कहानी - वो शायर अधूरे ख़्वाबों का
राइटर - जमशेद
एक ज़माने में लखनऊ में एक शायर हुआ करते थे... उनकी शोहरत का आलम ये था कि आज कल जैसे फिल्मी हीरोज़ का क्रेज़ है वैसे उनका क्रेज़ था... उनके बारे में मशहूर फमेनिस्ट राइटर इस्मत चुग़ताई ने लिखा कि उस ज़माने में लखनऊ और अलीगढ़ के कॉलेजों के गर्ल्स हॉस्टल्स में उस शायर की तस्वीर लड़कियों की तकियों के नीचे मिला करती थी। कोई उसे इश्क का शायर कहता था, कोई इंकिलाब का... कोई कहता था कि शराब ने उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी... कोई ये इल्ज़ाम उसके कद्रदानों पर रखता था और कोई कहता था कि मुहब्बत ने बर्बाद किया है उसको... लेकिन वो कहता था "मैंने सबको बराबर का हिस्सा दिया है" महज़ 44 साल की छोटी सी ज़िंदगी में उर्दू के जॉन कीट्स कहलाने वाले इस शायर का नाम था मजाज़ लखनवी और आज स्टोरीबॉक्स में उन्हीं की कहानी ...
“क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिए
उलझे कभी ज़मीं से, कभी आसमाँ से हम
बख़्शी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें 'मजाज़'
डरते नहीं सियासत-ए-अहल-ए-जहाँ से हम”
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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) मजाज़ जितने अच्छे शायर थे उतने ही हाज़िर जवाब... एक किस्से से शुरु करते हैं... एक बार क्या हुआ कि एक शायर इनका नाम था सलाम मछली शहरी था .... आकाशवाणी उर्दू में काम करते थे, आप ने उनका वो मशहूर शेर सुना होगा - "यूँ ही आँखों में आ गए आँसू - जाइए आप कोई बात नहीं" … तो बहरहाल, लखनऊ में जब मजाज़ और उनके दोस्त बैठते तो सलाम साहब से खूब तफरीह लेते। कभी ये लोग कहते, “भई सलाम मछली शहरी बड़े शायरों में आते हैं” मज़ाज़ मुस्कुराते हुए कहते... “बिल्कुल सही बात है, मछली शहर में इनसे बड़ा कोई शायर नहीं है” .... अच्छा, वो भी प्यारे इंसान थे, मुस्कुराते रहते और दोस्तों की चुहल का मज़ा लेते रहते। ये भी किस्मत वालों को ही मिलती है। लेकिन एक दोपहर लखनऊ आकाशवाणी के बाहर चाय की एक दुकान पर खड़े सलाम साहब कुछ ज़्यादा मायूस लग रहे थे। बड़े टूटे हुए दिल से मजाज़ से कहा, "यार मजाज़ भाई, बड़ी नाउम्मीदी में हूं" मजाज़ चाय पीते हुए बोले, "क्या बात हो गयी" कहने लगे "अमा कुछ हो ही तो नहीं रहा है, यही तो दिक्कत है, सोचो एक अर्से से शेर कह रहा हूं... ऐसे ऐसे शेर कहे हैं कि समझो दिल निकाल के रख दिया है लेकिन जब ये क्रिटिक्स उर्दू शायरों पर कुछ लिखते हैं तो मुझे भूल ही जाते हैं" मजाज़ इत्मिनान से बोले "दोस्त तुम फिक्र मत करो. मेरा दिल ये कहता है कि किसी दिन तुम्हारी एक गज़ल या एक नज़्म अचानक से धूम मचा देगी" सलाम साहब की आंखों में चमक आई। मजाज़ आगे बोले, "और फिर तुम्हारी वो नज़्म अलग अलग ज़बानों में ट्रांसलेट की जाएगी" सलाम जैसे ख्वाब में चले गए और मुस्कुराने लगे। मजाज़ ने और आगे कहा, “दुनिया की अलग-अलग ज़बानो में... रूसी, चीनी, जापानी, अग्रेज़ी, फ्रैंच, हर ज़बान में उसका ट्रांसलेशन होगा और फिर..." सलाम बोले, "और फिर क्या" मजाज़ तफरीह लेते हुए बोले, "और फिर उसी नज़्म का मैं वापस उर्दू में ट्रांसलेशन करूंगा तब लोग समझ पाएंगे कि तुमने लिखा क्या था..." सलाम चाय फेंक कर अंदर चले गए और मजाज़ ज़ोर से हंसने लगे।
