फिलिस्तीन के आतंकी समूह हमास के हमलों के बाद इजरायल की जवाबी कार्रवाई में दोनों ओर से करीब एक हजार लोगों की मौत हो चुकी है, वहीं 5 हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए हैं. हमास के हमलों के बाद ही इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने युद्ध का ऐलान कर दिया था. उन्होंने सुरक्षा प्रमुखों की एक बैठक में कहा कि 'यह एक जंग है और हम ये जंग जीतेंगे. वहीं दूसरी तरफ से हमास भी रुकने के मूड में नहीं है और लगातार हमलावर हो रहा है.
इजरायल और हमास के बीच जंग को देखकर एक्सपर्ट्स का कहना है कि आने वाले कुछ दिनों में मारकाट और ज्यादा बढ़ने वाली है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगले कुछ सप्ताह में फिलिस्तीन के काफी आतंकी और यहां तक कि आम नागरिक भी इजराइल की सेना के शिकार हो जाएंगे. वहीं एक्सपर्ट्स का कहना ये भी है कि बेशक जंग में नुकसान तो दोनों ओर का ही होगा, लेकिन अगर इस युद्ध से किसी को फायदा मिलेगा, तो वह सिर्फ ईरान होगा.
दरअसल, पहले से ही कुछ विश्लेषकों यह दावा भी कर रहे हैं कि हमास के अटैक के पीछे ईरान का हाथ हो सकता है. कम से कम ईरान को हमास के हमले की निंदा करनी चाहिए थी, जो नहीं की गई.
एंटी अमेरिका, एंटी इजरायली देश ईरान
साल 1979 में ईरान में तख्तापलट हुआ. इसे ईरान की सबसे बड़ी इस्लामिक क्रांति भी कहा जाता है. इस क्रांति में ईरान के मौजूदा शासक शाह रजा पहलवी को गद्दी से उतारकर शिया मुस्लिम नेता अयातुल्लाह खुमैनी ईरान के प्रमुख बन गए. अब जो शाह का शासन था, तो अमेरिका और इजरायल से संबंध भी ईरान के काफी अच्छे थे. लेकिन अचानक खुमैनी ने आकर सबकुछ बदल दिया और ईरान पूरी तरह से इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया गया.
उस समय से ही खुमैनी के शासन को एंटी अमेरिकी और एंटी इजरायली कहा जाने लगा. खुमैनी की यह क्रांति सिर्फ ईरानी शासन के लिए नहीं बल्कि अमेरिका और उन सरकारों के खिलाफ भी थी, जिन्हें अमेरिका का सहयोग रहता है.
अमेरिका के समर्थन वाली इन सरकारों में इजरायल की सरकार सबसे प्रमुख थी, जो खुमैनी के आंखों में हमेशा से खटकती रही. खुमैनी के राज में ईरानी नेताओं का मानना है कि इजराइल और अमेरिका अनैतिकता, अन्याय, मुस्लिम समाज और ईरानी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं.
ईरान ने हमेशा फिलिस्तीन की आजादी को अपना केंद्रीय विषय माना है. साल 1982 में जब इजरायल ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) को समाप्त करने के लिए लेबनान पर धावा बोला तो ईरान को उस समय अच्छा मौका मिला और उसने लेबनान में इजराइली सैनिकों को चुनौती देना शुरू कर दिया. साथ ही क्षेत्र में अमेरिका के प्रभाव की जानकारी भी जुटानी शुरू कर दी.
साल 1980 के दशक की शुरुआत से ही ईरान ने इजरायल विरोधी आतंकवादी समूहों और अभियानों के लिए समर्थन बनाए रखा. साथ ही ईरान ने सार्वजनिक रूप से आतंकी समूहों को लाखों डॉलर की सालाना सहायता देने का वादा किया. और लेबनान में रिवोल्यूशनरी गार्ड और हिजबुल्लाह ठिकानों पर हजारों फिलिस्तीनी लड़ाकों को सैन्य प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया.
