उत्तराखंड में बीजेपी विधायकों के बीच पनपे असंतोष और सत्ताविरोधी लहर को को काबू करने के लिए पार्टी हाईकमान ने मुख्यमंत्री को बदल दिया है. त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत के हाथों सत्ता की कमान सौंप दी गई है. बीजेपी ने राज्य में भले ही सीएम का चेहरा दे दिया हो, लेकिन ऐसा भी नहीं कि इससे पार्टी के लिए आगे की राह बहुत आसान हो जाएगी. उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए तीरथ सिंह रावत के सामने सरकार की छवि सुधारने, पार्टी को एकजुट रखने और सबके साथ लेकर चलने के साथ-साथ कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने जैसी चुनौतियां खड़ी हैं, जिसके लिए उनके पास महज 300 से भी दिन कम हैं? ऐसे में देखना होगा कि वो इन सारी चुनौतियों से कैसे निपटते हैं?
बीजेपी की सत्ता में वापसी कराने की चुनौती
उत्तराखंड में नए सीएम बनाने के पीछे पार्टी पर्यवेक्षकों ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत चेहरे पर चुनाव लड़ने से हार की आशंका है. इसी के चलते तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया है. बीजेपी ने साल 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया. ऐसे में तीरथ सिंह रावत के सामने 2022 में होने वाले चुनावी समर में ऐसा ही प्रदर्शन दोहराने की चुनौती है जबकि उत्तराखंड की सत्ता हर पांच साल पर बदल जाती है.
इस तरह से सत्ता की वापसी की राह तलाशना तीरथ सिंह के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि इससे पहले बीजेपी राज्य में दो बार चुनाव से ठीक पहले सीएम बदलने का प्रयोग कर चुकी हैं. 2002 के चुनाव से पहले भगत सिंह कोश्यारी और 2012 के चुनाव से पहले बीएस खंडूरी को सीएम बनाया था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली थी. ऐसे में मुख्यमंत्री बने तीरथ रावत के सामने केंद्रीय राजनीति का अनुभव रखने के साथ ही राज्य में पकड़ रखने वाले इन दो दिग्गज नेताओं से बड़ी लकीर खींचने की चुनौती होगी. हालांकि, मौजूदा समय में सांगठनिक रूप से बीजेपी की जमीनी पकड़ बूथ स्तर तक है, लेकिन अब उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में जनता के बीच जाना होगा और बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की कवायद करनी होगी.
उत्तराखंड में त्रिवेंद्र रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत के आने से बीजेपी के सभी क्षत्रप और विधायक संतुष्ट हो जाएंगे, यह कहना मुश्किल है. खासकर कांग्रेस से बीजेपी में आए नेताओं की महत्वाकांक्षाएं आगे भी बनी रहेंगी. वहीं, असंतोष पैदा कर मुख्यमंत्री बदलने में सफल होने के बाद ऐसे नेताओं का मनोबल सातवें आसमान पर होगा. ऐसे में नए मुख्यमंत्री के लिए ऐसे अति महत्वाकांक्षी नेताओं से पार पाना और उन्हें साधकर रखने की बड़ी चुनौती होगी.
क्षेत्रीय-जातीय समीकरण साधने की चुनौती
उत्तराखंड की सियासत में गढ़वाल और कुमाऊं के बीच सियासी वर्चस्व की आजमाइश होती रहती है. ऐसे में सीएम तीरथ सिंह रावत के सामने भी गढ़वाल और कुमाऊं के बीच क्षेत्रीय संतुलन को साधने की चुनौती भी होगी. सीएम खुद गढ़वाल से हैं, ऐसे में उन्हें कुमाऊं के लोगों के साथ बैलेंस बनाकर चलना होगा. पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने कार्यकाल में गैरसैंण को लेकर काफी सक्रियता दिखाई. न केवल गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया बल्कि गैरसैंण को राज्य का तीसरा मंडल बनाने की घोषणा भी थी. लेकिन उन्होंने जिस तरह से इसे अमली जामा पहनाया, उसे लेकर कुमाऊं और गढ़वाल दोनों ही क्षेत्रों में उनके खिलाफ लोग नाराज थे. ऐसे में रावत के सामने अब गैरसैंण को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट करने और उस पर आगे बढ़ने की चुनौती रहेगी.