मजाज़ की शायरी की शुरुआती साल 1931 है, तब वो मजाज़ नहीं असरारुल हक थे। एक 19-20 साल का नौजवान जो बीए करने के लिए अलीगढ़ आया था और यहां उनकी मुलाकात हुई - सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी, सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर.. यानि जावेद अख़्तर के वालिद साहब। और इन्हीं लोगों की सोहबत में मजाज़ ने गज़ल कहनी शुरु की... और यहीं उन्होंने अपना तखल्लुस 'मजाज़' रखा... मजाज़ पहले शायर थे जो इश्क़ पर भी लिखते थे और इंकलाब पर भी। वो उनका मशहूर शेर - "तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था" मजाज़ के एक लखनऊ के दोस्त थे मुनीष सक्सेना... वो भी शायरी-सुखन थे... लखनऊ यूनिवर्सिटी के दिनों में दोस्ती हुई थी और फिर पूरी ज़़िदगी रही... पहले तो दोनों लखनऊ यूनिवर्सिटी में साथ थे... फिर बंबई चले गए... मुनीष बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ्तर में काम करते थे और मजाज़ उन दिनों फिल्मों में कोशिश कर रहे थे... यहां ये हुआ कि मजाज़ एक बार बड़े बीमार हो गए... और बीमारी भी ऐसी कि जिस्म में बड़े-बड़े फोड़े से हो गए... जिसमें से मवाद और खून रिसता था... शहर की हवा सूट नहीं की या जो भी बात हो... लेकिन इसी वक्त में मुनीष सक्सेना ने तब अपने दोस्त मजाज़ की ऐसी खिदमत की .. कि एक मिसाल है... ऐसे खिदमत की कि जैसे कोई मां अपने बेटे की करती है... उनके जिस्म के ज़ख्म पर मरहम लगाने से लेकर उन्हें नहलाने धुलाने तक मुनीश ने किया... ये उस दौर की दोस्ती थी... ये उस दौर के लोग थे... बाद में जब मजाज़ ठीक हो गए तो ... काफी बाद में ... मुनीष मास्को चले गए थे और कुछ साल वहीं रहे जहां उन्होंने मक्सीम गोरकी की आत्मकथा, क्राइम एंड पनिशमेंट वगैरह का तर्जुमा किया था। .... तो जिन दिनों मजाज़ और मुनीश लखनऊ में रहते थे और बड़ा मज़े-मज़े का वक्त गुज़ारते थे उन दिनों की बात है कि एक रोज़ इक्तिला हुई कि जोश साहब लखनऊ तशरीफ ला रहे हैं, जोश मलिहाबादी... उस ज़माने में जोश साहब की तूती बोलती थी। प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन जिसे कहते थे तरक्की पसंद मुसन्निफीन उसका बड़ा नाम थे... लेकिन जोश साहब की एक आदत बड़ी मशहूर थी कि वो गलत उर्दू बोलने वालों को नहीं बख्शते थे... बिल्कुल नहीं। हद ये थी कि एक बार उन्होंने पाकिस्तान में रहते हुए पाकिस्तान के तानाशाह जनरल अय्यूब को सबके सामने मंच पर टोक दिया था... पहले वही किस्सा बता देते हैं ... पाकिस्तान बनने के बाद जनरल अय्यूब ने मंच पर जोश मलिहाबादी