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राहुल गांधी को रायबरेली के लोगों की फिक्र बढ़ी है या यूपी में कांग्रेस की चिंता?

राहुल गांधी को रायबरेली और अमेठी की अहमियत अब ज्यादा समझ में आ रही है. लेकिन, विधानसभा स्तर पर संगठन मजबूत करना अभी बड़ी चुनौती बनी हुई है. समाजवादी पार्टी की मदद से यूपी की राजनीति में बने रहने की कोशिश रखनी होगी, वरना बीजेपी पलटवार के लिए तैयार बैठी है.

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राहुल गांधी 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद से रायबरेली के छठवें दौरे पर हैं. (Photo: PTI)
राहुल गांधी 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद से रायबरेली के छठवें दौरे पर हैं. (Photo: PTI)

राहुल गांधी ने अमेठी की हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ दिया था, लेकिन रायबरेली की जीत के बाद वो लोकसभा में विपक्ष के नेता बन गए. मौके तो ऐसे पहले भी आए थे, लेकिन कभी मल्लिकार्जुन खड़गे तो कभी अधीर रंजन चौधरी को आजमाते रहे. 

हार कोई भी हो, कैसी भी हो, हकीकत का आईना होती है. अमेठी ने गांधी परिवार के सामने साफ कर दिया है, कोई मुगालते में न रहे. निष्ठा एकतरफा होने पर ज्यादा दिन नहीं चलती. सत्ता की राजनीति में तो बिल्कुल भी नहीं. लोग किसी को नेता तभी तक मानते हैं, जब तक उम्मीदें कायम होती हैं. वरना, अर्श उठाकर से फर्श पर फेंकते देर भी नहीं लगती. 

महज दो चुनावों ने रायबरेली और अमेठी की अहमियत बढ़ा दी है. 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव ने. विरासत को संभालना, गंवा देना और फिर से हासिल कर लेना - ये चक्र बहुत महत्वपूर्ण होता है. रायबरेली के साथ साथ अमेठी में भी बाउंसबैक बहुत मुश्किल काम था, जिसे राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव की मदद से प्राप्त किया है - जाहिर है, अब जिम्मेदारी और बढ़ गई है. हर हाल में दबदबा कायम रखने की जिम्मेदारी आसान तो कतई नहीं होती. 

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आम चुनाव में तो बहुत देर है, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव 2027 में ही होना है. न तो रायबरेली, न ही अमेठी में कांग्रेस का कोई विधायक है. स्पष्ट है कांग्रेस के गढ़ को बचाए रखने के लिए विधानसभाओं में भी पैठ बनानी ही होगी, वरना कब पासा पलट जाए कौन जानता है? बीजेपी भी हाथ पर हाथ धरे तो बैठी नहीं रहने वाली है. 

रायबरेली में राहुल गांधी का विरोध

राहुल गांधी रायबरेली के छठे दौरे पर पहुंचे हैं. बीते 29 से 30 अप्रैल को 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद पांचवीं बार रायबरेली गए थे. बूथ लेवल कार्यकर्ताओं से मुलाकात के साथ साथ राहुल गांधी का लखनऊ से रायबरेली के रास्ते में बछरावां के हनुमान मंदिर में दर्शन का भी कार्यक्रम था. वोटर अधिकार यात्रा के दौरान भी रास्ते में राहुल गांधी का दर्शन पूजन का कार्यक्रम चल रहा था. 

लेकिन, राहुल गांधी का काफिला चुरुवा हनुमान मंदिर पर नहीं रुका, बल्कि सीधे बछरावां की तरफ बढ़ गया. राहुल गांधी के काफिले को रास्ते में विरोध भी फेस करना पड़ा. असल में, यूपी की बीजेपी सरकार में मंत्री दिनेश प्रताप सिंह अपने समर्थकों के साथ राहुल गांधी के रास्ते में धरने पर बैठ गए. और, राहुल वापस जाओ के नारे लगाए जाने लगे. विरोध प्रदर्शन के चलते राहुल गांधी का काफिला करीब एक किलोमीटर पहले ही रोक दिया गया था. 

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विरोध प्रदर्शन के दौरान करीब पांच मिनट तक राहुल गांधी का काफिला रुका रहा. बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ पुलिस की धक्कामुक्की भी हुई, लेकिन बाद में पुलिस ने दिनेश प्रताप को समझा बुझाकर हाईवे पर धरने से उठा दिया, और राहुल गांधी आगे जा सके. 

