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यूपी की हार से BJP ने नहीं सीखा कोई सबक, इन 4 फैक्टर्स की पार्टी में अब भी कोई चिंता नहीं!

उत्तर प्रदेश की हार से बीजेपी सबक सीखती नजर नहीं आ रही है. मोदी सरकार के नए मंत्रिमंडल को देखकर तो ऐसा ही लग रहा है. न दलित वोटों को सहेजने की चिंता नजर आती है, और न ही सवर्ण वोटों के लिए पार्टी कुछ करती नजर आ रही है.

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मोदी कैबिनेट की पहली बैठक में पहुंचे नव नियुक्ति मंत्रिगण
मोदी कैबिनेट की पहली बैठक में पहुंचे नव नियुक्ति मंत्रिगण

नरेंद्र मोदी सरकार की तीसरी पारी चुनौतीपूर्ण है. एक तरफ सरकार बचाए रखने की चुनौती है तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी को फिर से पूर्व बहुमत में लाने और राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने का यत्न करना है. पर नए मंत्रिमंडल में जिस तरह विभाग बांटे गए हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि पार्टी भविष्य के चुनावों को लेकर गंभीर नहीं है. विशेषकर उत्तर प्रदेश की हार से मिले सबक को भी ध्यान में नहीं रखा गया है. उत्तर प्रदेश में पार्टी की हार का जो सबसे बड़ा कारण सामने आया है, वह है पार्टी को दलित वोट न मिलना. यह बीजेपी के लिए आज सबसे बड़ा चिंता का कारण होना चाहिए था. पर कहीं से भी पार्टी इस बात को लेकर चिंतित नजर नहीं आ रही है. इसी तरह बीजेपी के अन्य कोर वोटर्स को लोकर भी कैजुअल अप्रोच दिखाई दे रहा है, जो आने वाले दिनों में पार्टी के लिए घातक साबित हो सकता है.

1-एसपी सिंह बघेल और कमलेश पासवान के भरोसे यूपी में दलित   

यूपी में लोकसभा चुनावों में दलित वोट किस तरह शिफ्ट हुए हैं ये सीएसडीएस के डेटा से पता चलता है. सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 92 प्रतिशत मुसलमानों और 82 प्रतिशत यादवों ने इंडिया ब्लॉक को तो वोट दिया, जबकि गैर-जाटव दलित वोटों का 56 प्रतिशत वोट भी गठबंधन ने हासिल किया. यही नहीं 25 प्रतिशत जाटव दलितों ने भी गठबंधन को वोट दिया. आइये अब इस बार मिले दलित वोटों की तुलना 2019 में मिले वोटों से करते हैं. 2019 में यूपी की 17 सुरक्षित सीटों में से 15 भाजपा को मिली थीं, लेकिन इस बार 8 सीटें ही उसकी झोली में आईं. समाजवादी पार्टी ने 7 सीटें झटक लीं जबकि आजाद समाज पार्टी और कांग्रेस को 1-1 सीट मिलीं हैं. कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि दलित वोट बीजेपी को इस बार कम मिले हैं. जिस तरह दलित वोट कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर शिफ्ट हुए हैं, बीजेपी को सचेत हो जाना चाहिए . पर नये मंत्रिमंडल के गठन को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि पार्टी पर यूपी की हार का कोई असर है. 

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2019 की सरकार में यूपी से 3 दलित चेहरे मोदी कैबिनेट की शोभा होते थे. पर इस बार केवल 2 ही चेहरे नजर आ रहे हैं. उसमें भी एसपी सिंह बघेल को दलित अपने वर्ग का मानते ही नहीं हैं. बघेल पर आरोप है कि वो एससी बनकर रिजर्व सीट पर चुनाव लड़ते हैं. इस संबंध में एक मामला कोर्ट में भी चल रहा है. दूसरे हैं गोरखुपर जिले के बांसगाव संसदीय सीट से मात्र कुछ वोटों से अपनी सांसदी बचाने वाले कमलेश पासवान. कमलेश पासवान गोरखपुर के माफिया टर्न पॉलिटिशियन ओम प्रकाश पासवान के पुत्र हैं. ओमप्रकाश पासवान की 90 के दशक में बांसगांव में ही बम फेंककर हत्या कर दी गई थी. पासवान ने उस दौर में गोरखपुर में अपनी जगह बनाई थी जिस दौर में गोरखुपर माफिया का गढ़ होता था. मायावती के साथ गेस्ट हाउस कांड में जो कुछ हुआ उसमें सपाई आरोपियों में एक नाम ओमप्रकाश पासवान का भी था. कुल मिलाकर कहना यही है कि दलितों की लड़ाई में उनका कहीं नाम नहीं रहा है. केंद्र में दलित कोटे से बने इन दोनों मंत्रियों से दलितों के बीच बीजेपी को लेकर कोई खुशी वाला फैक्टर नहीं आने वाला है.

