भारत में कई एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री हुए हैं. अब शुभमन गिल को 21वीं सदी में भारतीय क्रिकेट टीम के पहले एक्सीडेंटल कप्तान का तमगा दिया जाएगा.
गिल का जन्म नेतृत्व करने के लिए नहीं हुआ था, न ही उन्होंने अभी तक ये स्किल हासिल किए हैं. जैसे कई नेताओं को परिस्थितियों के कारण नेतृत्व करना पड़ता है, वैसे ही गिल को भी मौके का फायदा मिला है. यह एक ऐसा मामला है जिसमें गलत व्यक्ति सही समय पर सही जगह पहुंच गया, क्योंकि भारतीय क्रिकेट में इस समय सही लोग फिलहाल गलत जगह पर हैं.
लॉरेंस जे. पीटर ने कहा था कि हर व्यक्ति अपनी अयोग्यता के स्तर तक पहुंचता है. लेकिन गिल के मामले में ऐसा लगता है जैसे अयोग्यता ही उन्हें खोजने चली आई है. गिल की काबिलियत का पर्याप्त विश्लेषण हो चुका है, जो एक अधूरी प्रतिभा और उजागर कमियों को दर्शाता है.
32 टेस्ट में उनका बल्लेबाजी औसत 35.05 है, जो पिछले एक दशक में भारत के लिए टॉप आर्डर के बल्लेबाजों में सबसे कम है. विराट कोहली, चेतेश्वर पुजारा या ऋषभ पंत को तो छोड़ दें, अजिंक्य रहाणे का औसत भी उनसे बेहतर है. यहां तक कि हनुमा विहारी, जिन्होंने ज्यादातर समय 5वें या छठे नंबर पर बल्लेबाजी की, उनका औसत (33.5) भी गिल से ज्यादा है.
विदेशों में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में गिल के प्रदर्शन पर करीब से नजर डालें तो उनकी कमजोरियां उजागर होती हैं. SENA (साउथ अफ्रीका, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया) देशों में गिल ने टेस्ट क्रिकेट में कोई शतक नहीं बनाया है. उनका औसत 25.70 है, जो मनोज प्रभाकर के एवरेज 24.2 से थोड़ा ही बेहतर है. और यह उस महत्वाकांक्षी ऑलराउंडर का अपमान है जिसने ज्यादातर निचले क्रम में बल्लेबाजी की. इंग्लैंड में खेले गए तीन टेस्ट में शुभमन के स्कोर 28, 15, 1, 0, 17, 4 हैं. इन स्कोर को देखकर ज्योफ्री बॉयकॉट मजाक में कहेंगे, 'मेरी मां भी टूथपिक लेकर इससे बेहतर बल्लेबाजी कर लेतीं.'

गिल की समस्या सिर्फ उनके रिकॉर्ड तक सीमित नहीं है. मूविंग गेंद के खिलाफ उनकी कमजोरी को तेज गेंदबाजों ने लगातार भुनाया है. SENA देशों में 18 पारियों में, वे आठ बार विकेटकीपर के हाथों और पांच बार स्लिप/गली में कैच आउट हुए हैं. विशेषज्ञों ने पारी की शुरुआत में हार्ड हैंड्स से खेलने की प्रवृत्ति और आउटस्विंगर के खिलाफ उनकी कमजोरी को रेखांकित किया है. इन खामियों के कारण वो ओपनिंग करना पहले ही छोड़ चुके हैं.
कोई नहीं जानता है कि वो बल्लेबाजी क्रम में कितने नीचे जाएंगे, जब तक उन्हें अपनी सही पोजीशन नहीं मिलती. अगर उनका ऐसा प्रदर्शन किसी कॉर्पोरेट कंपनी में होता, तो उन्हें सुधार कार्यक्रम में डाल दिया जाता. लेकिन गिल पीटर के सिद्धांत को नए ढंग से जी रहे हैं. कभी-कभी आपका नाम ही आपकी नियति होती है. और गिल वाकई एक 'शुभ' व्यक्ति लगते हैं,
एक संघर्षरत कप्तान पूरी नाव को डुबो देता है. गिल पहले से ही एक बल्लेबाज के रूप में प्रदर्शन करने और टीम में अपनी जगह पक्की करने को लेकर दबाव में हैं. उन्हें एक अनुभवहीन टीम का नेतृत्व देना एक बड़ा जोखिम है. यह न केवल उन्हें, बल्कि पूरी टीम को तोड़ सकता है. पीछे मुड़कर देखें तो जसप्रीत बुमराह को कप्तान और ऋषभ पंत/केएल राहुल को उप-कप्तान बनाना बेहतर होता. लेकिन ऐसा लगता है कि बीसीसीआई गिल के आईपीएल में प्रदर्शन से शायद प्रभावित हो गया, जो अतीत में भी कई लोगों को भ्रमित कर चुका है.