को बुलाया, बड़ा मजमा था तमाम लोग थे... इस बीच जोश साहब ने अपनी गज़ल पेश की - कि "हम गये थे उससे करने शिकवा-ए-दर्द फ़िराक़, मुस्कुराकर उसने देखा सब गिला जाता रहा" बड़ी तालियां बजीं, शोर हुआ... बाद जब जनरल अय्यूब स्टेज पर आए तो बोले, "भई जोश साहब, हम बड़े खुशनसीब हैं कि आप जैसा आलम हमारे दरमियान है.. और वगैरह.. वगैरह" जोश सुनते रहते, जब उनकी बारी फिर से आई तो बोले, "भाई अय्यूब साहब, आपका बड़़ा शुक्रिया तारीफ के लिए लेकिन आप जैसा आलम... आलम नहीं होता है भाई, आलिम होता है... इल्म से बना है.. हां" अरे साहब, महफिल में सन्नाटा छा गया। सुगबुगागट होने लगी। जनरल अय्यूब को ये बात बड़ी नागवार गुज़री और वो महफिल से चले गए। ... तो सोचिए ये जोश साहब... लखनऊ आ रहे थे... और उनके इस्तक्बाल की ज़िम्मेदारी मिली.. मजाज़ और मुनीश को। अब ये दोनों उन दिनों में लड़कपन और तफरीह पसंद नौजवान थे। तो बहरहाल, जोश साहब आए प्रोग्राम हुआ।
प्रोग्राम के बाद जोश साहब ने किसी साहब के बारे में पूछा कि भई वो कहां रह गए। तो मजाज़ ने बोले, "जो वो दरअसल पूना से आ रहे थे तो ट्रेन उनकी" ... "पुना से" जोश साहब ने बात काटते हुए कहा, "भई तुम लोग ज़बान की ऐसा तैसी करने पर क्यों आमादा हो। पुना से नहीं आ रहे हैं, कहिए पुने से आ रहे हैं। इसी तरह कलकत्ता से नहीं आ रहे हैं, कहिए - कलकत्ते से आ रहे हैं" अब मुनीश की जुर्रत देखिए अपने दोस्त मजाज़ का साथ कैसे दिया, बोले, "जोश साहब, मैं तो एक शायर अफ्रीके से भी बुला रहा था मगर वो आए ही नहीं" मजाज़ ने बामुश्किल अपनी हंसी छुपाई और जोश साहब ने भी पलट के देखा, समझ गए कि लड़का तफरीह ले रहा है।
तो ये दोस्ती थी मुनीश और मजाज़ की... जो ज़िंदगी के आखिर तक चली। लेकिन मजाज़ जिस दौर में हुए ये वो दौर था जब शायरी में नई नस्ल आ रही थी... नस्र में इस्मत चुगताई, कृष्ण चंदर, राजेंद्र बेदी और शायरी में फैज़, मजाज़ और थे। और धीरे-धीरे मजाज़ की शायरी जो थी... चमकने लगी। ये वो दोर था जब शायरी में सिर्फ रोमैंस की बातें पुराना ट्रेंड माना जा रहा था, नया ट्रेंड था कि इश्क के साथ इंकलाब की बात भी हो। और मजाज़ इसमें पूरी तरह माहिर थे
ये तेरे इश्क़ की मजबूरियां माज़ अल्लाह
तुम्हारे राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूं मैं
बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहां से गुज़र चुका हूं मैं
मजाज़ के बारे में एक बात कही जाती है, ये कितनी सही है कोई नहीं जानता लेकिन साल 1935 में जह वो आल इण्डिया रेडियो की एक मैगज़ीन थी 'आवाज़' के एसिस्टेंट एडिटर होकर दिल्ली आए.. तो यहां कहते हैं कि उन्हें एक अमीर शादीशुदा ख़ातून से इश्क हो गया। ऐसा इश्क जिससे में फिर कभी उबर नहीं। इसी नाकामी में उन्होंने शराब पीना शुरु किया औऱ ये आदत धीरे धीरे लत में बदल गयी. एक ही साल में वो लखनऊ लौट आए.. हालांकि बाद में 1939 में सिब्ते हसन, अली सरदार जाफरी और खुद