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बैसरन घाटी का आंखों देखा हाल, वो तस्‍वीरों में जितनी हसीन दिखती है उतनी है नहीं

पहलगाम में जिस जगह हमला हुआ, उसकी मार्केटिंग मिनी स्विटजरलैंड के नाम से की गई है. हकीकत में वहां घास के एक मैदान के अलावा कुछ भी नहीं है. पहलगाम के आसपास बहुत कुछ है जो बहुत ही रमणीक है. पर आतंकी घटना वाली जगह पर सिर्फ घास का एक छोटा सा मैदान ही है. जहां पहुंचना इतना दुर्गम है कि आप जान पर खेलकर ही वहां पहुंचते हैं. मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ था.

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बैंसरन पहुंचने के लिए फिसलम भरे दुर्गम रास्ते से होकर गुजरना होता है.
बैंसरन पहुंचने के लिए फिसलम भरे दुर्गम रास्ते से होकर गुजरना होता है.

कश्मीर का पहलगाम, अनंतनाग जिले में स्थित एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और बैसरन घाटी के लिए जाना जाता है. पहलगाम के आस पास के हर इलाका किसी न किसी बॉलिवुड की मूवी शूट होने के लिए मशहूर है. स्थानीय टूरिस्ट गाइड बहुत फख्र से ये बताते हैं कि यहां पर इस मशहूर फिल्म की शूटिंग हुई थी. पर 22 अप्रैल, 2025 के बाद से यह घाटी हमेशा के लिए 26 पर्यटकों की हत्‍या के लिए याद की जाएगी. यह एक ऐसा दाग है जो इस घाटी और यहां के निवासियों को हमेशा सताएगा. उन 26 पर्यटकों की रूह स्थानीय गाइडों को हमेशा परेशान करेंगी. क्योंकि अब उन्हें यह भी बताना होगा कि सरकार की लापरवाही और स्थानीय लोगों की मिलीभगत के चलते देश भर से आए पर्यटकों को क्रूरतम तरीके पाकिस्‍तानी आतंकियों ने मारा था.

जितनी खूबसूरत जगह उतनी क्रूरतम कार्रवाई. बताया जाता है कि हमले के समय घाटी में लगभग 2000 पर्यटक थे, लेकिन कोई सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था. इसे सुरक्षा में एक बड़ी चूक माना जा रहा है. पर जो कश्मीर की वास्तविक स्थिति समझते हैं उन्हें पता है कि चप्पे चप्पे पर सुरक्षा बलों को खड़ाकर किसी की रखवाली नहीं की जा सकती है. क्योंकि बिना स्थानीय लोगों के सहयोग के कोई आतंकी घटना को अंजाम नहीं दिया जाता है.

बैसरन घाटी अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए पर्यटकों के बीच मशहूर है. लगभग 8,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित, यह घाटी लिद्दर नदी के किनारे बसी है और पहलगाम के मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है. यहाँ की हरी-भरी घास, फूलों से सजे मैदान, और बर्फीले पहाड़ पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. पर जिस जगह हमला हुआ उस जगह की मार्केटिंग मिनी स्विटजरलैंड के नाम से की गई है. जबकि हकीकत बस वह मैदान ही है जिस जगह हमला हुआ है. हमले वाली जगह के अलावा यहां कुछ भी नहीं है. पहलगाम के आसपास बहुत कुछ है जो बहुत ही रमणीक है. पर आतंकी घटना वाली जगह पर सिर्फ घास का एक छोटा सा मैदान ही है. जहां पहुंचना इतना दुर्गम है कि आप जान पर खेलकर ही वहां पहुंचते हैं. फिलहाल मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ था.

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2023 में 23 सितंबर को मैं अपने परिवार सहित बैंसरन घाटी के मिनी स्विटजरलैंड में ही था. पहलगाम की विजिट में बैंसरन जाने की मेरी कोई योजना नहीं थी. मुझे एक पत्रकार मित्र ने जो कुछ दिन पहले ही कश्मीर घूमकर आए थे उन्होंने मना किया था इस जगह पर कुछ भी नहीं है. पर घुड़सवारी का मोह मुझे बैंसरन जाने से रोक नहीं सका. दरअसल बैसरन घाटी में पहुंचने के लिए आपको घुड़सवारों को हायर करना ही पड़ेगा. सीधी खड़ी चोटी की चड़ाई पर पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं बनाया गया .शायद घोड़ों वालों की रोजी रोटी चलती रही इसे ध्यान में रखकर ये किया गया है. ये घोड़े वाले अपनी गरीबी का रोना रो कर मेरे जैसे पर्यटकों को लूटने का मौका नहीं छोड़ते हैं.

