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बुक रिव्‍यू: जोरदार कहानियों का संग्रह 'यूं ना होता तो क्या होता'

हिंदी साहित्‍य जगत में रवि बुले आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. 2008 में आया उनका पहला कहानी संग्रह 'आईने, सपने और वसंतसेना' उनके लेखन कौशल को बयान करने के लिए काफी हैं. 'यूं ना होता तो क्‍या होता' उनका दूसरा कहानी संग्रह है और उनके लेखन को नई उंचाईयों तक ले जाता है.

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किताब: यूं ना होता तो क्या होता?
लेखक: रवि बुले
कीमत: 199 रुपये
कवर: पेपरबैक्स
प्रकाशक: हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया

हिंदी साहित्‍य जगत में रवि बुले आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. 2008 में आया उनका पहला कहानी संग्रह 'आईने, सपने और वसंतसेना' उनके लेखन कौशल को बयान करने के लिए काफी हैं. 'यूं ना होता तो क्‍या होता' उनका दूसरा कहानी संग्रह है और उनके लेखन को नई उंचाईयों तक ले जाता है.

रवि बुले के इस कहानी संग्रह की पहली कहानी है 'मैं एक बयान'. नाम से ही दिमाग में एक छवि बनती है कि किसी मामले में कोई शख्‍स बयान दर्ज करा रहा हो. जी हां अपने सही समझा, इस कहानी में एक मामले की सुनवाई कोर्ट में चल रही है और आरोपी अपनी सफाई में कुछ बोल रहा है. बस पूरी कहानी इसी पर आधारित है. आरोपी कोर्ट को बताने में लगा है कि 'चंदा' के साथ जो कुछ भी हुआ उसमें उसका कोई दोष नहीं है और जो हुआ वो अनजाने में हुआ.

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पेश है कहानी के आखिरी अंश...
'...और फिर वह रात, जिसके कारण मैं इस कठघरे में खड़ा हूं, देखते-देखते वह दुर्घना हो गई.
वह खेल-खेल में चाकू ले आई. मैंने उसे मना किया. लेकिन वह नहीं मानी. उस दिन की थीम थी कि मैं नाइफ प्‍वाइंट पर उसका रेप करूं. मैं वही करने की कोशिश कर रहा था. वह भी पूरी ताकत से अपना बचाव कर रही थी. और तभी कुछ इस तरह मेरा हाथ उसके गाउन में उलझा कि नोंकदार चाकू सीधे उसकी गर्दन में उतर गया.
जब साहिबा, प्‍लीज इस तरह से मुझे मत देखिए. मैं आपकी आंखों में फैसले को पढ़ सकता हूं. आपको तो तथ्‍यों की रोशनी में फैसला देना है, भावनाओं के सैलाब में नहीं.
फिर चंदा मेरी कहां है? वह कोमा में है.... और उसे कभी भी होश आ सकता है. उसका बयान तो अभी बाकी है.'

दूसरी कहानी है 'यूं ना होता तो क्‍या होता' जिसके नाम पर ही इस पुस्‍तक का नाम रखा गया है. ये कहानी है इलाहाबाद के रहने वाले पांडे जी के जीवन की जो थे तो खानदानी पहलवान लेकिन होनी ने उन्‍हें पहुंचा दिया था मुंबई और बना दिया चौकिदार. पेश है इस कहानी का एक रोचक प्रसंग...

पूजा-पाठी, चोटीधारी जनेऊधारी, तिलकधारी... पांडे जी एक अम्‍बेडकर औरत के अपने पर ऐसे हंसते देख कर सकते में थे. और का गजरा, नथ, झुमके, हार, कंगन, करधन, पाजेब, बिंदी, काजल, लाली, पाउडर... सब उसकी हंसी में शामिल थे. औरत की सांवली देह का हर अंग पांडे जी पर हंस रहा था. पांडे जी का अवसाद और गहरा हो गया... उन पर आज तक कोई ऐसे नहीं हंसा था. दिल्‍ली भी नहीं... दिल्‍ली ने तो सिर्फ डिसमिस किया था. लेकिन इस औरत की हंसी तो पांडे जी को मुंह चिढ़ाने वाली हंसी थी. पांडे जी चिढ़ गए.

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तीसरी कहानी है 'एक्‍सक्‍लूसिव स्‍टोरी' जो बताती है कि कैसे पत्रकारिता जगत में भी बाजारवाद हावी होता जा रहा है. कहानी के नायक दीनदयाल पाराशर ने एक तिकोनी कहानी लिखना चाही थी. ऐसी कहानी जिसमें वह संपादक को 'अमरीश पुरी' बनाना और खुद सलमान खान बनना चाहते थे. यानी 'मैं नायक, तू खलनायक'. उनकी कहानी में 'एश्‍वर्या राय' भी होनी थी. परंतु असल जिंदगी के सलमान-ऐश्‍वर्या के ब्रेकअप और अमरीश पुरी के दुनिया से टेका-ऑफ कर जाने के कारण दीनदयाल पाराशर ने कहानी लिखने का आइडिया ड्रॉप कर दिया.'
इस कहानी का अंत बेहद मार्मिक है और पाठक को सोचने पर मजबूर कर देता है.

इस पुस्‍तक में चार कहानियां हैं और चारों ही अनूठी हैं. इन कहानियों को पढ़कर ये एहसास होता है जैसे इनके पात्र सजीव हो उठे हों और सारी घटनाएं आपके सामने घटित हो रही हों. किस्‍सगोई का यह अंदाज ही रवि बुले को अलग बनाता है. उनकी कहानियों में सबकुछ है. अगर अच्‍छी कहानियां पढ़ने का शौक रखते हैं तो इस पुस्‍तक को जरूर पढ़ें.

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