scorecardresearch
 

संघ के 100 साल: ना तस्वीर, ना समाधि... गोलवलकर भी जिनके सामने खुद को कहते थे 'नकली' सरसंघचालक

कहानी ऐसी है कि एक बार गुरु गोलवलकर कहीं तांगे से जा रहे थे, और आगे पैदल कुछ स्वयंसेवकों के साथ बालासाहब देवरस जा रहे थे, अपने साथ बैठे स्वयंसेवक से तब गुरु गोलवलकर ने कहा था कि “असली सरसंघचालक पैदल जा रहे हैं और नकली तांगे पर जा रहे हैं”. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.

Advertisement
X
देवरस कहते थे कि छुआछूत को लेकर दलित नेताओं की नाराजगी सही है. (Photo: AI generated)
देवरस कहते थे कि छुआछूत को लेकर दलित नेताओं की नाराजगी सही है. (Photo: AI generated)

गृहमंत्री अमित शाह ने गुरुवार 10 दिसंबर को बालासाहब देवरस की जयंती पर उनके लिए एक्स पर पोस्ट की तो बालासाहब का वो ऐतिहासिक बयान लिखा, जिसने संघ के खिलाफ दलितों को लेकर लगने वाले आरोपों को हमेशा के लिए खारिज कर दिया. बालासाहब देवरस ने 8 मई 1974 को पुणे की प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में ‘सामाजिक समरसता एवं हिंदू एकीकरण’ विषय पर कहा था कि, “अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है.” ऐसा नहीं है कि उनसे पहले के सरसंघचालकों ने इस विषय पर कुछ कहा नहीं लेकिन जिस तरह से दलितों के विषयों को प्रमुखता से बालासाहब ने रखा और देश भर में जो संदेश गया, वैसा जरूर पहले नहीं हुआ था.
 
“दलित नेताओं की नाराजगी बिल्कुल सही है’

देवरस के बयान के बाद संघ की प्रतिनिधि सभा में भी आरक्षण को लेकर प्रस्ताव आया. इस मौके पर बालासाहब ने कहा था, “दलित नेताओं की भाषा आक्षेपपूर्ण है, यह सही है, किंतु हम सभी लोग यदि दलित समाज के सदस्य होते, अनेक वर्षों तक सामाजिक अत्याचार, विषमता, अन्याय, असहनीय वेदना, दुख, अपमान आदि सहना पड़ता तो हम किस भाषा में बोलते, इस पर विचार कर प्रस्ताव का निर्णय करो” और प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ. उनका अपना घर नागपुर में पिछड़े दलित परिवारों से घिरा हुआ था. शाखा में उन सबको जोड़ना, उनको घर पर लाकर साथ भोजन करना, उस दौर में आसान नहीं था. बाद में सामाजिक समरसता दिवस और सेवा भारती जैसे संगठन के जरिए उन्होंने दलितों के उद्धार के लिए जो काम किए, वो एक लेख क्या एक किताब में भी सहेजने असम्भव हैं.
 
“मैं डॉक्टर साहब और गुरुजी के समकक्ष नहीं”

Advertisement

बाला साहब हमेशा से पहले दोनों सरसंघचालकों को बहुत ज्यादा सम्मान देते आए थे और खुद को एक सामान्य व्यक्ति मानकर ही उनसे वैसा ही व्यवहार करने को कहा करते थे. तभी कई स्थापित परम्पराओं के लिए वो मना करते थे. जैसे संघ के कार्यक्रमों में मां भारती के चित्र के साथ दोनों सरसंघचालकों के चित्र रखे जाते थे. उन्होंने सबको कह दिया कि वो दोनों ही इतने योग्य और सम्मानीय थे कि उनके चित्र रखे जाएं. मेरे बाद मेरा चित्र ना रखा जाए, बल्कि इन दोनों के ही चित्र रखे जाने चाहिए. तब से ये परम्परा बन गई और आज तक डॉ हेडगेवार और गुरु गोलवलकर के ही चित्र संघ के कार्यक्रमों में रखे जाते हैं.

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

इसी तरह उन्होंने पहले ही मना कर दिया था कि जिस तरह रेशमी बाग संघ मुख्यालय नागुपर में डॉ हेडगेवार की समाधि और गुरु गोलवलकर की स्मृति बनाई गई है, मेरे साथ ऐसा ना किया जाए, बल्कि आम व्यक्ति की तरह एक श्मसान में ही अंतिम संस्कार किया जाए. ऐसा ही किया भी गया गया. बालासाहब देवरस ने कारंजा (बालाघाट) की अपनी पैतृक संपत्ति को बेचकर उससे प्राप्त धनराशि से नागपुर-वर्धा मार्ग पर स्थित खापरी में 20 एकड़ भूमि खरीदी थी. 1970 में उन्होंने इस 20 एकड़ कृषि भूमि को भारतीय उत्कर्ष मंडल को दान कर दिया. यहां ग्रामीण बालक-बालिकाओं के लिए भारतीय उत्कर्ष मंदिर (विद्यालय), गोशाला और स्वामी विवेकानन्द मेडिकल मिशन नामक अस्पताल ग्रामवासियों के लिए चल रहे हैं. बालासाहब की प्रेरणा से ही ‘भारतीय उत्कर्ष ट्रस्ट’ की स्थापना की गई. उनसे जुड़ी कई स्मृतियां यहीं सुरक्षित हैं.
 
