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इस्लाम मेरी पसंद नहीं, मलेशियाई महिला ने खुद के मुस्लिम होने को दी कोर्ट में चुनौती

सिंगापुर की एक महिला इस्लाम को नहीं मानती लेकिन उसके जन्म के कारण शरिया अदालतें उसे इस्लाम मानने पर मजबूर कर रही हैं. महिला ने बौद्ध धर्म अपना लिया है और वो इस्लाम की शिक्षाओं को नहीं मानती. इस बात को लेकर अब महिला हाई कोर्ट पहुंची है जहां शरिया कोर्ट के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जाएगी.

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सिंगापुर की महिला इस्लाम को नहीं मानती लेकिन शरिया अदालतें ये मानने को तैयार नहीं हैं (Photo- AP)
सिंगापुर की महिला इस्लाम को नहीं मानती लेकिन शरिया अदालतें ये मानने को तैयार नहीं हैं (Photo- AP)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • महिला के इस्लाम छोड़ने पर शरिया कोर्ट की रोक
  • सिविल कोर्ट पहुंच महिला ने की अपील
  • कहा- इस्लाम नहीं, बौद्ध धर्म मानती हूं

मलेशिया में धर्मांतरण का एक दिलचस्प मामला सामने आया है जिस पर कुआलालंपुर का उच्च न्यायालय 15 जून को सुनवाई करेगा. मुस्लिम माता-पिता से जन्मी एक मलेशियाई महिला ने कोर्ट में अर्जी दायर की है कि उसके मामले की सुनवाई हो और उसे न्याय मिले. महिला का कहना है कि उसने भले ही मुस्लिम माता-पिता से जन्म लिया लेकिन उसने इस धर्म को कभी स्वीकार नहीं किया. वो कन्फ्यूशियननिज्म और बौद्ध धर्म को मानती है इसलिए उसे मुस्लिम न माना जाए.

32 वर्षीय महिला ने धर्मांतरण के बाद मुस्लिम बने पिता और एक मुस्लिम मां से से जन्म लिया था. अदालत के हस्तक्षेप के बाद महिला के नाम को गोपनीय रखा जा रहा है.

हाई कोर्ट के जज दातुक अहमद कमाल मोहम्मद शाहिद ने अपने वकील और अटॉर्नी जनरल के चैंबर्स (एजीसी) की दलीलें सुनने के बाद कहा कि इस मामले में 15 जून को फैसला सुनाया जाएगा. उन्होंने कहा कि उसी दिन ये तय किया जाएगा कि शरिया कोर्ट के फैसले की न्यायिक समीक्षा के लिए अनुमति दी जाएगी या नहीं.

इस मामले में, महिला ने 4 मार्च को न्यायिक समीक्षा के लिए मुकदमा दायर किया था, जिसमें चार प्रतिवादियों- शरिया कोर्ट ऑफ अपील, शरिया उच्च न्यायालय, संघीय क्षेत्र इस्लामी धार्मिक परिषद (Maiwp) और मलेशिया सरकार को नामित किया गया था.

महिला की मांग है कि अदालत की तरफ से ये घोषित किया जाए कि वो अब मुस्लिम नहीं है और कन्फ्यूशीवाद और बौद्ध धर्म के अपने धर्म को मानने की हकदार है. महिला कोर्ट की तरफ से ये घोषणा भी चाहती है कि शरिया कोर्ट के पास किसी व्यक्ति को इस्लाम धर्म से निकालने का अधिकार है या नहीं.

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शरिया कोर्ट ने महिला के इस्लाम छोड़ने पर लगाया रोक

महिला शरिया उच्च न्यायालय के जुलाई 2020 और शरिया कोर्ट ऑफ अपील के दिसंबर 2021 के उस फैसले को बदलने की मांग कर रही है जिसमें दोनों ही शरिया अदालतों ने उसके मुस्लिम धर्म छोड़ने को मान्यता देने से इनकार कर दिया था. उसकी मांग है कि शरिया अदालतों के फैसले पर अंतरिम रोक लगाई जाए.

महिला जब पैदा हुई थी तब उसके माता-पिता के मुस्लिम धर्म के कारण जन्म से ही उसे मुस्लिम माना जाने लगा. महिला के वकीलों का कहना है कि उसके माता-पिता के तलाक के बाद उसे माता ने ही पाला लेकिन उसकी मां ने उस पर इस्लाम धर्म थोपने की कोशिश की.

जब वो बड़ी हुई तो उसने अपनी मर्जी से कन्फ्यूशियननिजम और बौद्ध धर्म को अपने धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया. अगस्त 2018 में कुआलालंपुर के शरिया उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर कर महिला ने घोषणा की कि उसने कभी इस्लाम को नहीं अपनाया इसलिए उसे मुसलमान न माना जाए.