2-जाटव वोटों के लिए कोई तैयारी नहीं दिखी

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बीएसपी सुप्रीमो मायावती जाटव जाति से आती हैं. इसलिए जाटव वोटों पर उनका एकाधिकार रहा है. पर यूपी में इस बार के चुनावों में जाटव वोटों में भी सेंध लगी है. अगर यूपी में देखें तो वर्ष 2012 में 5 प्रतिशत जाटव वोट और 11 प्रतिशत नॉन जाटव वोट भाजपा को मिले थे. इसी तरह  2022 के विधानसभा चुनाव में 21 प्रतिशत जाटव वोट और 41 प्रतिशत नॉन जाटव वोट भाजपा को मिले थे. सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार इस बार एनडीए को गैर-जाटव दलितों का केवल 29 प्रतिशत वोट मिला, जो 2019 में मिले 48 प्रतिशत से काफी कम है. भाजपा के लिए यह शोचनीय विषय हो सकता है कि जो पार्टी वर्षों से गैर-जाटव दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रही थी, इस बार उलटफेर कैसे हो गया.

हालांकि एनडीए ने जाटवों के बीच अपने वोट शेयर में सुधार किया है. 2019 में उसे जाटवों का सिर्फ 17 फीसदी वोट मिला था, जबकि 2024 में उसका वोट शेयर बढ़कर 24 फीसदी हो गया. इसका मतलब है कि अगर एनडीए थोड़ा ध्यान दे तो दलित जाटव वोटों का शेयर आगे के चुनावों में बढ़ सकता है. क्योंकि मायावती दिन प्रति दिन कमजोर हो रही हैं. उनका खास वोट जाटव शिफ्ट होगा. जाटव वोटों की लड़ाई में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जिस तरह काम कर रहे हैं ,ठीक उसके उलट बीजेपी निश्चिंत नजर आ रही है. नये मंत्रिमंडल में यूपी में एक भी जाटव मंत्री होना इसका सबूत है.

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3-सवर्ण वोट भी छिटकने के कगार पर

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में शिकस्त का एक और कारण सवर्णों के वोट का बिखरना भी रहा है. राजपूतों का तो वोट नहीं ही मिला है कई जगहों पर ब्राह्मणों का वोट भी बंटा है. कांग्रेस का अगर रिवाइवल होता है तो सवर्ण वोटों में और सेंध लगना तय है. ब्राह्रण वोटों के बिखराव को रोकने का कोई प्रयास करते नई सरकार नहीं दिख रही है. नए मंत्रिमंडल में जिस तरह उत्तर प्रदेश से जितिन प्रसाद को ब्राह्मण के नाम पर जगह दी गई है, वह निरर्थक ही है. जितिन प्रसाद का कद अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है जो वो उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों को रिप्रजेंट कर सकें. दूसरे राज्यमंत्री ही बनाया है. शायद इतिहास में कम ही हुआ होगा जब यूपी का कोई ब्राह्मण कैबिनेट मिनिस्टर नहीं रहा हो. कुर्मी और अति पिछड़ा समुदाय भी बीजेपी के कोर वोटर्स में माना जाता रहा है. समाजवादी पार्टी ने इस बार कुर्मी और अति पिछड़े वोटों को भी झटकने में सफलता पाई है. मंत्रिमंडल में कुर्मी और अति पिछड़ों का बीजेपी से कोई चेहरा नजर नहीं आता है. पार्टी इसके गठबंधन के भरोसे है. जो आने वाले चुनावों में पार्टी के लिए घातक हो सकता  है.

4-क्यों नहीं बन रही दलित-पिछड़ा समर्थक वाली छवि

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मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान एससी-एसटी एक्ट को सुप्रीम कोर्ट ने कमजोर करने की कोशिश की तो केंद्र ने दलितों के फेवर में फिर से कठोर कानून बनाया. इसी तरह प्रमोशन में आरक्षण का समर्थन भी बीजेपी सरकार ने किया. जबकि समाजवादी पार्टी ने ठीक इसके उलट किया था. फिर भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने अपनी छवि इस तरह बना ली है कि दलित वोट उनकी तरफ शिफ्ट हो रहा है. दरअसल कांग्रेस ने दलित नेता मल्लिकार्जुन खरगे को अपना अध्यक्ष बना लिया है. समाजवादी पार्टी ने दलित नेताओं को सवर्ण सीटों पर चुनाव लड़वाया और संगठन में भी वो बराबर की हैसियत में दिखते हैं जबकि बीजेपी में आज भी ये नहीं हो रहा है.

नए मंत्रिमंडल का जो चेहरा दिख रहा है उसमें बीजेपी के बारे में एक बार फिऱ ब्राह्मण बनियों की पार्टी जैसी छवि बनती दिख रही है. शपथ ग्रहण समारोह के दिन मंत्रियों की अग्रिम पंक्ति में ब्राह्मण-ठाकुर और बनिया ही नजर आ रहे हैं. पार्टी ने भले ही 10 अनुसूचित जाति के लोगों को मंत्री बना दिया हो पर उनमें से कोई भी बड़ा चेहरा नहीं है. और किसी भी दलित या अति पिछड़े को बड़ा मंत्रालय नहीं मिलना भी यही दिखा रहा है कि बीजेपी की प्राथमिकता में दलितों की हिस्सेदारी नहीं है. आगे की पंक्तियों में बैठे लोगों में शिवराज सिंह चौहान और जीतन राम मांझी ही पिछड़े और दलित चेहरे के रूप में दिख रहे थे .हालांकि शिवराज सिंह चौहान अति पिछड़े तबके में नहीं आते हैं. दूसरी बात यह है कि जीतन राम मांझी बीजेपी के नहीं हैं. इसलिए मांझी के नाम पर बीजेपी खुद को दलितों का मसीहा नहीं मान सकती है.

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