अगर कोढ़ में खाज का उदाहरण देखना हो तो बिहार में उच्च शिक्षा परिदृश्य को बखूबी लिया जा सकता है. शिक्षकों की कमी झेल रहे बिहार के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अब कुलपतियों की कमी का संकट भी बन गया है.
मजेदार यह कि राज्य के पांच विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को ही अस्थायी तौर पर कुलपति बनाया गया है. राजभवन से जारी अधिसूचना के मुताबिक, पटना विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय के अध्यक्ष सुदीप्तो अधिकारी को पटना, बीआरए बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के सामाजिक विज्ञान विभाग के डीन डॉ. राजेंद्र मिश्र को मुजफ्फरपुर और पटना विश्वविद्यालय के अरबी विभागाध्यक्ष डॉ. शम्सु .जोहा को मौलाना मजहरूल हक अरबी फारसी विश्वविद्यालय पटना का अस्थायी कुलपति नियुक्त किया है.
जयप्रकाश विश्वविद्यालय छपरा के प्रतिकुलपति प्रो. दिनेश प्रसाद सिन्हा और बीएन मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा के प्रतिकुलपति डॉ. अरुण कुमार को भी कार्यवाहक कुलपति का प्रभार सौंपा गया है.
कुलपतियों की कामचलाऊ व्यवस्था से कई परेशानियों की आशंका जताई जा रही है. बिहार राज्य शिक्षक महासंघ के सचिव प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, ''कार्यवाहक कुलपतियों का एक सीमित दायरा है इसलिए कॉलेज और विश्वविद्यालय के विकास से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसले लेने में परेशानियां होंगी, जिससे शैक्षणिक, वित्तीय और प्रशासनिक कार्यों पर असर पड़ेगा.'' यह समस्या कोई एकदम पैदा नहीं हुई है.{mospagebreak} कुलपतियों के कार्यकाल की अवधि समाप्त होने की सूचना पहले से थी. लेकिन राज्य सरकार और राजभवन के बीच समन्वय नहीं रहने से ऐसी स्थितियां बनी हैं. मानव संसाधन विकास विभाग के मंत्री प्रशांत कुमार शाही बताते हैं, ''राजभवन को 5 जनवरी को कुलपतियों के नामों की सूची उपलब्ध कराई गई थी.
इससे पूर्व 18 दिसंबर को परामर्श के लिए आग्रह किया गया था. कार्यवाहक कुलपतियों की नियुक्तियों के बाद भी 25 जनवरी को परामर्श के लिए आग्रह में कहा गया था कि कार्यवाहक कुलपतियों की नियुक्ति अल्पकालीन होनी चाहिए.'' राज्यपाल के सूचना पदाधिकारी लीलाकांत झा ने राजभवन से जारी अधिसूचना में कहा है कि राज्यपाल सह-कुलाधिपति देवानंद कुंवर ने विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की सेवानिवृत्ति की अवधि पूरी होने से बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1976 की धारा-13(2) के तहत अस्थायी तौर पर कुलपति के प्रभार सौंपे हैं.
दरअसल, राज्य सरकार कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का खर्च वहन करती है लेकिन शैक्षणिक और प्रशासकीय नियंत्रण राजभवन के जिम्मे है. लिहाजा, राजभवन अपनी स्वायतता और राज्य सरकार इस पर नियंत्रण को लेकर अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं. राज्य सरकार ने बिहार विधानमंडल में बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम-2010 पारित किया, जिसे टिप्पणी के साथ राजभवन ने फिलहाल लौटा दिया है.{mospagebreak} बिहार राज्य शिक्षक महासंघ के कार्यकारी अध्यक्ष कन्हैया बहादुर सिन्हा कहते हैं, ''अंतरविश्वविद्यालय बोर्ड के भंग होने से उच्च शिक्षा के प्रति अनिश्चितता की स्थिति बनी है. बोर्ड राजभवन, सरकार और विश्वविद्यालयों में तालमेल का बेहतर माध्यम था. बोर्ड के भंग होने से सभी पह्नों में समन्वय का अभाव हो गया है.''
दरअसल, राज्य सरकार और राजभवन के बीच खींचतान से उच्च शिक्षा से जुड़े कई पहलू ठंडे बस्ते में चले गए हैं. 11वीं पंचवर्षीय योजना में यूजीसी और केंद्र सरकार के तहत बिहार में 25 मॉडल कॉलेज खोले जाने का प्रस्ताव है. लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं. शिक्षकों के वेतन प्रोन्नति को लेकर दर्जनों मामले हाईकोर्ट में लंबित हैं.
सबसे बड़ी समस्या अध्ययन अध्यापन को लेकर है, जिस दिशा में पहल नहीं हो पा रही है. विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 1970-80 के बाद शिक्षकों के पद सृजित नहीं किए गए. पहले के सृजित पदों में से भी आधे से अधिक पद खाली पड़े हैं. निर्धारित मानकों के अनुसार शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की मौजूदगी नहीं है. पोस्ट ग्रेजुएट में 10 छात्रों और अंडर ग्रेजुएट में 25-30 छात्रों के अनुपात पर एक शिक्षक की जरूरत है. पर कई कॉलेजों के कई संकायों में एक टीचर तक नहीं है.
बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष प्रो. ए.के.पी. यादव बताते हैं, ''बिहार की जनसंख्या देश की जनसंख्या की लगभग 8 फीसदी है. देश में करीब 400 विश्वविद्यालय हैं लेकिन बिहार में मात्र 12 विश्वविद्यालय हैं जबकि जनसंख्या के हिसाब से राज्य में 32 विश्वविद्यालय होने चाहिए. देश में डिग्री स्तर के शिक्षकों की संख्या लगभग 3,00,000 है, जिसका 8 फीसदी यानी 24,000 शिक्षक यहां होने चाहिए लेकिन राज्य में बमुश्किल 12,000 शिक्षक हैं.'' बहरहाल, जिस तरह राजभवन और राज्य सरकार में खींचतान जारी है उससे भविष्य में उच्च शिक्षा की स्थिति और बदतर होगी.