सोमवार से पद्मश्री सम्मान पाने वाले वाराणसी के 126 वर्षीय बाबा शिवानंद की खूब चर्चा हो रही है. बाबा शिवानंद की सादगी ही थी कि अवार्ड लेने के लिए वह नंगे पांव गए थे और अवार्ड लेने के पहले वह पीएम नरेंद्र मोदी के सामने घुटने के बल बैठ गए. फिर क्या था. पीएम मोदी भी अपनी कुर्सी छोड़कर उनके सम्मान में झुक गए.
शिवानंद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सामने भी झुके तो राष्ट्रपति ने भी उन्हे झुककर उठाया. बाबा शिवानंद की इस सादगी के अलावा आखिर उनके स्वस्थ और निरोगी काया के साथ उम्र के 126 बसंत देख लेने के पीछे क्या है राज? यह उन्होंने कुछ समय पहले ही आजतक से उस वक्त साझा किया था जब हम उनके आश्रम पर पहुंचे थे.
बाबा शिवानंद ने जीवन में 126 बसंत देखा है और आज भी पुरी तरह से फिट हैं. बाबा सुबह 3-4 बजे ही बिस्तर छोड़ देते हैं. फिर रोज की तरह स्नान करके ध्यान और एक घंटा योगा करते हैंय खाने में सादा खाना यानि उबला आलू, सादी दाल का सेवन करते हैं. बाबा की माने तो 6 साल की उम्र से ही वो इस तरह की दिनचर्या का पालन कर रहे हैं.
बाबा शिवानंद को तीखा और ऑयली खाना पसंद नहीं है. बाबा शिवानंद को स्पाइसी और आयली खाने के अलावा शारीरिक संबंध बनाने से भी परहेज रहा है. इसलिए उन्होंने विवाह नहीं किया. उनके मुताबिक, ईश्वर की कृपा से उनको कोई डिजायर और तनाव नहीं है, क्योंकि इच्छा ही सभी दिक्कत की वजह होती है.
शिवानंद की माने तो वे कभी स्कूल नहीं गए, जो कुछ सीखा वे अपने गुरूजी से ही और इंग्लिश भी काफी अच्छी बोल लेते हैं. शिवानंद की अब यही इच्छा है कि पीड़ितों की मदद करें. बाबा शिवानंद की संतोषमय और स्वस्थ जीवन के पीछे एक दुख भरी कहानी है.
बाबा शिवानंद का जन्म 8 अगस्त 1896 को श्रीहट्ट जिला के हबिगंज महकुमा, ग्राम हरिपुर के थाना क्षेत्र बाहुबल में एक भीखारी ब्राह्मण गोस्वामी परिवार में हुआ था. मौजूदा समय में ये जगह बांग्लादेश में स्थित है. बाबा ने बताया कि उनके मां-बाप भिखारी थे और दरवाजे-दरवाजे भीख मांगकर अपनी जीविका चलाते थे.
4 साल की उम्र में उनके माता-पिता ने उनकी बेहतरी के लिए उन्हे नवद्वीप निवासी बाबा श्री ओंकारनंद गोस्वामी के हाथ समर्पित कर दिया. जब शिवानंद 6 साल के थे तो उनके माता-पिता और बहन का भूख के चलते निधन हो गया, जिसके बाद उन्होंने अपने गुरूजी के सानिध्य में आध्यात्म की शिक्षा लेना शुरू किया.
उन्होंने बताया कि महज 6 साल की आयु में पवित्र जीवन जीने की ठानी वो भी बगैर संतों के चोंगे के और आजतक उसका पालन कर रहे हैं.