भारत का पूर्वी राज्य बिहार ऐतिहासिक होने के साथ-साथ धार्मिक रूप से भी बहुत संपन्न राज्य है. इस राज्य में स्थित कई मंदिरों का लिखित इतिहास हजारों साल पुराना है और उनका वर्णन अलग-अलग पुराणों में उसी नाम से मिलता है, जिस नाम से वे आज भी जाने जाते हैं. बिहार में अलग-अलग काल में बने कई देवी मंदिरों में आज भी पूजा हो रही है और वह अपने रहस्यमय इतिहास के लिए प्रसिद्ध हैं. ऐसा ही एक मंदिर है मुंडेश्वरी देवी धाम.
बिहार के कैमूर जिले में स्थित है महामाई मुंडेश्वरी धाम. कहते हैं कि देवी मां ने युगों पहले यहीं पहाड़ी पर चण्ड-मुंड नाम के दो राक्षसों का वध किया था. बिहार के भभुआ जिला केंद्र से 14 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है कैमूर की पहाड़ी. 650 फीट की ऊंचाई वाली इस पहाड़ी पर माता मुंडेश्वरी एवं महामण्डलेश्वर महादेव का एक प्राचीन मंदिर है.
श्रीदुर्गा सप्तशती में आता है जिक्र
इस बारे में दुर्गासप्तशती में भी कथा आती है. कहते हैं कि चंड-मुंड के नाश के लिए जब देवी उद्यत हुई थीं तो चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने उसका वध किया था. इसीलिए यहां देवी मुंडेश्वरी माता के नाम से स्थानीय लोगों में जानी जाती हैं. मुंडेश्वरी मंदिर की प्राचीनता का महत्व इस दृष्टि से और भी अधिक है कि यहां पर पूजा की परंपरा 1900 सालों से लगातार चली आ रही है और जो आज भी जारी है.
चंड और मुंड का वध करने के कारण देवी कहा गया चामुंडा
चंड और मुंड का वध करने के कारण ही देवी को चामुंडा कहा गया है. श्रीदुर्गा सप्तशती के श्लोकों में इस प्रसंग का वर्णन है. असुरों को उत्पात मचाते देख, देवी की आंखों से क्रोधाग्नि निकली और उससे कालिका देवी प्रकट हुईं. उन्होंने रण में ऐसा संहार मचाया कि चारों ओर हाहाकार मच गया. पलभर में सारी आसुरी सेना समाप्त हो गई. यह देख चंड देवी की ओर लपका तो देवी ने एक हाथ से उसका वार रोका और दूसरे हाथ से उसकी गर्दन पर खड्ग का वार कर दिया. चंड वहीं धरती पर गिर पड़ा.
भाई को गिरता देख मुंड ने देवी पर बाणों की वर्षा कर दी. तब देवी ने उसकी ओर अपना भाला फेंका और उसे भी यमलोक पहुंचा दिया. इस तरह देवी ने चंड-मुंड का संहार कर दिया. देवी कालिका चंड-मुंड के सिरों को लेकर माता अंबा के पास पहुंची और कहा कि, इन दो दुष्टों का भी मैंने अंत कर दिया है, अब आपको ही शुंभ-निशुंभ का वध करना है. देवी ने कहा, हे कालिका, तुमने चंड-मुंड का संहार किया है, इसलिए आज से संसार तुम्हारी चामुंडा के नाम से पूजा करेगा.
कई इतिहासकारों की रही थी मंदिर में दिलचस्पी
यह मंदिर भारत का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है. मंदिर परिसर में विद्यमान शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है. 1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहां आए थे. प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकनन भी यहां आए थे. मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है. पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच का है. मुण्डेश्वरी मंदिर की नक्काशी और मूर्तियों उत्तर गुप्तकालीन की बताई जाती हैं. वहीं वास्तुकला की बात करें, तो माता मुंडेश्वरी का मंदिर श्री यंत्र के आधार पर निर्मित है. मंदिर अष्टकोणीय है, जिसके चारों दिशाओं में एक-एक द्वार है. वहीं मंदिर के पूर्वी भाग में देवी मुण्डेश्वरी की भव्य व प्राचीन मूर्ति बनी हुई है, जो पत्थर की बनी हुई है. इसी के साथ मां मुंडेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में पंचमुखी शिवलिंग भगवान गणेश की प्रतिमा भी स्थापित है.
ब्रिटिश अधिकारी ने भी किया है मंदिर का जिक्र
इस मंदिर का उल्लेख ब्रिटिश अफसर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है. उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कैमूर में मुंडेश्वरी पहाड़ी है, जहां मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है. इस मंदिर का पता तब चला, जब कुछ गडरिये पहाड़ी के ऊपर गए और मंदिर के स्वरूप को देखा. शुरुआत में पहाड़ी के नीचे निवास करने वाले लोग ही इस मंदिर में दीपक जलाते और पूजा-अर्चना करते थे. धीरे-धीरे लोगों की भी मान्यता बढ़ी.
अलेक्जेंडर कनिंघम को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग का जनक माना जाता है. उन्होंने कैमूर की पर्वत श्रृंखला में मेसोलिथिक रॉक-आर्ट के निशान खोजे थे, जिसमें मिर्जापुर में स्थित सोहागीघाट का रॉक शेल्टर भी शामिल है. ये शैल चित्र भी किसी कथात्मक वर्णन की ओर इशारा करते हैं. उन्हें पाषाण युग की प्राचीन वस्तुओं की खुदाई का श्रेय दिया जाता है और भारत के आधुनिक बनारस में 20 तांबे और 4 चांदी के छिद्रित सिक्के पाए. कनिंघम ने कई प्राचीन मंदिरों की ऐतिहासिकता और पौराणिकता की भी खोज की थी.