गुरु गोलवलकर उनमें देखते थे डॉ हेडगेवार का रूप

Advertisement

गुरु गोलवलकर मानते थे कि बाला साहब उतनी ही गंभीरता से संघ के काम में जुटे रहते हैं, जितने डॉ हेडगेवार. कहीं ना कहीं गुरु गोलवलकर को अहसास था कि हेडगेवार ने उनके उत्तराधिकारी के तौर पर ही बाला साहब देवरस को तैयार किया है. तभी वो सभी वरिष्ठ अधिकारियों के साथ हास्य विनोद कर लेते थे, लेकिन देवरस के साथ नहीं करते थे. 1930 में जब देवरस ने संघ शिक्षा वर्ग का तीसरा साल भी पूरा कर लिया तो उनको नई जिम्मेदारी मिली, मोहिते वाड़ा की शाखा के अलावा नागपुर की इतवारी शाखा शुरू करवाई.
 
बाला साहब देवरस शुरू से ही संगठन की बारीकियों को समझ रहे थे. गुरु गोलवलकर शुरुआत में बाहरी समझे जाते थे, वो संघ की स्थापना के समय से नहीं जुड़े थे. ऐसे में गुरु गोलवलकर ने तय किया कि जैसे देवरस को पहले कलकत्ता भेजा गया था, अब प्रचारक के तौर पर कही नहीं भेजा जाएगा, बल्कि वो नागपुर में रहकर ही सारा कार्य संभालेंगे. आप उनकी महत्ता 1943 के पुणे अधिवेशन में दिए गए गुरु गोलवलकर के बयान से ही समझ सकते हैं, वर्ग में आए स्वयंसेवकों को बाला साहब से परिचय करवाते वक्त गुरु गोलवलकर ने कहा था कि, “आपमें से अनेक स्वयंसेवकों ने डॉ हेडगेवारजी को नहीं देखा होगा, श्री बाला साहब देवरस को देखो, तो आपको डॉ हेडगेवारजी दिखेंगे”.

Advertisement

 ‘नकली सरसंघचालक तांगे पर जा रहे हैं’

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एक घटना का उल्लेख किया था कि एक बार गुरु गोलवलकर कहीं तांगे से जा रहे थे, और आगे पैदल कुछ स्वयंसेवकों के साथ बालासाहब देवरस जा रहे थे, अपने साथ बैठे स्वयंसेवक से तब गुरु गोलवलकर ने कहा था कि “असली सरसंघचालक पैदल जा रहे हैं और नकली तांगे पर जा रहे हैं”.  गोलवलकर कहा करते थे कि संघ में दो सरसंघचालक नियुक्ति का प्रावधान नहीं है वरना बालासाहब भी होते. तभी तो जब गुरुजी हस्ताक्षर करने के लिए उपलब्ध नहीं होते थे तो उनसे भी वरिष्ठ स्वयंसेवक होने के बावजूद बाला साहब को करने को कहा गया था. उसी तरह गुरु गोलवलकर भी उन पर आंख मूंदकर विश्वास करते थे, जब जेल में बंद गुरु गोलवलकर को देवरस ने संघ का संविधान तैयार कर भेजा था, तो बिना पढ़े ही गोलवलकर ने उस पर हस्ताक्षर कर दिया था. एक बार खुद गुरु गोलवलकर ने बालसाहब देवरस का परिचय एक वर्ग में स्वयंसेवकों से ऐसे ही करवाया था कि ‘जिनकी वजह से मुझे सरसंघचालक के तौर पर पहचाना जाता है’.

गुरु गोलवलकर का बालासाहब देवरस कितना सम्मान करते थे, इसका जिक्र उनके निजी सचिव बाबूराव चौथाई वाले ने एक घटना में किया है. दरअसल गुरु गोलवलकर बीमार थे, और उनके देहावसान से 15 दिन पहले अचानक अपने गांव में बाला साहब फूड प्वॉइजनिंग की वजह से बेहोश होकर गिर गए. जब उनके देहावसान के बाद बाला साहब को पता चला कि उनका नाम अंतिम पत्र में गुरु गोलवलकर ने सरसंघचालक के लिए लिखा है तो उनका पहला ही सवाल था कि “मेरे स्वास्थ्य के बारे में गुरुजी को जानकारी थी ना?” यूं वो पत्र सबके लिए बाला साहब भिड़े ने पढ़ा था, लेकिन बाद में जब खुद उन्होंने पढ़ा था तो पढ़ते पढ़ते वो काफी भावुक हो गए थे. सरसंघचालक बनने के बाद रेशमी बाग पर अपने पहले सार्वजनिक भाषण में बालासाहब ने कहा था कि, “पूज्य डॉक्टरजी और श्रीगुरुजी जैसे मेरी गुणवत्ता ना होते हुए भी संघ के पास देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं का समूह होने के कारण मैं अपने कार्य में सफल होऊंगा”.  

Advertisement

पिछली कहानी: नेहरू की वो चिट्ठियां जिनमें झलकता है पूर्व प्रधानमंत्री का RSS को लेकर नजरिया 

---- समाप्त ----
Live TV

  • क्या आरएसएस का हिंदुत्व का विचार आधुनिक भारत के लिए प्रासंगिक है?

Advertisement
Advertisement