मजाज़ ने मिलकर 'नया ज़माना' नाम से एक रिसाला निकाला था... पर वो भी चल नहीं पाया। नाउम्मीद होकर बंबई गए, जहां मैंने ज़िक्र किया कि वो बड़े बीमार हो गए थे। और बहुत सारे ऐसे लोगों से घिर गए थे जो शायरी नहीं समझते थे। जैसे एक बार.. वहां एक गुजराती कारोबारी आदमी उसे मिला.. वो शायरी का शौकीन बहुत था पर उसे समझ कम थी। वो नहीं जानता था कि मजाज़ का असली नाम मजाज़ नहीं, असरार उल हक है। मजाज़ तो उनका तखल्लुस है। उसने एक दिन मजाज़ से कहा, "मजाज़ साहब आपका तखल्लुस क्या है..." ये बेचारे सर झुका कर बोले, "जी तखल्लुस मेरा असरार उल हक है” बहरहाल, बंबई की हवा मजाज़ को रास नहीं आई... और वो वापस अपने वतन लखनऊ आ गए।
अब सोचिए एक शख्स जिसकी शायरी पर दुनिया फिदा थी, जिसके गम में दुनिया उसके साथ रोती थी, जिसके लतीफों पर दुनिया मुस्कुराती थी.. वो आदमी अंदर से कितना नाउम्मीद था... कितना गमज़दा.. कितना उदास। जबकि क्या उम्र थी उसकी... 1935 वो... 24 साल... भई फैज़ और मजाज़ की पैदाइश का साल एक ही है... दोनों ही 1911 में पैदा हुए... फैज़ सियालकोट में हुए, मजाज़ बाराबंकी के रुदौली में हुए... 24 साल का शख्स दुनिया में इतना कुछ देख चुका था कि फिर उसे बस अपना शहर लखनऊ ही रास आया। और लखनऊ में तो रौनक थी... भई अपना शहर अपना शहर होता है... यूनिवर्सिटी में कोई जाकर बैठे हैं दोस्तों के साथ, हॉस्टल चले गए, वहां शेरी महफिले चल रही हैं, पीना-पिलाना हो रहा है। पर दोस्तों के इस शोर के बीच एक मेंटल ट्रामा था जो लगातार उन पर तारी हो रहा था। एक बार उन्हें एक दौरा भी पड़ा मेंटल स्ट्रोक सा... जिसके बाद उन्हें रांची के एक मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया। दो तीन महीने वहां गुज़ारे, फिर वापस आए। झुंझला गए थे ज़िंदगी से लेकिन दोस्तों के बीच लतीफे बाज़ी चलती रहती थी। एक किस्सा है जो आपने बहुत लोगों के नाम से सुना होगा, अक्सर लोग नाम बदल कर इसे किसी और के नाम पर सुना देते हैं पर ये हकीकतन ये किस्सा मजाज़ का है। लखनऊ के अमीनाबाद में जहां अब नाज़ थियेटर हुआ करता है, वहां पर एक चाय का अड्डा हुआ करता था उस ज़माने में... तो कुछ दोस्तों के साथ मजाज़ वहीं बैठे थे। बाल नहीं कटवाए थे बड़े दिनों से। एक दोस्त ने कहा, चलो एक नया सलून खुला है उधर चौकी के पास, बाल कटवा के आते हैं मुझे भी कटवाना है। इनका ज़रा मूड उतरा हुआ था। थोड़े बोले नहीं, यार मैं ठीक हूं। बोले, नहीं यार, चलो कटवा लो... मुझे भी कटवाना है। बहरहाल, दोस्त के साथ गए। अब बाल काटने वाले की दुकान में दाखिल हुए और ऊंची सी कुर्सी जो आइने के सामने होती है, वहां बैठ गए।
दोस्त पीछे बेंच पर बैठ गया। अब थोड़ी देर के बाद बाल काटने वाले आए मुंह में पान भरे हुए और बड़ी अदा से मजाज़ के बाल छूते हुए बोले, “क्या कर दें उस्ताद” मजाज़ ने बड़े अदब से कहा, “बाल बड़े कर लेते हैं क्या आप” वो हैरानी से बोले, “बड़े? अरे नहीं साहब... बड़े कैसे”
