अकबर इलाहाबादी लिखते हैं...
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए,
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए.
खास की बात तो सभी करते हैं, बात तो तब बने जब बात 'आम' की हो. यों भी ये देश 'आम' के ही सहारे तो चल रहा है. हर 5 साल में आने वाले आम चुनाव हों, हर नए साल की तिमाही में नमूदार होने वाला 'आम बजट', या हर आम बात में जिक्र होने वाले आम आदमी, आम जनता, आम आवाम, आम लोग. ऐसा समझिए कि बात जितनी खास होगी, असल में उतनी ही 'आम' होगी.
फिर मई-जून की तड़पाती गर्मी और इस पर कभी-कभी पड़ जाने वाली बारिश. जैसे कि गर्म तवे पर छींटा दे दिया हो. फिर तो जी में जो भभका उठता है, उसकी शांति तर बतर कर देने वाले तरबूजों से नहीं हो सकती, न खरबूजे की मिठास उसका कुछ समाधान कर सकती है. अंगूर-सेब, केले-संतरे की तो पूछिए मत. ऐसे में कुछ नहीं सुहाता. इस भभके को शांत करने का बूता सिर्फ गूदा में ही होता है और गूदा भी काहे का... आम का. देखिए लौट फिर के एक आम आदमी आया तो आम ही पर.
आम की बात ही कुछ ऐसी है, हम आम से अलग नहीं हो सकते. उसका मोह नहीं छोड़ सकते हैं. हम धरती पर चाहे जो कुछ पा लें लेकिन हमारे हिस्से आम नहीं आया तो समझिए कि कुछ नहीं आया.
अकबर ने दरबार में सवाल किया, बारह में से एक गया तो क्या बचा? सबने कहा, जनाब 11... लेकिन बीरबल ने कहा- कुछ नहीं बचा जनाब, समझिए सब खत्म हो गया. अकबर हैरान और दरबारी अंजान... ये बुद्धिमान बीरबल ऐसा क्यों बोल रहा है? बीरबल ने कहा- हुजूर 12 में एक सावन का महीना चला जाए तो कुछ नहीं बचेगा. सब खत्म हो जाएगा. फसलें सूख जाएंगी, बाग उजड़ जाएंगे. किसान रो पड़ेगा, घाटा बढ़ेगा, लगान छूटेगा और खजाना खाली... अकबर खुश हुआ, बीरबल की बात में दम था, क्योंकि सिर्फ वो जानता था आम आदमी की जरूरत और आम की कीमत.
सीधी-सीधी बात पर आते हैं तो आम बस एक फल नहीं है, एक भावना है, एक परंपरा है, एक पहचान है. इस फल के साथ अमीरी-गरीबी का कोई कायदा नहीं है. बाहर निकलिए तो फुटपाथ पर लू के थपेड़े के बीच फटे गालों और चरपराए होंठ और बहती नाक वाले बच्चों के मुंह भी अमरस से सने दिख जाएंगे और आम पर पूरा 'ग्रंथ' रच देने वाले सोपान जोशी तो लिखते हैं कि ये फल अमीरी दिखाने का भी जरिया बन जाता है.
वो लिखते हैं कि, आम अमीरों के ड्राइंग रूम में सजावट का सामान है तो गरीबों के घर में उत्सव. हर भारतीय के दिल में इसके लिए खास जगह है. चाहे वह मुंबई का हापुस हो, उत्तर प्रदेश का दशहरी, या बिहार का ज़र्दा, आम की कहानी भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में गहरे तक बुनी हुई है. आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन हजारों सालों से एक फल भोजन, रुतबे, और भावनाओं का प्रतीक बन गया है.
आप सोचिए कि आम के साथ मन की भावनाएं इस कदर जुड़ी हैं कि बाबा कबीर भी अपने दोहे में कह जाते हैं कि 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय' माना कि उन्होंने कांटों के रूपक के लिए बबूल इस्तेमाल कर लिया, लेकिन मिठास के लिए वह सेब का नाम भी तो ले सकते थे.
