
बांग्लादेश में 19 दिसंबर को हुए 27 वर्षीय हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की नृशंस मॉब लिंचिंग ने न केवल दक्षिण एशिया में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि इस घटना की अंतरराष्ट्रीय मीडिया में प्रस्तुति को लेकर भी नई बहस छेड़ दी है. अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स (NYT) में प्रकाशित एक रिपोर्ट को लेकर भारत में तीखी प्रतिक्रिया सामने आ रही है.
आरोप है कि इस रिपोर्ट में दीपू चंद्र दास की मॉब लिंचिंग को प्रत्यक्ष रूप से पेश ना करके उसे दक्षिण एशिया में बढ़ती धार्मिक असहनशीलता के बड़े मुद्दे से जोड़ा गया. इसके पीछे एक मंशा ये बताने की भी थी कि जो बांग्लादेश में दीपू चंद्र दास के साथ हुआ है, वो दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में लगातार होता रहता है.
अंग्रेजी में इसके लिए Normalize शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसमें किसी घटना की गंभीरता को कम दिखाने के लिए उसे सामान्य रूप में पेश किया जाता है. इस घटना में भी अमेरिकी अखबार ने ने यही किया. उसने दीप चंद्र दास की मॉब लिंचिंग में पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत के उदाहरणों का जिक्र किया और ये लिखा कि पाकिस्तान में भी धर्म से जुड़े कई मामलों में मॉब लिंचिंग की घटनाएं तेज से बढ़ी हैं. साथ ही अफगानिस्तान में भी अल्पसंख्यक हिन्दुओं और सिख समुदाय के लोगों ने सुरक्षा कारणों से पलायन किया है.

केरल का उदाहरण और अधूरी जानकारी
इसी में भारत को लेकर भी ये लिखा है कि भारत में भी हिन्दू गोरक्षकों और स्वयंभू पहरेदारों ने मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया है. इसके अलावा इसमें केरल की उस घटना का भी ज़िक्र है, जिसमें पिछले हफ्ते कुछ लोगों ने एक प्रवासी मजदूर को बांग्लादेशी समझकर उसकी हत्या कर दी थी. हालांकि इसमें ये कहीं नहीं बताया गया है कि ये घटना चोरी के शक में हुई थी और इस घटना का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था. इसे ही वैचारिक मिलावट कहते हैं.
लेखकों पर भी सवाल
इस रिपोर्ट के लेखक सैफ हसनत और मुजीब मशाल हैं. सोशल मीडिया और कुछ विश्लेषकों का दावा है कि इन दोनों पत्रकारों के नाम से पहले भी ऐसे लेख सामने आ चुके हैं, जिन पर भारत विरोधी रुझान का आरोप लगता रहा है. हालांकि, इस पर NYT की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.
बता दें कि दीपू चंद्र दास एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करते थे. 19 दिसंबर को फैक्ट्री में जुमे की नमाज को लेकर चर्चा के दौरान धार्मिक बहस हुई. आरोप है कि इसी दौरान दीपू पर ईशनिंदा का आरोप लगाया गया. इसके बाद उन्मादी भीड़ ने उन्हें पीटा, पेड़ से लटका दिया और बाद में जला दिया. यह घटना इतनी क्रूर थी कि इसकी तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए.
आज का कड़वा सच यही है कि अगर दीपू चंद्र दास हिन्दू नहीं होते और इसके बाद उनकी इस तरह से नृशंस हत्या होती तो ये घटना दुनिया की सबसे बड़ी हेडलाइन बनती. संयुक्त राष्ट्र से लेकर मानव अधिकारों की संस्थाएं और पश्चिमी देश इस घटना पर चिंता व्यक्त करते और दीपू चंद्र दास को इंसाफ दिलाने के लिए मुहिम चलाई जातीं. लेकिन अफसोस की बात ये है कि दीपू चंद्र दास हिन्दू थे और हिन्दू होने की वजह से उनकी बेरहमी से हुई हत्या को भी पश्चिमी मीडिया और बहुत सारे देशों ने सामान्य मान लिया. और ये लेख भी उसी का एक उदाहरण है.
