बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए को भारी मतों से चुनाव जिताने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दसवीं बार बिहार के सीएम का शपथ लेने वाले हैं. संभव है कि इस बार वो देश के सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग और उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का रिकॉर्ड तोड़ दें. इस उपलब्धि के बाद नीतीश कुमार देश के महानतम नेताओं की श्रृंखला में अपना नाम भी हमेशा के लिए दर्ज करा लेंगे.
जाहिर है कि अभी कुछ एक महीने पहले तक नीतीश कुमार एनडीए की कमजोर कड़ी के रूप में माने जा रहे थे. बीजेपी उन्हें सीएम कैंडिडेट घोषित करने में हिचकिचा रही थी .उसे लग रहा था कि सीएम की बीमारी और उनके भूलने की बढ़ती आदत कहीं एनडीए के लिए नेगेटिव न बन जाए . पर नीतीश कुमार का एक ऐसा अवतार सामने आया कि पक्ष-विपक्ष के सारे अनुमान धरे रह गए.
किसी भी नेता के इस तरह के करिश्मे के पीछे उसके साथ साये की तरह रहने वाले खास सलाहकारों की भूमिका अहम होती है. जाहिर है कि पिछले एक साल से नीतीश कुमार के साथ इस भूमिका में सबसे खास और अहम साथी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ही थे. जाहिर है कि नीतीश कुमार की सफलता में उनका अहम योगदान होगा ही.
नीतीश कुमार को जानने वालों को यह पता है कि उन्हें अपने भरोसेमंद लोगों का नाम बदलते रहने में महारथ हासिल है. कभी राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह तो कभी आरसीपी सिंह, कभी अशोक चौधरी तो कभी विजय चौधरी भी उनके खास सलाहकारों की भूमिका में रहे हैं.
पर पिछले कुछ सालों से नीतीश कुमार के सबसे करीबी संजय झा ही रहे हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर नीतीश कुमार के सबसे करीबी कैसे क्यों बन गए संजय झा? जाहिर है कि संजय झा की कई योग्यताओं ने उन्हें देश के इस लीजेंड्री लीडर के बहुत करीब पहुंचा दिया.
1-बीजेपी और जेडीयू के बीच सेतु काम किया
कहा जाता है कि बीजेपी और जेडीयू की रजामंदी से 2009 में संजय झा बीजेपी छोड़कर जेडीयू में शामिल हुए थे.ये ठीक उस प्रकार था जैसे गृहमंत्री अमित शाह के कहने पर नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जेडीयू में शामिल किया था. (यह बात खुद एक बार नीतीश कुमार ने बताई थी.)
तबसे लगातार संजय झा दोनों ही पार्टियों के बीच सेतु का काम कर रहे हैं. पत्रकार-लेखक संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब 'सिंगल मैन' में लिखा है कि संजय झा की सबसे बड़ी योग्यता ये थी कि उन्होंने बीजेपी और जेडीयू के बीच सेतु का काम किया. बीजेपी और जेडीयू के बीच बहुत सारे अंतर्द्वंद्व थे. सबको सुलझाकर किसी एक निश्चित समाधान पर पहुंचाना आसान काम नहीं था. पर संजय झा ने यह कर दिखाया
नीतीश ने 2024 में झा को राज्यसभा भेजा ताकि BJP के साथ कम्युनिकेशन स्मूथ रहे. राज्यसभा सदस्य के रूप में वे नीतीश के 'आंख-कान' बने. 2017 गठबंधन ने नीतीश को मजबूत किया, लेकिन 2020 में अपेक्षित सफलता नहीं मिली. 2022 में फिर RJD के साथ गठबंधन हुआ पर झा ने बीजेपी से संपर्क बनाए रखा. 2024 में NDA वापसी झा की लॉबिंग का ही परिणाम था.
2-नीतीश की एनडीए में वापसी के पीछे भी संजय झा ही थे
संजय झा का जेडीयू के साथ सफर हमेशा सीधा नहीं रहा, कई बार परिस्थितियां मुश्किल भी बनीं, बावजूद इसके 2017 के बाद वे नीतीश कुमार के सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में जगह बना चुके थे. पार्टी के भीतर रणनीतिक निर्णयों से जुड़े हर महत्वपूर्ण चरण में उनकी मौजूदगी लगातार बढ़ती गई.
लोकसभा चुनाव 2024 के ठीक पहले नीतीश कुमार द्वारा इंडिया गठबंधन से अलग होकर वापस एनडीए में लौटने का निर्णय भी राजनीतिक गलियारों में संजय झा की ही सोच का परिणाम माना गया. उनका आकलन था कि इंडिया ब्लॉक न नेतृत्व पर कोई स्पष्ट रोडमैप दे पा रहा था और न ही साझा एजेंडा तय कर पा रहा था. इस तरह की अस्पष्टता के साथ आगे बढ़ना, संजय झा की नजर में, बिहार के लिए जोखिम भरा था. उन्होंने सुझाव दिया कि बिहार के दीर्घकालिक हितों और राजनीतिक स्थिरता को ध्यान में रखते हुए एनडीए का हिस्सा बनना ही सबसे व्यवहारिक विकल्प है. नीतीश कुमार ने इस सलाह को गंभीरता से लिया और कोई देरी किए बगैर गठबंधन बदलने का फैसला लिया.