- “तो छोटे कर दीजिए” मजाज़ ने गुस्से में कहा और पीछे बैठे लोगों की हंसी गूंज गय़ी।
मजाज़ की ज़िंदगी में चाहें जैसे भी मोड़ आए हो... नाकामियां, परेशानियां..सेहत की दुश्वारियां... जो भी हों... लेकिन एक चीज़ थी जो उनकी ज़िंदगी में मुसलसल रही और वो थी बेहतरीन शायरी... अच्छी नज़्में और गज़ले मजाज़ कहते रहे।
इस्तेमाल करें इस शेर के लिए
“हुस्न को बे-हिजाब होना था - शौक़ को कामयाब होना था
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी - कुछ मुझे भी ख़राब होना था”
1955 की सर्दियों में एक बार ... लखनऊ यूनिवर्सिटी में उर्दू कॉनफ्रैंस हुई बहुत बड़ी कॉनफ्रेंस थी.. चार दिंसबर तारीख थी। उसमें उस वक्त के गवर्नर थे कन्हैय्या लाल मुंशी उन्हें भी बुलाया गया था। उनके अलावा इस्मत चुगताई, कृष्ण चंदर, सरदार जाफ़री और मजाज़ को भी बुलाए गया, ज़ाहिर है वो उस वक्त शायरी के सुपरस्टार थे। इस कॉनफ्रैंस में मजाज़ को जिन लोगों ने सुना वो बताते हैं कि साहब मजाज़ ने बहुत ही अच्छा पढ़ा। और बिल्कुल नॉर्मल जैसे वो थे, वैसे ही पढ़ी, गप्पे मारीं, लतीफे सुनाए... और फिर कॉनफैंस खत्म हुई... सब लोग चले गए... मजाज़ वहां से निकले तो घर नहीं गए... एक साहब और थे जलाल मलीहाबादी.. जोश मलीहाबादी के भतीजे थे ग़ालिबन। तो जलाल और मजाज़ दोनों ने कहा कि चलो थोड़ी-थोड़ी हो जाए। दिसंबर की सर्दी थी। दोनों वहां से निकले और पहुंचे कहां... उस ज़माने में लखनऊ में कचहरी रोड से नीचे उतरिये तो आगे एक जगह थी जहां बसे खड़ी होती थीं। ये लोग वहीं पर खड़े हो गए और पीने-पिलाने लगे और यहां वहां की बातें होने लगीं। उसके बाद दोनों ने देखा कि पुलिस वाले आ रहे थे तो कहने लगे कि चलो एक खड़ी बस के ऊपर चलते हैं... ऊपर ही बैठ कर पी जाएगी। तो ये दोनों बस के पीछे जो सीढ़ी होती है उसी को पकड़ कर ऊपर बैठ गए फिर शाम से रात हुई। जलाल तो किसी तरह नीचे उतर आए लेकिन मजाज़ जो थे वो वहीं ऊपर रह गए, बहोश, बेसुध। और पूरी रात ठंड में ही बेहोश रहे, सुबह जब देखा गया तो उन्हें सर्दी की वजह से ब्रेन स्ट्रोक हो गया था। वो कोमा में थे। उसी दिन यानि 5 दिसंबर 1955 को मजाज़ का इंतकाल हो गया।
उर्दू का एक चमकता हुआ सितारा... जिसकी शायरी इस दुनिया के ख्वाब थे... जिसकी ज़बान अदब का बयान थी... जिसकी लतीफे इस दर्द में कराहती दुनिया के होठों पर एक मुस्कुराती हुई जुम्बिश थी... और जिसके दिल में बसता था उसका शहर ... लखनऊ... हमेशा के लिए चला गया। तो वक्त मिले तो मजाज़ के बारे में पढ़िये, उनकी अज़मत के बारे में पढ़िये, उनकी शायरी को पढ़िये.. और अगर आप लखनऊ में रहते हैं तो निशातगंज कब्रिस्तान में उनकी कब्र है... कभी मौका मिले तो हो आइये... ये वो कब्र है जिसमें उर्दू का एक सितारा, शायरी का उस्ताद और ज़हानत का एक दरिया... ज़ज़्ब है.. यहीं दफ्न है वो शायर अधूरे ख्वाबों का....
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