ईरान इजरायल को झटका देने के इरादों के साथ गाजा पट्टी पर ऐसा स्मगलिंग नेटवर्क बनाया, जिससे वो आसानी से फिलिस्तीन लड़ाकों को हथियार पहुंचाकर मदद कर पाए. ईरान ने फिलिस्तीन में इस्लामिक जिहाद और हमास की हिंसा को बढ़ावा भी दिया. कई जगह इजरायल के खिलाफ लड़ाई में फिलिस्तीनी लड़ाकों ने ईरानी हथियारों का इस्तेमाल किया और हिंसा फैलाई.
समय का फेर ऐसा है जो ईरान के पक्ष में है
एक्सपर्ट्स के अनुसार, पूरी तरह खुलकर तो यह नहीं कहा जा सकता है कि ईरान के आदेश पर ही हमास ने इजरायल पर हमला किया है. ना ही यह कहा जा सकता है कि फिलिस्तीनी लड़ाकों पर ईरान का कंट्रोल है, क्योंकि वे ईरान के पालतु नहीं है. वहीं ईरान के किसी नेता ने इस हमले का स्वागत भी नहीं किया, बस इस हमले का समय कुछ ऐसा है जो आकस्मिक रूप से ईरान के पक्ष में है. जिसका फायदा ईरान को क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने की लड़ाई में भी मिल सकता है.
हमास अटैक के कुछ समय पहले ही सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने उन रिपोर्ट्स को खारिज कर दिया था, जिनमें दावा किया जा रहा था कि सऊदी ने इजराइल के साथ संबंधों में सुधार के प्रयासों को रोक दिया है.
इजरायल और सऊदी के रिश्ते सामान्य होना अमेरिका के कूटनीतिक प्रयासों की उपलब्धि का शिखर दर्शाते हैं. इसमें अब्राहम समझौता भी शामिल है, जो साल 2020 में इजरायल, यूएई, बहरीन और मोरक्को के बीच हुआ था. इस समझौते का लक्ष्य इजराइल और अरब देशों के बीच संबंधों को बेहतर करना था. हालांकि, ईरान को यह कदम पसंद नहीं आया और ईरान के सुप्रीम लीडर खुमैनी ने इसकी जमकर आलोचना भी की.
कैसे इस जंग में ईरान को पहुंच रहा है फायदा?
एक्सपर्ट्स के अनुसार, इजरायल और हमास की जंग के संभावित तीन नतीजे हो सकते हैं. खास बात है कि ये सभी संभावित नतीजे ईरान के पक्ष में हैं. पहला- युद्ध में हमास को जवाब देते समय इजराइल का भीषण रूप सऊदी अरब और अन्य गल्फ देशों से बात बिगाड़ सकता है. जबकि अमेरिका इजरायल और गल्फ देशों में रिश्तों को सुधारने का प्रयास कर रहा है. ईरान के लिए इससे अच्छी क्या बात होगी.
दूसरा, अगर इजरायल गाजा पट्टी में ज्यादा नुकसान पहुंचाता है तो उससे फिलिस्तीन के अन्य क्षेत्रों में भी विद्रोह बढ़ सकता है. जो क्षेत्र में लंबे समय तक अस्थिरता का कारण बन सकता है. ऐसा रहा तो भी ईरान संतुष्ट ही रहेगा.
वहीं तीसरा, इजरायल अपने पहले दो उद्देश्यों को कम से कम फोर्स के साथ पूरा कर सकता है. भारी-भरकम रणनीति को छोड़कर, तनाव बढ़ने की संभावना को कम कर सकता है. हालांकि, ऐसा होने की उम्मीद काफी कम है. और अगर यह होता भी है तो यह ताजा हमले क्यों हुए और इनके पीछे ईरान का हाथ है या नहीं, इसकी जानकारी नहीं लग पाएगी.