एक व्यक्ति की किस्मत क्रिकेट की परिस्थितियों की त्रासदी है. दुर्भाग्यवश, भारतीय क्रिकेट एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसने गिल को सबसे आगे ला खड़ा किया है. रोहित शर्मा का फॉर्म गायब हो गया, जिसके कारण उन्हें रिटायर होना पड़ा. चयनकर्ता विराट कोहली को कप्तानी देकर समय को पीछे नहीं करना चाहते थे. ऋषभ पंत की किस्मत उस दुखद दुर्घटना के बाद खत्म हो गई प्रतीत होती है. और केएल राहुल को लंबी योजना का हिस्सा नहीं माना गया. कुल मिलाकर, सभी सही लोग गलत जगह पर हैं.

जैसा कि जॉन मेनार्ड कीन्स ने कहा था, 'लंबे समय में हम सभी मर जाते हैं.' लेकिन गिल की तरक्की से भारतीय क्रिकेट की अल्पकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं. अगर ऐसा खिलाड़ी कप्तान बना है जो न टेस्ट क्रिकेट में फॉर्म में है, न तकनीकी रूप से भरोसेमंद और न ही टीम में अपनी जगह पक्की कर पाया है, तो भारतीय क्रिकेट में कहीं न कहीं कुछ गलत जरूर है.
यह स्पष्ट है कि टेस्ट में टीम सीमित प्रतिभा के साथ बदलाव के दौर से गुजर रही है. यशस्वी जायसवाल ने ऑस्ट्रेलिया में अच्छा प्रदर्शन किया. केएल राहुल का प्रदर्शन उतार-चढ़ाव वाला रहा, पंत कभी शानदार तो कभी औसत रहे. नीतीश कुमार रेड्डी ने निचले क्रम में कुछ अच्छी पारियां खेलीं.
दुर्भाग्यवश, जसप्रीत बुमराह एक नाजुक किनारे पर रहते हैं- हम नहीं जानते कि कौन सा तिनका संतुलन बिगाड़ देगा. इन पांचों के अलावा, इंग्लैंड दौरे के दस्ते में शुभमन गिल समेत अधिकांश खिलाड़ी किस्मत के कारण वहां हैं. यदि सीनियर्स रिटायर न हुए होते या कुछ अन्य खिलाड़ी फिट होते, तो टीम का आधा हिस्सा शायद घर बैठा होता.
गिल का प्रमोशन एक अलग-थलग निर्णय नहीं है, यह गौतम गंभीर के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट में व्यापक बदलावों को दर्शाता है. अश्विन ने ऑस्ट्रेलिया सीरीज के बीच में रिटायरमेंट लिया. रोहित शर्मा और विराट ने तब टेस्ट क्रिकेट छोड़ दिया, जब वो शायद खेलना चाहते थे. कोचिंग स्टाफ के वरिष्ठ सदस्यों को भी अचानक हटा दिया गया. टी20 में हार्दिक पंड्या को किनारे कर दिया गया है, जो कभी भारत के भविष्य के कप्तान माने जाते थे.
गौतम गंभीर में ऐसा क्या है जिसने पिछले छह महीनों टीम में उथल-पुथल मचा दी है? क्या वह ऐसी टीम बना रहे हैं जो उनके अनुरूप है या वाकई भारत की सबसे अच्छी टीम चुन रहे हैं?
गिल का अप्रत्याशित उत्थान भारतीय क्रिकेट में उन पलों की याद दिलाती है जब अनचाहे लीडर अचानक आगे आ गए थे. 80 के दशक के अंत में जब सुनील गावस्कर ने संन्यास लिया, तो कप्तानी बार-बार बदली. 90 के दशक की शुरुआत में यह जिम्मेदारी कृष्णमाचारी श्रीकांत को मिली. शायद पिछली सदी के आखिरी एक्सीडेंटल कप्तान.
उसके बाद के 10 साल भारतीय क्रिकेट के लिए मुश्किलों भरे रहे- एवरेज प्लेयर्स, टीम के झगड़ों और मैच फिक्सिंग जैसे विवाद. वह युग सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ के उभरने से खत्म हुआ और देश को एक एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री (एच. डी. देवगौड़ा) भी मिला. अगर गिल ने उम्मीदों को तोड़ा नहीं बल्कि पूरा किया, तो शायद वो सबको गलत साबित कर सकते हैं. नहीं तो उनकी कप्तानी कृष्णमाचारी श्रीकांत की तरह भारत के संक्रमणकालीन संघर्षों को और लंबा खींच सकती है.
(संदीपन शर्मा हमारे गेस्ट ऑथर हैं, जो क्रिकेट, सिनेमा, संगीत और राजनीति पर लिखना पसंद करते हैं. उनका मानना है कि ये सभी आपस में जुड़े हुए हैं.)