दिनेश प्रताप सिंह पहले कांग्रेस में ही हुआ करते थे, और लंबे समय तक गांधी परिवार के करीबी कर्ताधर्ता रहे. 2019 में, दिनेश प्रताप सिंह रायबरेली लोकसभा सीट पर सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके हैं. बाद में बीजेपी ने उनको विधान परिषद भेजा, और अभी वो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कैबिनेट साथी हैं. 

यूपी में फिर से खड़ा होने के लिए रायबरेली-अमेठी में प्रभाव जरूरी

रायबरेली में राहुल गांधी की जीत और अमेठी में कांग्रेस की वापसी में समाजवादी पार्टी का भी बड़ा योगदान है. रास्ते में राहुल गांधी ने अपनी गाड़ी रोककर लोगों से मुलाकात की, मिलने वालों मे समाजवादी पार्टी के नेता भी उत्साहित दिखे. हरचंदपुर के समाजवादी पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष ने राहुल गांधी से अपने कार्यकर्ताओं से भी मिलाया. ये कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के कायम रिश्ते का सबूत ही समझा जा सकता है. 

राहुल गांधी के रायबरेली पहुंचने के पहले से ही इलाके में एक पोस्टर की चर्चा रही. ये पोस्टर लोहिया वाहिनी के प्रदेश सचिव राहुल निर्मल बागी की तरफ से लगाया गया था. पोस्टर में राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में दिखाया गया है. पोस्टर को लेकर निर्मल बागी का तर्क है, जिस तरह राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव दबे कुचले लोगों की आवाज बनकर उभरे हैं, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों की लड़ाई लड़ रहे हैं, वोट चोरी का विरोध कर रहे हैं... निश्चित तौर पर वे कलयुग में ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अवतार हैं - भले ही ये कितनी भी सतही बात क्यों न हो, लेकिन ये वाकया कांग्रेस को यूपी और बिहार में मिल रहे समाजवादी पार्टी और आरजेडी के सपोर्ट का संकेत तो दे ही रहा है. 

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अमेठी की लड़ाई अभी बाकी है

2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही बीजेपी की उन लोकसभा सीटों पर नजर लगी हुई थी, जिन्हें कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है. एक एक करके ऐसी तीन सीटें बीजेपी ने झटक भी ली थी, लेकिन 2024 के आम चुनाव में गंवाना भी पड़ा. 2019 में अमेठी, 2022 के उपचुनावों में आजमगढ़ और रामपुर में बीजेपी भगवा फहराने में सफल हो गई थी, लेकिन 2024 में खेल खराब हो गया. अमेठी की राहुल गांधी की सीट कांग्रेस के हाथ से 2019 में फिसल कर बीजेपी की स्मृति ईरानी के पास पहुंच गई थी. वैसे ही विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए अखिलेश यादव ने जब आजमगढ़ छोड़ा तो बीजेपी के निरहुआ यानी दिनेश लाल यादव बाजी मार लिए. आजम खां की रामपुर सीट पर भी घनश्याम सिंह लोधी के जरिए बीजेपी ने कमल खिला तो लिया, लेकिन अगले ही चुनाव में मुरझा भी गया. 

कांग्रेस ने अमेठी क्यों गंवाई, और यही सवाल अब बीजेपी के सामने भी है. बीजेपी ने पा लिया था, लेकिन गंवाना भी पड़ा है. मानकर चलना होगा, आगे और भी जोरदार टक्कर हो सकती है. अब अगर कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी में दबदबा कायम रखना है तो समाजवादी पार्टी का साथ बनाए रखना होगा. 

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रायबरेली की 5 विधानसभा सीटों में से 4 समाजवादी पार्टी के पास है. एक सीट बीजेपी के पास है जहां से अदिति सिंह विधायक हैं. और, अमेठी की पांच विधानसभा सीटों में से तीन बीजेपी के पास और दो समाजवादी पार्टी के पास है - कांग्रेस के अपने ही गढ़ में अपना कोई विधायक नहीं है. यूपी में भी कांग्रेस के दो ही विधायक हैं, लेकिन अगर वे रायबरेली और अमेठी में होते तो ज्यादा अच्छी बात होती.

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