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अतुल सुभाष सुसाइड केस में वुमन को विलेन मत बनाइये, फेल तो हमारा समाज और सिस्टम हुआ है | Opinion

अतुल सुभाष की खुदकुशी का दोष औरतों पर डालकर हम सिस्टम और समाज को बचा रहे हैं. अगर हमारे देश की न्याय प्रणाली, पुलिस तंत्र ठीक से काम करता तो शायद हर साल कितने परिवारों को यह त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती. कोई भी कानून का दुरुपयोग करने की हिम्मत नहीं करता.

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अतुल सुभाष
अतुल सुभाष

अतुल सुभाष की खुदकुशी ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है. मौत वैसे ही दुनिया का सबसे बड़ा दुख है, जब इसे कोई खुद गले लगाता है तो जाहिर है कि उसकी पीड़ा की दास्तां अंतहीन होती है. अतुल सुभाष के दर्द में समंदर जितनी गहराई है. पर अतुल के दुख का कारण सिर्फ औरत को मान लेना भी अन्याय ही होगा. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि अतुल की पत्नी ने उन्हें प्रताड़ित किया और उन्हें इसकी सजा भी मिलनी चाहिए. पर अतुल की खुदकुशी के बाद जिस तरह महिलाओं के खिलाफ पुरुषवादी मानसिकता वाली सोच सामने आई है उसे कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता.

पूरा सोशल मीडिया इस मुद्दे पर औरतों को गुनहगार साबित करने पर तुला हुआ है. जबकि खुद अतुल ने इस हादसे के लिए सिस्टम को जमकर कोसा है. अतुल ने अपने सुसाइड लेटर में लिखा है कि अगर उसे न्याय नहीं मिले तो उसकी अस्थियों को कोर्ट के सामने नाले में डाल देना. मतलब साफ है कि उसका गुस्सा भी अपनी ससुराल से ज्यादा सिस्टम पर है और उनकी मौत को गले लगाने का कारण भी इस व्यवस्था से न्याय की उम्मीद खत्म होना है. पर अतुल की मौत के बहाने कुछ लोग महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को रिव्यू करने की बात करने लगे हैं. बिना इस बात को समझे कि अतुल की मौत का जिम्मेदार कौन है, सारा दोष महिलाओं की सुरक्षा वाले कानूनों पर थोपा जा रहा है. जबकि इन कानूनों के बावजूद देश में हर घंटे आज भी महिला उत्पीड़न के 51 मामले दर्ज होते हैं. जबकि 80 प्रतिशत मामले लोक-लाज के भय से सामने ही नहीं आते हैं. इन अपराधों में रेप, छेड़छाड़, एसिड अटैक, किडनैपिंग और दहेज जैसे अपराध शामिल हैं. 2022 के आंकड़े बताते हैं कि देश में महिला उत्पीड़न के 4 लाख 45 हजार 256 मामले दर्ज किए गए.

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ये आदमी वर्सेस औरत का मामला नहीं है

अतुल सुभाष के साथ जो हुआ वो बेहद गलत हुआ पर क्या हम इसके लिए महिलाओं और महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को जिम्मेदार मान लें? सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक में तमाम ऐसे ऑर्टिकल देखने को मिले जिसमें ऐसे उदाहारण  दिए जा रहें हैं कि किस तरह दहेज उत्पीड़न संबंधी कानून के चलते हजारों युवकों की जिंदगी बरबाद हुई है. कुछ लोग दिल्ली-नोएडा के उस केस की याद दिला रहे हैं जिसमें एक लड़की ने 21 साल पहले दहेज की डिमांड के चलते विवाह करने से इनकार कर दिया था. इस केस के चलते लड़के की मां की सरकारी नौकरी चली गई. 9 साल बाद कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था. दरअसल हम कानून के ठीक से क्रियान्वयन न हो सकने के चलते कानून को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. कानून का ठीक से लागू न कर पाना कार्यपालिका का दोष है. हमें उसे बदलने या उसमें सुधार की बात करनी चाहिए पर हम बात कुछ और कर रहे हैं. ये वैसे ही है कि गर्द चेहरे पर थी और हम आईना साफ करते रहे.