3-आलोचनाओं के बीच से निकाली राह
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान संजय झा के सामने दो मोर्चे सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण थे. पहला, एनडीए को स्पष्ट बहुमत की ओर ले जाना, और दूसरा, गठबंधन में नीतीश कुमार के नेतृत्व पर सहमति बनवाना.
संजय झा को पहले विपक्षी आरजेडी ही नहीं, बल्कि जेडीयू के भीतर के कुछ धड़ों से भी जातिगत कटाक्ष और संदेहों का सामना करना पड़ा. उन पर कभी ‘बीजेपी का व्यक्ति’ होने का आरोप लगाया गया, तो कभी यह कहा गया कि वे नीतीश कुमार की राजनीतिक पकड़ को कमजोर करना चाहते हैं. ऐसे माहौल में चुनावी रणनीति तैयार करना और जमीन पर बेहतर परिणाम दिलाना आसान नहीं था.
इन चुनौतियों में सबसे पहली बड़ी परीक्षा थी सीट बंटवारे की राजनीति.एनडीए में पांच घटक दल शामिल थे, और हर दल अधिक सीटें हथियाना चाहता था. शुरुआती चरण में यह खींचतान एक गंभीर गतिरोध की तरह दिख रही थी, लेकिन संजय झा ने बातचीत, गणना और समझौते की त्रिकोणीय रणनीति अपनाकर यह पेचीदा मसला सुलझा लिया.
दूसरी ओर, बीजेपी ने आरंभिक दौर में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित न करके राजनीतिक गलियारों में असमंजस पैदा कर दिया था. इसका सीधा असर मतदाताओं की मानसिकता पर पड़ने लगा था.लोग यह समझ नहीं पा रहे थे कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कौन बनेगा. इस मोड़ पर संजय झा ने निर्णायक भूमिका निभाई. उन्होंने लगातार चुनावी संवाद, मीडिया प्रबंधन और संगठनात्मक संदेशों के जरिए जनता तक यह संदेश स्पष्ट रूप से पहुंचाया कि अगले मुख्यमंत्री केवल नीतीश कुमार ही होंगे.
4-गठबंधन के घटक दलों के बीच सामंजस्य
संजय झा को करीब से जानने वाले बताते हैं कि गठबंधन के घटक दलों के बीच सामंजस्य बनाकर रखने में संजय झा ने बहुत मेहनत की. इस बार के चुनावों में नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच जो आपसी सामंजस्य देखा गया वह पहले कभी नहीं दिखा था. चिराग पासवान खुद चलकर नीतीश के पास जाते हैं तो दूसरी ओर नीतीश भी छठ पर्व के बहाने चिराग के घऱ जाते हैं. इसी तरह नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार और जितन राम मांझी के बीच जो कीमेस्ट्री देखने को मिली और काबिलेतारीफ थी.
जाहिर है कि नीतीश के दूसरे सलाहकारों ने उन्हें अहंकारी बना दिया था. पर नीतीश की मंडली में संजय झा की एंट्री के बाद सबका रुख बदला हुआ है. इसके पीछे संजय झा की खुद को पर्दे की पीछे रखना और किसी भी बात का श्रेय न लेने की इच्छा शक्ति ही सहयोगियों को नीतीश के पास लाने में सफलता मिली.
5-संजय झा ने हर सीट के अलग रणनीति बनाकर की प्लानिंग
2025 के विधानसभा चुनाव में संजय झा की सबसे बड़ी खासियत यही रही कि उन्होंने हर सीट को एक अलग राजनीतिक इकाई की तरह समझकर उसके अनुसार रणनीति तैयार की. उनकी योजना एक राज्य—एक फ़ॉर्मूला वाली बात नहीं थी. बल्कि प्रत्येक क्षेत्र के सामाजिक समीकरण, स्थानीय नेतृत्व, जातीय प्राथमिकताओं और पिछले चुनावी पैटर्न का अध्ययन करके बनाई गई थी.
दरभंगा देहात इसका सबसे मजबूत उदाहरण रहा. यह सीट वर्षों से JDU के लिए चुनौती बनी हुई थी. 2005 से लगातार कोशिशों के बावजूद पार्टी यहां पैर नहीं जमा पा रही थी. RJD के ललित यादव ने अपनी पकड़ इतनी मजबूत कर ली थी कि यह क्षेत्र लगभग उनका राजनीतिक गढ़ माना जाने लगा था. स्थानीय जातीय समीकरण भी उनके पक्ष में बैठते थे, ऊपर से बाहुबली छवि ने उन्हें और मजबूती दी.
इस सीट की एक और बड़ी विशेषता यह थी कि यहां मुस्लिम मतदाता चुनावी परिणाम तय करने वाली आबादी माने जाते थे. इसी सोच के कारण JDU ने हमेशा यहां मुस्लिम उम्मीदवार ही उतारे. लेकिन इस रणनीति का एक प्रतिकूल असर यह हुआ कि पार्टी के प्रभुत्व वाले ओबीसी और ईबीसी समुदायों का एक हिस्सा खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करता था.