इस छोटे से मैदान की मार्केटिंग इस तरह की गई है कि मुझे भी करीब 20 हजार खर्च कर दो घोड़े करने पड़े. एक पर मैं और मेरी बेटी ( तब 4 साल की थी) और दूसरे पर मेरी पत्नी सवार हो गईं. थोड़ी देर तो बहुत मजा आया पर जैसे जैसे चढ़ाई सीधी होती गई जान हथेली पर आ गई थी. मैं पूरे रास्ते यही सोचता रहा कि भगवान इस बार किसी तरह जान बचा लें फिर दुबारा कभी इस स्थान पर नहीं आउंगा. उबड़ खाबड़ रास्ते पर सीधी चढ़ाई , बारिश होने के चलते रास्ते पर कीचड़ अलग से. पहाड़ भी पथरीले न होकर मिट्टी से सने हुए थे. यहां फिसलन की हंड्रेड परसेंट संभावना थी. घोड़े जहां से गुजर रहे थे उसके ठीक बगल में सैकड़ों फुट की खाई थी. एक बार अगर घोड़ा फिसला तो जान बचनी मुश्किल थी. इसके साथ ही पूरे रास्ते घोड़ों की लीद की बदबू इस तरह नथुनों में घुस रही थी जो शायद महीनों बाद भी मुझे परेशान करती रही. मैं चाहकर भी उस समय कुछ कर नहीं सकता था. क्योंकि घोड़ों से उतर मैं कहां जाता. पैदल न ऊपर जा सकते थे और न ही नीचे जा सकते थे. मैंने अपने घोड़े वाले सिर्फ इतना पूछा कि क्या मैं वापसी में पैदल आ सकता हूं? मैंने ये भी कहा कि तुम्हें वापसी का पूरा पैसा मैं दे दूंगा पर किसी भी तरह मुझे घोड़े से वापस नहीं आना है. पता चला कि पैदल आने का कोई रास्ता नहीं है, मुझे हर हाल में घोड़े से आना होगा. किसी तरह मंजिल पर पहुंच तो गए पर पिछवाड़े में असहनीय दर्द ऐसा हुआ था जिसे याद कर आज भी सिहर जाता हूं.

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तथाकथित मिनी स्विटजर लैंड तो पहुंच गए पर वहां खाने पीने के लिए कुछ नहीं था. एक ढंग की दुकान भी नहीं थी. वही पहाड़ों वाली मैगी, कुछ स्थानीय लोगों द्वारा बनाया गया राजमा चावल भी मिल रहा था.आज जो सवाल आज उठ रहा है कि 2000 पर्यटकों के बीच एक भी सुरक्षा बल के जवान क्यों नहीं थे? मैं आपको बता दूं कि उस समय भी वहां कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी. जबकि पहलगाम में जहां से घोड़े की सवारी शुरू हुई थी वहां चप्पे-चप्पे पर भारतीय सेना के जवान तैनात दिखे थे. 

उस समय शायद मुझे यही समझ में आया था कि यहां आने वाले लोग घोड़ों पर इतना खर्च करते हैं कि उन्हें कोई भी आतंकी मारना नहीं चाहेगा. घोड़े वाले स्थानीय मुस्लिम लोग ही होते हैं जिनकी रोजी रोटी टूरिस्टों के आने से ही चलती थी. इसलिए ये घोड़े वाले टूरिस्टों की बहुत आवभगत करते हैं. उनके लिए टूरिस्ट ही भगवान होते हैं.

यहां की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की है कि, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्थानीय घोड़े वालों की मदद के बिना यहां आतंकी पहुंचे हों. दरअसल ये गरीब और अशिक्षित लोग होते हैं उन्हें जो बताया जाता है लोग वही समझते हैं. 2 साल पहले मैं अपनी यात्रा के दौरान पहलगाम, गुलमर्ग और श्रीनगर भी गया पर हर जगह मेरी मुलाकात मोदी भक्तों से ही होती रही. मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि कश्मीरी मुसलमान प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी को कितना पसंद करते हैं. जबकि दिल्ली और यूपी का शायद ही कोई मुसलमान इस तरह दिल खोलकर बीजेपी या नरेद्र मोदी की तारीफ करता हो.

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पहलगाम के पास बहुत सी और सुंदर जगहे हैं. जहां पहुंचना भी आसान है और जहां घंटों शांति के साथ बैठकर आप प्रकृति को निहार सकते हैं. उन जगहों में ही एक जगह है बेताब वैली. सनी दयोल की पहली फिल्म बेताब यही शूट हुई थी. यहां पर बैंसरन वैली से अधिक भीड़ होती है. पर यहां कार से लोग पहुंच सकते हैं. इसलिए यहां जाना आसान है. यहां सुरक्षा व्यवस्था भी तगड़ी रहती है.

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