अतुल सुभाष की मौत का कारण आदमी बनाम औरत होनी ही नहीं चाहिए. अतुल सुभाष के कमरे में जब बेंगलुरु पुलिस दाखिल हुई तो डेडबॉडी के पास ही एक तख्ती पर ये शब्द लिखे हुए थे- 'जस्टिस इज ड्यू'. यानी इंसाफ नहीं हुआ है. मतलब कि सारा दोष हमारी न्याय व्यवस्था का है. हमारी पुलिस का है. हमारी कार्यपालिका का है. अतुल सुभाष ने अपने लेटर में एक वीडियो का यूआरएल भी दिया है. इस वीडियो में इस बात का भी जिक्र है कि न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम के चलते किस तरह से जजों के नाते रिश्तेदार ही जज बनते हैं. हमें एक बार फिर से इस बात विचार करना चाहिए कि आखिर जजों की नियुक्ति में यह विशेषाधिकार क्यों है कि वो अपने नाते रिश्तेदारों को नियुक्त करा सकें, जजों को भी उतनी ही छुट्टियां क्यों नहीं मिलती जितनी कि अन्य सरकारी कर्मचारियों को मिलती हैं. करोड़ों केस पेंडिंग होने के पीछे कौन से कारण हैं? न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को कैसे रोका जा सकता है? इन बातों पर बहस के बजाय हम ने संसद के प्रतिनिधियों, जिन्हें हम खुद चुनकर भेजते हैं, के बनाए कानून पर सवाल उठा रहे हैं. और यह नहीं पूछ रहे हैं कि 120 तारीखों के बावजूद अतुल का केस फैसले तक क्‍यों नहीं पहुंच पाया.

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ये हमारे समाज की विफलता है 

अतुल सुभाष की मौत का जिम्मेदार जितना हमारा भ्रष्ट सिस्टम है उतना ही हमारा समाज है. हम आज भी महिलाओं और पुरुषों को अलग जीव मानकर चलते हैं. ये सही है कि स्त्री की प्रकृति पुरुषों से अलग होती है. पर महिलाएं कोई दूसरा या दुश्‍मन जीव नहीं हैं. हमारा समाज आज भी महिलाओं को लेकर उतना संवेदनशील नहीं हुआ है. कल्पना करिए कि जिस लड़की को एक पुरुष ब्याह करके घर लाता है उससे अलग होना आज भी स्त्री के लिए कितना कठिन होता है. चाहे वो अपने पति की प्रताड़ना के चलते ही अपने पति का घर छोड़ी हो पर उसे परित्यक्ता ही समझा जाता है. हालांकि घनघोर बाजारीकरण में औरतों की स्थिति 2 दशक पहले वाली नहीं है. आज तलाक लेने वाली लड़कियां भी अपनी नई जिंदगी के बारे में सोच सकती हैं. अतुल ने अपनी बीवी पर बदचलन होने का आरोप नहीं लगाया है. जाहिर है कि दोनों की ओर से जीवन में कोई तीसरा नहीं था. मतलब साफ है कि जो भी बातें थीं वो आपस में सुलझ सकतीं थीं. पर इसमें समाज ने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई होगी. या कहें कि वह तमाशबीन बना रहा. अतुल जैसे हजारों युवा जो किन्हीं कारणों से फैमिली टेंशन में फंस गए हैं हम उनके लिए क्या कर रहे हैं? आजकल लड़कियों के परिवार वाले भी अपनी बेटी को समझौता नहीं जंग की भाषा ही सिखाते हैं. बेटी को कुछ हुआ तो पूरा परिवार घोर फेमिनिस्ट बन जाता है. हम अपनी लड़कियों को तो लड़कों के गुण सिखा रहे हैं पर हम अपने लड़कों को लड़कियों की तहजीब सिखाने में संकोच करते हैं. लड़कियों को लड़का बनाने की सोच तो बन गई पर लड़कों को लड़कियों जैसी संवेदनशील परवरिश देने को कोई तैयार नहीं है.

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अतुल के साथ पूरी सहानुभूति है पर इसमें औरतों को विलेन न माना जाए

अतुल के साथ जो हुआ वो बहुत गलत हुआ पर इसके नाम पर हम उन कानूनों को माइल्ड करने की बात नहीं कर सकते जिनके चलते महिलाएं थोड़ा बहुत सशक्त बन सकी हैं. हम ये क्यों भूल जाते हैं अतुल सुभाष की जिंदगी में उसकी मां और बहनें भी थीं और अतुल की जिंदगी में उनका बेहद अहम रोल था. क्या एक पत्नी के खराब व्यवहार के चलते हम दूसरी अन्य औरतों को सुरक्षा प्रदान करने वाले कानूनों को खत्म करने की बात सोच सकते हैं? हो सकता है कि आप सोच रहे हों कि औरतों से संबंधित कानून उन्हें गलतियां करने के लिए  संरक्षण प्रदान करते हैं. पर ये भी तो समझिए कि इतना होने के बावजूद आज भी लाखों की संख्या में महिलाओं का दहेज उत्पीड़न हो रहा है. आज भी दहेज के चलते कितनी ही महिलाओं का मार दिया जाता है. कमजोर समझे जाने के चलते ही लड़कियों को गर्भ में मार दिया जाता है. हो सकता है कि इन कठोर कानूनों के चलते कुछ अतुल सुभाष को कुर्बान होना पड़ जाता हो पर इसके चलते ही कितनी अबलाओं का जीवन में अंधकार आने से बच जाता है.

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