बांग्लादेश में सन्नाटा, भारत में उबाल
बांग्लादेश में करीब 1 करोड़ 30 लाख हिंदू अल्पसंख्यक रहते हैं, लेकिन दीपू दास की हत्या के बाद वहां बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिले. मयमनसिंह जिले में परिवार के समर्थन में हुए प्रदर्शन में भी 100 से कम लोग शामिल हुए. इसके उलट, भारत में दिल्ली, कोलकाता सहित कई शहरों में हजारों लोगों ने प्रदर्शन कर बांग्लादेशी हिंदुओं की सुरक्षा की मांग की. दिल्ली में बांग्लादेश उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन हुए, जबकि कोलकाता में पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा. इन घटनाओं ने दोनों देशों के बीच कूटनीतिक तनाव को भी हवा दी है.
सोशल मीडिया पर जश्न और चिंता
इस मामले का एक और चिंताजनक पहलू सोशल मीडिया है. जांच में सामने आया है कि दीपू दास की हत्या के वीडियो पर भारत और बांग्लादेश दोनों जगहों से नफरत भरे और जश्न मनाने वाले कमेंट्स किए गए. हालांकि, यह भी आशंका जताई जा रही है कि इनमें से कई अकाउंट फर्जी या भड़काऊ मकसद से बनाए गए हो सकते हैं. बांग्लादेश में बहुत सारे लोग सोशल मीडिया पर इसका जश्न मना रहे हैं. इनमें बड़े-बड़े मुस्लिम धर्मगुरु और नेता भी शामिल हैं. ऐसे ही एक नेता का नाम है जुबायर अहमद तसरीफ, जो फरवरी में होने वाले संसदीय चुनावों में हिस्सा लेने वाला है. लेकिन दीपू चंद्र दास की हत्या पर ये व्यक्ति कहता है कि मॉब लिंचिंग करने वालों ने बांग्लादेश के लोगों को खुशियों से भर दिया है.
सोचिए जिस देश के लोग खुल्लम-खुल्ला दीपू चंद्र दास की हत्या की खुशियां मना रहे हैं, वो देश आखिर उन्हें इंसाफ कैसे दिलाएगा. दुनिया के ज़्यादातर देशों में अल्पसंख्यक वर्ग विशेष रूप से एकजुट रहता है और ऐसी घटनाओं पर वहां लाखों लोग सड़कों पर उतर आते हैं लेकिन बांग्लादेश में अब तक ऐसा नहीं हुआ है.
आंकड़े क्या कहते हैं?
आज जिस तरह बांग्लादेश में 23 प्रतिशत हिन्दू घटकर सिर्फ 8 प्रतिशत रह गए हैं, ठीक उसी तरह भविष्य यही हिन्दू धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म हो जाएंगे. इस स्थिति पर हमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का वो बयान याद आ रहा है, जो उन्होंने पिछले साल 26 अगस्त को दिया था. उस वक्त भी तख्तापलट के बाद बांग्लादेश में हिन्दुओं के खिलाफ हिंसक घटनाएं हो रही थीं. और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन घटनाओं को 'बंटेंगे तो कटेंगे' के नारे से जोड़ा था और ये कहा था कि अगर हिन्दू एकजुट नहीं हुए तो उन्हें इसी तरह से निशाना बनाया जाएगा और आज भी यही हो रहा है.
आज बांग्लादेश में जो हिन्दू रहते हैं, वो 1947 से पहले भारत के ही हिन्दू थे लेकिन बंटवारे की त्रासदी ने इन हिन्दुओं को बांग्लादेश में अल्पसंख्यक बना दिया. आज स्थिति ये हो चुकी है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं की जान की कीमत समझने वाला कोई नहीं है.
इस पर राजनीति भी गरमाई
भारत में इस मुद्दे पर सियासत भी तेज हो गई है. कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने बयान दिया कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ कथित कार्रवाई का रिएक्शन बांग्लादेश में दिख रहा है. इस बयान पर बीजेपी ने कड़ा पलटवार किया और इसे तुष्टिकरण की राजनीति करार दिया. बीजेपी नेताओं ने सवाल उठाया कि फिलिस्तीन के मुद्दे पर मुखर रहने वाले विपक्षी नेता बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों पर चुप क्यों हैं.