वहीं, उत्तराखंड की सियासत में राजपूत बनाम ब्राह्मण के बीच भी सियासी जंग किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में बीजेपी ने सत्ता की कमान राजपूत नेता के हाथ में सौंपी है तो संगठन की कमान ब्राह्मण समुदाय और कुमाऊं क्षेत्र के पास है. त्रिवेंद्र मंत्रिमंडल में गढ़वाल मंडल से मुख्यमंत्री समेत छह मंत्री और कुमाऊं मंडल से चार मंत्री रखे गए थे. ऐसे में तीरथ रावत के मंत्रिमंडल में दोनों मंडलों को तवज्जो देने की चुनौती भी रहेगी. तीरथ सिंह रावत के लिए क्षेत्रीय और जातीय समीकरण को साधकर रखने की चुनौती होगी. हालांकि, उन्होंने सीएम बनते ही कह दिया कि वो सभी को साथ लेकर चलेंगे.
विधायकों-कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने की चुनौती
उत्तराखंड में बीजेपी विधायक शुरू से ही अलग-अलग धड़े में बंटे हुए हैं. विधायक चार साल तक खामोश रहे पर अब चुनावी साल में प्रवेश के साथ ही विधायक मुखर हो गए हैं. राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के पीछे ये भी एक बड़ी वजह है. ऐसे में अब खेमों में बंटी पार्टी और विधायकों के साथ संवाद करना और उन्हें एकजुट रखना तीरथ सिंह रावत के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. वहीं, बीजेपी के कार्यकर्ता मौजूदा सरकार की शुरुआत से ही दबी जुबान में काम नहीं होने की शिकायत करते रहे, जिससे कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव पैदा हो गया है. अब सत्ता की कमान संभालने वाले तीरथ रावत की चुनौती सरकार की इस छवि को बदलने की रहेगी.
नौकरशाही पर नियंत्रण कैसे करेंगे?
उत्तराखंड में बीजेपी सरकार के चार साल के कार्यकाल में सीएम त्रिवेंद्र रावत की छवि अफसरों पर निर्भरता की बन गई थी. विधायक और मंत्री कई बार अपनी तकलीफ बयां करते नजर आए कि अफसर उनकी नहीं सुन रहे. सूबे में नौकरशाही बेलगाम हो रही है. विधायकों की शिकायत के बाद विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल ने मुख्य सचिव को पत्र भी भेजा था. मुख्य सचिव ने प्रोटोकॉल को लेकर अफसरों को पत्र लिखे पर स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदली.
अब तीरथ सिंह रावत के सामने इस छवि व अफसरों की कार्यशैली को बदलने की सबसे बड़ी चुनौती होगी और विधायकों को भरोसा दिलाना होगा कि उनके क्षेत्र में उनकी समस्याओं का समाधान किया जाएगा. राज्य के नए मुख्यमंत्री के सामने खुद को निवर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत से बेहतर साबित करने की भी चुनौती रहेगी. त्रिवेंद्र रावत पर शुरू से अफसरों को नियंत्रित न रख पाने और फैसला लेने में देरी जैसे आरोप लगते रहे. ऐसे में नए सीएम के सामने ऐसे आरोपों से बचने के लिए बेहतर प्रदर्शन का दबाव रहेगा.
विकास कार्यों को जमीन पर उतारने की चुनौती
प्रदेश में चुनावी साल है तो अब तक चल रही विकास योजनाओं की गति बढ़ाने के साथ ही नई योजनाओं के चयन को लेकर भी तीरथ सिंह रावत को खास सतर्कता बरतनी पड़ेगी. केंद्र सरकार के सहयोग से चल रही योजनाओं की रफ्तार न सिर्फ बढ़ानी होगी, बल्कि नई योजनाएं भी खींचनी होंगी. यानी डबल इंजन के दम को प्रदर्शित भी करने की चुनौती उनके सामने होगी, क्योंकि चार सालों के कार्यकाल में विधायक व कार्यकर्ता हमेशा ही विकास कार्य नहीं होने की शिकायत करते रहे. मौजूदा वर्ष में कोरोना संक्रमण और उससे पहले आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं होने की वजह से विकास कार्यों के लिए बजट का अभाव साफ दिखाई दे रहा था. ऐसे में राज्य सरकार की ओर से कराए जा रहे विकास कार्य धरातल पर उतारना और उनमें तेजी लाना भी नए सीएम तीरथ सिंह रावत के लिए चुनौती होगा.