ताइवान के राष्ट्रपति लाई चिंग-ते ने वॉशिंगटन पोस्ट के एक आर्टिकल में कहा कि ताइवान अपनी रक्षा के अपने पक्के इरादे को दिखाने के लिए 40 बिलियन डॉलर का सप्लीमेंट्री डिफेंस बजट पेश करेगा, जिसमें अमेरिका से 'बड़े' नए हथियार खरीदने का प्लान है.
यह कदम ऐसे वक्त में उठाया गया है, जब चीन ने पिछले पांच सालों में अपने दावों को साबित करने के लिए मिलिट्री और पॉलिटिकल दबाव बढ़ा दिया है, जिसे ताइपे पूरी तरह से खारिज करता है. दरअसल, चीन डेमोक्रेटिक तरीके से चलने वाले ताइवान को अपना इलाका मानता है.
लेकिन ताइवान को वॉशिंगटन से अपने डिफेंस पर ज़्यादा खर्च करने की मांग का भी सामना करना पड़ रहा है, जो यूरोप पर यूनाइटेड स्टेट्स के दबाव जैसा है. अगस्त में, लाई ने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि 2030 तक डिफेंस पर खर्च ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट के 5% तक पहुंच जाएगा.
क्या असर होगा?
लाई चिंग-ते ने वॉशिंगटन पोस्ट के एक आर्टिकल में लिखा, "यह लैंडमार्क पैकेज न सिर्फ यूनाइटेड स्टेट्स से बड़े नए हथियार खरीदने के लिए फंड देगा, बल्कि ताइवान की अलग-अलग क्षमताओं को भी काफी बढ़ाएगा."
उन्होंने आगे कहा, "ऐसा करके, हमारा मकसद बीजिंग के फोर्स के इस्तेमाल पर फैसले लेने में ज़्यादा लागत और अनिश्चितता डालकर रोकथाम को मजबूत करना है."
चीन-ताइवान में विवाद क्यों?
चीन और ताइवान के बीच एक मुश्किल और झगड़े वाला रिश्ता है, जिसकी जड़ें चीनी सिविल वॉर के बाद के हालात में हैं, जो 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना (CPC) से नेशनलिस्ट सरकार की हार के साथ खत्म हुआ था. जनरलिसिमो चियांग काई-शेक की लीडरशिप वाली नेशनलिस्ट सरकार ताइवान भाग गई, जहां उसने राज करना जारी रखा और रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (ROC) बनाया. दूसरी ओर, CPC ने मेनलैंड पर पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) बनाया.
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तब से, PRC और ROC के पॉलिटिकल सिस्टम बिल्कुल अलग रहे हैं और इकोनॉमिक डेवलपमेंट के मामले में उन्होंने बहुत अलग रास्ते अपनाए हैं. PRC एक बड़ी वर्ल्ड पावर बन गया है, जिसमें कम्युनिस्ट वन-पार्टी सिस्टम और तेज़ी से बढ़ती इकॉनमी है. दूसरी तरफ, ताइवान एक डेमोक्रेटिक, फ्री-मार्केट सोसाइटी बन गया है.
हाल के सालों में, चीन और ताइवान के बीच तनाव फिर से बढ़ गया है, क्योंकि बीजिंग ने आइलैंड पर अपनी सॉवरेनिटी दिखाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं. इसमें ताइवान स्ट्रेट में मिलिट्री एक्टिविटी में बढ़ोतरी, ताइवान को डिप्लोमैटिक रूप से अलग-थलग करने की कोशिशें और ताइवान के बिज़नेस पर आर्थिक दबाव शामिल है.