पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के चंद्रकोणा कस्बे की एक छोटी सी गली... चाय की केतली, मिट्टी की खुशबू और पिता के माथे का पसीना ... इन सबके बीच एक ऐसा वाकया सामने आया, जो सुनने वाले हर दिल को छू गया. यह कहानी है बच्छू चौधरी की, एक साधारण चायवाले पिता की, जिसने अपनी बेटी के सपने को सच करने के लिए चार साल तक हर दिन 10-10 रुपये के सिक्के बचाए.
बच्छू चौधरी की छोटी सी चाय की दुकान गांव के चौक पर है. सुबह से शाम तक उबलती चाय, बिस्किट की खुशबू और ग्राहकों की आवाजाही में ही उनका दिन निकलता है. इसी दुकान पर एक दिन उनकी बेटी ने मासूमियत से कहा था- पापा, स्कूटी चाहिए मुझे.
बच्छू मुस्कुराए तो जरूर, लेकिन अंदर कुछ कसक-सी उठी. जेब में सिक्के झनके, पर वो ख्वाब दूर दिखाई दिया. चाय की कमाई मुश्किल से घर चलाने भर की थी. लेकिन उसी शाम उन्होंने अपनी दुकान में एक खाली ड्रम रखा... और मन ही मन ठान लिया कि एक दिन ये ड्रम बेटी की मुस्कान से भर जाएगा.

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हर दिन जब ग्राहक चाय पीकर सिक्का छोड़ता, बच्छू उनमें से 10 रुपये निकालकर उस ड्रम में डाल देते. शुरुआत में लोगों को ये अजीब लगा. अरे बच्छू, ये क्या कर रहे हो? वो मुस्कुराकर कहते, बेटी का सपना है, एक-एक सिक्के से पूरा करूंगा.
चार साल तक ड्रम वहीं रहा. मौसम बदले, दुकान के रंग बदले, पर बच्छू की आदत नहीं बदली. कभी दिन अच्छा रहा तो दो सिक्के डाले, कभी मुश्किल आई तो भी एक सिक्का जरूर. ड्रम धीरे-धीरे भारी होता गया, और पिता का दिल उम्मीद से भरता गया.

आखिर वो दिन आया, बच्छू चौधरी ने दुकान बंद की, बेटी को साथ लेकर रिक्शे में सिस्कों से भरा ड्रम रखकर चंद्रकोणा टाउन के गोसाई बाज़ार स्थित स्कूटी शोरूम पहुंच गए. शोरूम में लोग हैरान, इसमें क्या है? बच्छू ने मुस्कुराकर कहा कि बेटी के सपने का खजाना. जब डिब्बा खोला गया, तो सिक्कों की आवाज ने पूरा शोरूम गूंजा दिया. शोरूम के कर्मचारी अरिंदम ने बताया कि ड्रम इतना भारी था कि आठ लोगों की मदद से उसे खोला गया. फिर सिक्के फर्श पर फैलाए गए और गिनती शुरू हुई.
करीब दो घंटे 25 मिनट तक चलती रही वो गिनती. ड्रम में थे 69,000 के सिक्के और बाकी नोट, कुल मिलाकर 1,10,000 रुपये. जब आखिरी सिक्का गिना गया, तो शोरूम में मौजूद हर शख्स भावुक हो गया. बच्छू ने अपनी बेटी की ओर देखा, उसकी आंखों में चमक थी, और उनके चेहरे पर सुकून.

'मैं अमीर नहीं, लेकिन बेटी को निराश नहीं कर सकता'
स्कूटी की चाबी हाथ में लेकर बच्छू ने कहा- मैं अमीर नहीं हूं, लेकिन अपनी बेटी का सपना अधूरा नहीं छोड़ सकता था. चार साल की मेहनत, धूप-बारिश में उबलती चाय, हर सिक्के में छिपा प्यार... सबने मिलकर वो दिन रचा था, जब एक पिता ने अपने प्यार को पहियों पर दौड़ते देखा. शोरूम के कर्मचारी बोले -हमने कई गाड़ियां बिकते देखी हैं, लेकिन इतना खूबसूरत पल कभी नहीं देखा.
बेटी ने पिता की ओर देखा और मुस्कुरा दी, बच्छू के चेहरे पर भी मुस्कान थी, सुकून था. क्योंकि उस दिन उन्होंने सिर्फ स्कूटी नहीं खरीदी थी- उन्होंने अपनी बेटी की आंखों में भरोसा देखा, उसके सपनों में उड़ान दी थी, और दुनिया को दिखा दिया था कि सिक्कों से भी सपने खरीदे जा सकते हैं. मौलागांव की वो छोटी-सी दुकान आज भी वहीं है- बस अब ड्रम खाली है, पर लोगों का दिल भरा हुआ है.