महिला ने शरिया अदालत में क्या कहा?

महिला ने अदालत में कहा कि उसने कभी इस्लाम की शिक्षाओं को नहीं अपनाया. उसे इस्लाम में कभी विश्वास नहीं रहा, अपने माता-पिता के कारण उसे ये धर्म मिला. अदालत में महिला ने कहा कि वो नियमित रूप से सूअर का मांस और शराब का सेवन करती है जो इस्लाम के तहत निषिद्ध है लेकिन बौद्ध धर्म के तहत नहीं. 

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लेकिन उसके मामले पर सुनवाई से पहले दिसंबर 2018 में शरिया उच्च न्यायालय ने उसे जनवरी से जून 2019 तक छह महीने में इस्लाम के 12 काउंसिलिंग सत्रों में भाग लेने का आदेश दिया. महिला ने ये काउंसिलिंग सत्र ये सोचकर अटेंड किए कि इसके बाद उसे इस्लाम धर्म छोड़ने की अनुमति मिल जाएगी लेकिन बाद में अदालत ने उसे धर्म छोड़ने से मना कर दिया.

अगस्त 2020 में महिला ने कुआलालंपुर में शरिया कोर्ट ऑफ अपील में अपील की. लेकिन 8 दिसंबर, 2021 को कोर्ट ने उसकी अपील को खारिज कर दिया.

वकीलों का तर्क

महिला के वकील फहरी अज्जत ने अदालत में नौ मुख्य तर्क दिए. वकील ने कहा कि शरिया कोर्ट के पास किसी को भी इस्लाम छोड़ने की अनुमति देने की कोई शक्ति नहीं है.

फहरी ने कहा कि महिला ने इस्लाम को त्याग दिया था और सबूत भी पेश किए थे कि अब वो मुस्लिम नहीं है, उसने कन्फ्यूशीवाद और बौद्ध धर्म को अपनाया है. ऐसे में कोर्ट द्वारा उसके सबूतों को स्वीकार न करना तर्कहीन है.

फहरी ने उल्लेख किया कि शरिया उच्च न्यायालय ने महिला के मुस्लिम धर्म छोड़ने के फैसले से इनकार कर दिया और फैसला सुनाया कि देश के संविधान का अनुच्छेद 11 (1), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, मुसलमानों पर लागू नहीं होता है.

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वकील ने कहा, 'मैं कहूंगा कि शरिया अदालत का ये फैसला अनुच्छेद 11(1) का स्पष्ट उल्लंघन है और शरिया अदालत के पास अनुच्छेद 11(1) की व्याख्या करने का कोई अधिकार नहीं है. केवल दीवानी अदालतों को संघीय संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है.'

फहरी ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 11 (1) के तहत उनके मुवक्किल के अधिकार का उल्लंघन किया गया है. उन्होंने ये भी तर्क दिया कि उनके मुवक्किल को काउंसिलिंग सत्रों में भेजकर उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया हैं. पूरी प्रक्रिया में लंबा वक्त लगा जिसमें महिला को आर्थिक नुकसान हुआ और अंत में उससे ये कहा गया कि वो इस्लाम नहीं छोड़ सकती.

इस मामले में सरकार की और अटॉर्नी जनरल (Attorney General) के वकील ने अपना पक्ष रखा. एजी का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी वकील मोहम्मद सल्लेहुद्दीन मोहम्मद अली ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय को शरिया अदालतों के फैसले की न्यायिक समीक्षा नहीं करनी चाहिए.

सल्लेहुद्दीन ने कहा कि शरिया अदालतों के फैसलों की सिविल अदालतों द्वारा समीक्षा नहीं की जा सकती है.

उन्होंने अनुच्छेद 121(1ए) का हवाला देते हुए कहा कि इस अनुच्छेद में कहा गया है कि शरिया अदालतों के फैसलों पर दीवानी अदालतों को कोई अधिकार नहीं होगा.

सल्लेहुद्दीन ने तर्क दिया कि इस्लाम से धर्मांतरण का मुद्दा शरिया अदालतों के अधिकार क्षेत्र में आता है. वकील ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 121 (1 ए) का अर्थ होगा कि एक बार शरिया अदालतों के मामले पर निर्णय लेने के बाद दीवानी अदालतें शरिया अदालतों के फैसले पर न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकती हैं.

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सल्लेहुद्दीन ने बार-बार जोर देकर कहा कि दीवानी अदालतें शरिया अदालतों के फैसले की समीक्षा नहीं कर सकती हैं, भले ही शरिया अदालतों ने गलत फैसला किया हो. कोर्ट इस मामले पर 15 जून को फैसला करने वाला है. 

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