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जो कल तक ‘say no to war’ और 'de-escalate' कह रहे थे, वो आज सीज़फायर की खिल्ली उड़ा रहे हैं!

जो कल तक युद्ध का विरोध कर रहे थे आज वही लोग युद्धविराम को सरकार की कमजोरी बता रहे हैं. दरअसल इनकी सारी सोच नरेंद्र मोदी के कदमों से निर्धारित होती है. मोदी अगर इनके विचारों के आधार पर कदम बढ़ाते हैं तो ये अपने विचार ही बदल लेते हैं. जैसे मोदी अगर युद्ध को जारी रखते तो उन्हें युद्ध का प्यासा नेता करार दिया जाता.

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भारत-पाकिस्तान के सीजफायर का कौन लोग विरोध कर रहे हैं?
भारत-पाकिस्तान के सीजफायर का कौन लोग विरोध कर रहे हैं?

कल तक जो लोग भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध के विरोध के लिए  ‘say no to war’ कह रहे थे वो आज सीजफायर की खिल्ली उड़ा रहे हैं.हद तो ये हो गई है कि कुछ लोग पहले मोदी सरकार से डिमांड कर रहे थे कि पाकिस्तान को सबक सिखाने से डर क्यों रही है सरकार, वही बाद में जब युद्ध शुरू हो गया तो उसका विरोध करने लगे. भारत -पाकिस्तान के बीच सीजफायर होने के बाद  ये लोग एक बार फिर पलटी मार दिए हैं.

अब यही लोग कह रहे हैं कि सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आगे झुक गई. यह लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इरादे और जज्बे से कर रहे हैं. इनका मूल उद्देश्य यही है कि किसी भी तरह यह साबित कर सकें कि सीजफायर को स्वीकार करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक कमजोर पीएम साबित किया जा सके. इस तरह की दोहरा रवैया देखकर वास्तव में हंसी आती है कि खुद को बुद्धिजीवी समझने वाले ये लोग आखिर चाहते क्या हैं?

इनकी सारी सोच नरेंद्र मोदी के कदमों से निर्धारित होती है. नरेंद्र मोदी अगर इनके विचारों के आधार पर कदम बढ़ाते हैं तो ये अपने विचार ही बदल लेते हैं. जैसे मोदी अगर युद्ध को जारी रखते तो उन्हें युद्ध का प्यासा नेता करार दिया जाता. अब अगर मोदी ने देश को एक अंतहीन युद्ध से बचा लिया तो इसकी आलोचना हो रही है. मतलब किसी न किसी बहाने विरोध ही करना है. इन्हें न देश की चिंता है और न ही देश के लोगों की फिक्र है. 

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ऐसे ही लोग कल तक Say No to War की तख्तियां लेकर शांति का संदेश फैला रहे थे, आज जब संघर्षविराम (सीजफायर) की मांग उठती है, तो उसे मजाक बनाकर पेश कर रहे हैं. यह रवैया न केवल नैतिकता के स्तर पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि इस बात की ओर भी इशारा करता है कि क्या हमारी मान्यताएं वास्तव में स्थिर और सच्चे सिद्धांतों पर आधारित हैं, या फिर वे केवल परिस्थितियों के अनुसार बदलती हुई प्रतिक्रियाएं हैं?

Say No to War केवल एक नारा नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा है, एक दृष्टिकोण जो मानता है कि किसी भी समस्या का समाधान हथियारों और खूनखराबे से नहीं निकल सकता. यह सोच गांधी, नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जैसे नेताओं के सिद्धांतों से प्रेरित रही है. युद्ध में जीत किसी एक पक्ष की नहीं होती, हार हर मानवता की होती है.

पर मुश्किल तब हो जाता है जब वही लोग जो कल तक युद्ध विरोध के पोस्टर लेकर शांति की दुहाई दे रहे थे, आज सीजफायर को कमजोरी बताकर उसका मजाक उड़ाते हैं, तो यह प्रश्न उठता है: क्या उनकी शांति की मांग केवल एक पक्षीय थी? क्या उनके युद्ध-विरोधी तेवर केवल उस समय तक सीमित थे जब उनके विचारों के अनुकूल हालात थे? यह स्थिति केवल भारतीय मामलों में ही नहीं है. हाल के दिनों में वैश्विक राजनीति और युद्ध के मुद्दों पर लोगों की सोच में एक गहरा विरोधाभास देखा गया है.

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जब 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में “Say No to War” के नारे गूंजने लगे. मीडिया, नागरिक समाज और कलाकारों ने एक सुर में युद्ध का विरोध किया. लेकिन जब गाजा या यमन में नागरिकों की हत्या हो रही थी, और सीजफायर की अपीलें हो रही थीं, तो वही ताकतें या तो चुप रहीं या तर्क देने लगीं कि यह आत्मरक्षा है या हम अब शांति की बात नहीं कर सकते.

यह स्पष्ट दोहरापन है. क्या यूक्रेन के मासूमों की जान की कीमत गाज़ा के बच्चों से ज़्यादा है? युद्ध विरोध का सिद्धांत अगर सच्चा हो, तो वह सभी के लिए एक जैसा होना चाहिए – न कि भूगोल या राजनीति के आधार पर बदलने वाला.

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