बाबा कबीर ऐसा कह लेते कि, बोया पेड़ बबूल का तो सेब कहां से होय... या फिर तरबूज कहां से होय, केला कहां से होय. जरूर वो जानते थे कि सेब कहने से बात सिर्फ कश्मीर और हिमाचल तक सीमित रहेगी. तरबूज कहेंगे तो दायरा सिर्फ दोआबा तक रह जाएगा और खरबूज कहने से मऊ वाले ऐंठे-ऐंठे घूमेंगे. बाबा ने उठाया आम, हथेली से दबा-दबा के गुलगुला किया, चेंपी नोंच के फेंकी और होठों के रास्ते जब चट्ट से रस भीतर गया तो सट्ट से काव्य फूटा. उधर रस चूसा और इधर कविता बही... शंखनाद के साथ दोहा पूर्ण हुआ कि 'बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय'
ये आम ही है जिसकी स्वीकार्यता पहाड़ में भी है, घाटी में भी है. तट पर भी है और तराई में भी है. 28 प्रदेश और 8 केंद्र शासित प्रदेश वाला अपना देश 'मिले सुर मेरा-तुम्हारा' से उतना एक नहीं होता है, जितना आम से होता है. दिल्ली में बैठा आदमी अगर आम का लती है तो उसे दशहरी, सफेदा, मलिहाबादी तो चाहिए ही, इन्हे उदरस्थ करने के बाद वो चौसा-लंगड़ा का भोग लगाएगा, फिर पश्चिमी घाट की ओर कूच करता हुआ हापुस और तोतापरी चखेगा. इसी बीच जर्दालु आ गए तो उन्हें भी चूस जाएगा और फिर दक्षिण के बैंगनपल्ली से डकार लेगा.
ये जो जेठ के बीतते-बीतते आधा आषाढ़ और पूरा सावन होता है न बिल्कुल 'आममय' होता है. ठाकुरजी के भोग से लेकर, सत्यनारायण भगवान की कथा श्रवण तक और पूजा, जप-तप, नेम अचारा' जैसे हर अनुष्ठान से छोटी-मोटी और बड़ी भूख तक, ब्रेकफास्ट, ब्रंच, लंच, सपर, डिनर सब आम से होते हैं और आम पर खत्म. आम पर कितनी बात की जाए, कहां तक की जाए और कैसे-कैसे की जाए, असल में जितनी भी की जाए सब कम पड़ेगी.
फिर भी एक बात बताते हैं जो कभी किस्सागो कहलाने वाले हिमांशु बाजपेयी ने बताई थी. कहने लगे कि तकसीम (बंटवारा) हुआ. हिंदुस्तान-पाकिस्तान बने तो ऐसे में शायर जोश मलीहाबादी पड़ोसी मुल्क चले गए. अब चले तो गए पर दिल से आम निकले न आम लोग. एक दिन भिड़ंत ही हो गई वहां के एक लोकल शायर से. शायरों की लड़ाई भी एक तो बतकही की शक्ल में होती हैं और दूसरी रसभरी बहुत होती हैं. ये दुनिया में अकेली ऐसी लड़ाई है, जिसमें लोग लड़ने वालों को छुड़ाते नहीं हैं.
तो पाकिस्तानी शायर बोले- हमारे यहां के अनारों की टक्कर का कोई फल है आपके यहां? जोश साहब ने अपनी अना के साथ जवाब दिया- दसहरी. पाकिस्तानी ने फिर पूछा- हमारे यहां के अंगूर का क्या जवाब देंगे ? जोश साहब बोले- सफेदा. अब पाकिस्तानी शायर ने मुल्क के तमाम फलों के नाम गिनवा दिए और हर बार जवाब में जोश साहब ने आम की ही कोई किस्म जवाब में हाजिर कर दी. पाकिस्तानी शायर आख़िर झल्ला गया और जोश साहब से बोला- आपके यहां आम के अलावा कोई दूसरा फल नहीं होता क्या? जोश साहब बड़ी चुप्पी से बोले- किबला ज़रा सब्र करें. पहले आमों की क़िस्में तो चुक जाने दीजिए, फिर दूसरे फलों के नाम भी गिनवा दूंगा.
तो ऐसे हैं आम और ऐसी ही आमों की अना... घबराइये नहीं किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ, बल्कि सिलसिला शुरु हुआ है. आम की ऐसी ही कहानियों से रूबरू होने के लिए पढ़ते रहिए, 'आम कहानी'