. यह कार्य भी मंदिर के विशेष सेवादार करते हैं और किसी को श्रीमंदिर में जाने की अनुमति नहीं होती है. 15 दिन बाद जब भगवान ठीक हो जाते हैं तब वह मन बदलने के लिए विहार पर निकलते हैं और मौसी गुंडिचा के घर जाते हैं. यही पूरा रिवाज रथयात्रा कहलाता है, लेकिन सोचिए आम न होता तो कैसे होती रथयात्रा?
इसलिए आम को इतना आम समझने की भूल मत कीजिए, आम की पहुंच बहुत ऊपर तक है.
यहां पढ़िए पहली किस्त... जब सिर्फ आम की किस्मों से 'जंग' हार गया एक पाकिस्तानी