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हवा से नाइट्रोजन लेकर खुद खाद बनाएंगी गेहूं-धान की किस्में! खेती में क्रांति की उम्मीद

अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, डेविस के वैज्ञानिकों ने CRISPR-Cas9 तकनीक का उपयोग करके गेहूं की ऐसी किस्म विकसित की है जो हवा से नाइट्रोजन लेकर खुद जैविक खाद बना सकती है. इससे रासायनिक खाद की जरूरत कम होगी, फसल की पैदावार बढ़ेगी और पर्यावरण प्रदूषण घटेगा.

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गेहूं की उन्नत किस्म (फाइल फोटो- ITG)
गेहूं की उन्नत किस्म (फाइल फोटो- ITG)

अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, डेविस के वैज्ञानिकों ने एक क्रांतिकारी सफलता हासिल की है. उन्होंने गेहूं की ऐसी किस्में विकसित की हैं जो हवा से नाइट्रोजन लेकर खुद अपना जैविक खाद (फर्टिलाइजर) बना सकती हैं. इस तकनीक से न सिर्फ रासायनिक खाद की जरूरत कम होगी, बल्कि फसल की पैदावार भी बढ़ेगी. साथ ही खेती की लागत घटेगी और पर्यावरण प्रदूषण में भी भारी कमी आएगी.

इस रिसर्च को प्लांट साइंसेज डिपार्टमेंट के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. एडुआर्दो ब्लमवाल्ड डायरेक्ट कर रहे हैं. उनकी टीम ने CRISPR-Cas9 जीन एडिटिंग टूल की मदद से पौधों में नेचुरल केमिकल का प्रोडक्शन कई गुना बढ़ा दिया, जिससे पौधे खुद ही मिट्टी के बैक्टीरिया को उत्तेजित करके नाइट्रोजन प्राप्त करने लगते हैं. अमेरिका में हुई इस   रिसर्च के बाद भारत में भी उम्मीदें जगी हैं कि बहुत जल्द इस टेक्नोलॉजी से गेहूं और धान जैसी फसल तैयार होगी जिसे बाहरी खाद की जरूरत नहीं होगी.

भारत में भी जग रही है उम्मीद
'जीन एडिटिंग' की यह टेक्नोलॉजी भारत के लिए इसलिए खास मायने रखती है क्योंकि हमारे देश में नाइट्रोजनयुक्त खाद (यूरिया) का अधिक इस्तेमाल हो रहा है. इससे मिट्टी की उर्वरता घट रही है, मिट्टी बंजर हो रही है और किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है. जिसे रोकने के लिए अब प्राकृतिक खेती और ऑर्गेनिक खेती पर जोर दिया जा रहा है. डॉ. ब्लमवाल्ड का काम देखकर भारतीय वैज्ञानिकों में भी उत्साह है कि बहुत जल्द गेहूं और धान की ऐसी किस्में विकसित की जा सकती हैं, जिन्हें बाहर से खाद देने की जरूरत ही न पड़े.

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‘प्लांट जेनेटिक इंजीनियरिंग’ के जाने-माने विशेषज्ञ और ICAR-NBPGR के पूर्व निदेशक प्रो. के.सी. बंसल ने आजतक की सहयोगी साइट ‘किसान तक’ से बातचीत में कहा, कि भारत में भी जीन एडिटिंग पर बहुत अच्छा काम चल रहा है लेकिन डॉ. ब्लमवाल्ड की रिसर्च नई दिशा दे रही है.भारत में भी गेहूं, चावल, मक्का, तिलहन और बाजरे की ऐसी किस्में बना सकते हैं जो खुद का नाइट्रोजन फिक्सेशन करें. खासकर गेहूं और चावल में यह तकनीक लागू करना प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि इन फसलों पर खाद का खर्च सबसे ज्यादा है.

क्या भारत भी बनाएगा ऐसा गेहूं?
 प्रो. बंसल ने कहा कि 2030 तक भारत को ऐसी वैरायटी जरूर तैयार कर लेनी चाहिए जो दलहन फसलों की तरह राइजोबियम बैक्टीरिया की मदद से हवा से नाइट्रोजन लेकर खुद का खाद बनाए. उन्होंने सलाह देते हुए कहा कि हमें भविष्य की जरूरतों को देखते हुए जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी पर अधिक बारीकी से नजर रखनी चाहिए.

भारत में हाल में जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी के जरिये धान की दो किस्में लॉन्च की गई हैं. ये दोनों किस्में बेहद अच्छी हैं जिनमें उत्पादन बढ़ाने और सैलेनिटी/एल्केलेनिटी टॉलरेंस की क्षमता है. इस लिहाज से कहें तो जिस तरह दलहन की फसलें खुद के लिए नाइट्रोजन फिक्सेशन से खाद बनाती हैं, वैसा काम धान और गेहूं में भी होना चाहिए. 

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नाइट्रोजन फिक्सेशन से मिलेगा समाधान
पिछले कई दशकों से साइंटिस्ट्स रिसर्च में लगे थे कि जिस तरह से दलहन में रूट नोड्यूल्स के द्वारा नाइट्रोजन फिक्स होती है, उसी तरह से धान में भी एटमॉस्फेरिक नाइट्रोजन फिक्स हो. यहां तक कि मनीला स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में भी इस पर काम हुआ है. लेकिन डॉ. ब्लमवाल्ड के काम से पूरी दुनिया में जीन एडिटिंग के द्वारा अब एक नई उम्मीद जगी है और भारत में भी इस तरह के काम पर जोर देना चाहिए.

प्रो. बंसल ने कहा कि दशकों से वैज्ञानिक कोशिश कर रहे थे कि धान-गेहूं में भी दालों की तरह रूट नोड्यूल्स बनें और वायुमंडलीय नाइट्रोजन फिक्स हो.मनीला स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (IRRI) ने भी इस दिशा में लंबा काम किया, लेकिन CRISPR जैसी सटीक जीन एडिटिंग तकनीक ने अब दरवाजे खोल दिए हैं. डॉ. ब्लमवाल्ड ने कहा, अफ्रीका में ज्यादातर किसान खाद इसलिए नहीं डाल पाते क्योंकि उनके पास खेत छोटे हैं और पैसे भी नहीं हैं. अगर फसल खुद मिट्टी के बैक्टीरिया को सक्रिय करके जरूरी पोषक तत्व ले ले, तो यह गरीब किसानों के लिए वरदान होगा.

बता दें कि गेहूं में किया गया यह इनोवेशन चावल में भी सफलतापूर्वक लागू हो चुका है. अब वैज्ञानिक अन्य प्रमुख अनाज फसलों पर भी काम कर रहे हैं. हालांकि, अभी इस रिसर्च को किसानों तक लेकर जाना बाकी है.

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रिपोर्ट: रवि कांत सिंह

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