डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Dr Rajendra Prasad) भारतीय इतिहास की उन महान विभूतियों में से एक हैं जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई, बल्कि स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बनकर देश की लोकतांत्रिक नींव को मजबूती दी. उनकी सादगी, निष्ठा और राष्ट्रभक्ति आज भी देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है.
राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में हुआ था. एक साधारण कायस्थ परिवार में जन्मे राजेंद्र बाबू ने प्रारंभ से ही शिक्षा में अद्वितीय प्रतिभा दिखाई. पटना कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने चले गए और वकालत में गोल्ड मेडल हासिल किया.
राजेंद्र प्रसाद का विवाह मात्र 12 वर्ष की आयु में राजवंशी देवी से हुआ था, जो एक पारंपरिक गृहिणी थीं. वे शांत और सरल स्वभाव की थीं, और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने भी कठिनाइयों को सहन किया.
महात्मा गांधी के आह्वान पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. उन्होंने नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई बार अध्यक्ष भी बने और स्वतंत्रता के लिए अनेक बार जेल गए.
जब भारत को स्वतंत्रता मिली और संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. उन्होंने इस भूमिका को पूरी निष्पक्षता और गंभीरता से निभाया. 26 जनवरी 1950 को जब भारत गणराज्य बना, तब उन्हें सर्वसम्मति से देश का पहला राष्ट्रपति चुना गया.
डॉ. प्रसाद दो कार्यकाल (1950–1962) तक राष्ट्रपति रहे और आज तक वे सबसे लंबे समय तक राष्ट्रपति पद पर रहने वाले व्यक्ति हैं. उन्होंने राष्ट्रपति पद को केवल औपचारिक पद नहीं माना, बल्कि नैतिकता, आदर्श और संवैधानिक मर्यादाओं का प्रतीक बनाया.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद एक अत्यंत विनम्र, सादे जीवन के अनुयायी और आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत व्यक्ति थे. राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे सादा जीवन जीते रहे और कभी भी अपने पद का दुरुपयोग नहीं किया. वे देश सेवा को अपना सर्वोच्च धर्म मानते थे.
1962 में सेवा निवृत्त होने के बाद भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद का निधन 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में दिल का दौरा पड़ने से हुआ था. वे उस समय 78 वर्ष के थे.
साल 1870 के दशक में ब्रिटिश हुकूमत ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाना अनिवार्य कर दिया था, जिससे भारतीय अधिकारी बंकिम चंद्र चटर्जी क्षुब्ध हुए. उन्होंने रेल यात्रा के दौरान ‘वंदे मातरम्’ गीत लिखा, जो मातृभूमि की स्तुति और क्रांति का प्रतीक बना.