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पार्टी, परिवार, वोट और विरासत... मुलायम के बाद अखिलेश के सामने होंगी ये बड़ी चुनौतियां

पिता मुलायम सिंह के निधन के बाद अब अखिलेश यादव के सामने पार्टी ही नहीं बल्कि परिवार को भी बचाए रखने की चुनौती होगी. अखिलेश पर आरोप लगता रहा है कि वह युवा ब्रिगेड के कुछ नेताओं से घिरे रहते हैं और उनके सिवा किसी की बात कम ही सुनते हैं.

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मुलायम सिंह के निधन के बाद अब अखिलेश को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. (फाइल फोटो)
मुलायम सिंह के निधन के बाद अब अखिलेश को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. (फाइल फोटो)

समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव मंगलवार को पंचतत्व में विलीन हो गए हैं. पिता की छत्रछाया के बिना ही अखिलेश यादव को आगे की सियासी राह तय करना है. सपा की कमान पहले से ही अखिलेश के हाथों में है, लेकिन मुलायम के नहीं रहने से राजनीतिक डगर काफी मुश्किलों भरी हो गई है. अखिलेश के सामने अपने यादव कुनबे को एकजुट रखने के साथ-साथ सपा के सियासी आधार और मुलायम के एम-वाई समीकरण को साधे रखने की चुनौती होगी है. इतना ही नहीं मुलायम की मैनपुरी सीट पर नेताजी के सियासी वारिस को भी तलाशना होगा.

मुलायम सिंह यादव अपने जीते ही अपनी सियासी विरासत को अखिलेश यादव के हवाले कर गए, लेकिन अब आने वाले वक्त में अखिलेश को कई बड़े और कड़े इम्तेहान से गुजरना होगा. 'नेताजी' के साथ कार्यकर्ता और समर्थकों के साथ उनके भावात्मक रिश्ते की डोर को अखिलेश कितनी मजबूती से बांध पाते हैं. मुलायम के बिना सपा के लिए आगे की राजनीतिक राह कितनी मुश्किल होगी या सपा आगे कितना बढ़ेगी, यह अखिलेश यादव के सियासी कौशल पर निर्भर करेगा. 

यादव कुनबे को एकजुट रखने की चुनौती

समाजवादी पार्टी और यादव कुनबे दोनों को मुलायम सिंह यादव ने एक साथ जोड़कर रखा था. मुलायम के बाद पूरे यादव परिवार को एक साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी अखिलेश यादव के कंधों पर है, लेकिन चाचा शिवपाल सिंह यादव से लेकर अपर्णा यादव तक की सियासी राह अलग हो चुकी है. धर्मेंद्र यादव, तेजप्रताप यादव, अंशुल यादव, अक्षय यादव, रामगोपाल यादव सहित करीब एक दर्जन परिवार के सदस्य राजनीति में है, जिन्हें सपा के साथ मजबूती से जोड़कर रखने की चुनौती अखिलेश यादव के ऊपर है. 

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शिवपाल यादव को लेकर अखिलेश यादव का नजरिया शुरू से ही स्पष्ट है. अखिलेश चाचा के तौर पर तो उन्हें सम्मान देते हैं, लेकिन सियासी तौर पर साथ लेकर चलने के लिए राजी नहीं है. ऐसे में शिवपाल यादव को छोड़ दिया जाए, तो अखिलेश यादव अपने बाकी सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ बेहतर सामंजस्य और आपसी एकजुटता के साथ सियासी पारी को आगे बढ़ा रहे हैं. मुलायम के आखिरी समय में पूरा परिवार एकजुट रहा और अखिलेश यादव अपने पूरे परिवार के साथ गुरुग्राम में दो सप्ताह तक डटे रहे. काफी अरसे के बाद यह पहला मौका था जब यादव परिवार एक साथ रहा. मुलायम के बाद कुनबे को एक धागे में पिरोये रखने की जिम्मेदारी अखिलेश पर है. 

अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव

समाजवादी पार्टी को बचाए रखने की चुनौती

अखिलेश यादव के सामने परिवार ही नहीं बल्कि पार्टी को भी बचाए रखने की चुनौती होगी. अखिलेश पर आरोप लगता रहा है कि वह युवा ब्रिगेड के कुछ नेताओं से घिरे रहते हैं और उनके सिवा किसी की बात कम ही सुनते हैं. मुलायम के साथ काम कर चुके पुराने बुजुर्ग और बड़े जनाधार वाले नेता खुद को पार्टी में उपेक्षित महसूस करते हैं. सपा के कई दिग्गज नेताओं को लगता है कि अहम निर्णयों में पार्टी उनके अनुभव का कोई लाभ नहीं लेना चाहती है. इसके अलावा अखिलेश के निर्णयों में मुलायम सिंह की छवि नहीं दिखाई देती. ऐसे में अखिलेश को युवा-बुजुर्ग नेताओं के साथ संतुलन बनाकर रखने की चुनौती होगी. 

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मुलायम के सियासी समीकरण को बचाए रखने का चैलेंज

उत्तर प्रदेश की सियासत में मुलायम सिंह मुस्लिम-यादव (एम-वाई) समीकरण के जरिए राजनीति के धुरी बने हुए थे, लेकिन अब उनके इस वोटबैंक में सेंध लगाने की जुगत में बसपा, AIMIM, कांग्रेस और प्रसपा तक हैं. मुस्लिम से जुड़े मुद्दों को कमजोर ढंग से उठाए जाने के कारण मुसलमानों का एक बड़ा तबका सपा से नाराज हैं. ऐसे ही यादव वोटों पर सेंधमारी के लिए शिवपाल यादव से लेकर बीजेपी तक कमर कस रखी हैं. ऐसे में अखिलेश के सामने यह बड़ी चुनौती होगी कि वह इस वोट बैंक को बिखरने से रोके और उन्हें यह विश्वास दिलाए कि उनकी असली रहनुमा समाजवादी पार्टी ही है. इस तरह सपा से मुस्लिम-यादव छिटकते हैं तो अखिलेश के लिए अपनी सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो जाएगी. ऐसे में देखना है कि अखिलेश कैसे सपा के सियासी आधार को बचाए रख पाते हैं?

मैनपुरी में मुलायम का वारिस कौन होगा?

मुलायम सिंह यादव के बाद उनकी कर्मभूमि मैनपुरी में उनके सियासी वारिस चुनने की है. ऐसे में अगले 6 महीने में मैनपुरी में लोकसभा सीट पर उपचुनाव हो सकते हैं. यह चुनाव सपा और अखिलेश दोनों के सियासी भविष्य तय करेगा. आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट हार जाने के चलते मैनपुरी को बचाए रखने की चुनौती होगा. मुलायम सिंह केंद्र की राजनीति का सफर मैनपुरी से शुरू किया और जीवन के आखिरी सांस तक डटे रहे. ऐसे में अखिलेश यादव अपने पिता की मैनपुरी सीट से किसे चुनाव उतारेंगे, परिवार से कोई सदस्य होगा या फिर कुनबे के बाहर का? 

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अखिलेश यादव यूपी राजनीति में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करते हुए नेता प्रतिपक्ष के तौर पर विधानसभा में बैठे हैं. ऐसे में मुलायम की मैनपुरी सीट पर खुद के बजाय किसी दूसरे को चुनाव लड़ा सकते हैं. इस फेहरिश्त में मुलायम परिवार से धर्मेंद्र यादव, तेज प्रताप यादव और डिंपल यादव प्रबल दावेदार हो सकते हैं. धर्मेंद्र यादव और तेज प्रताप मैनपुरी सीट से सांसद रह चुके हैं. इसके अलावा शिवपाल यादव भी मुलायम सिंह के सियासी वारिस के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए चुनावी मैदान में उतर सकते हैं. मैनपुरी सीट पर निर्णय करना अखिलेश के लिए काफी चुनौती पूर्ण होगा. 

दिल्ली की सियासत में कैसे मजबूत होंगे? 

मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के साथ-साथ केंद्र की राजनीति में भी खुद को मजबूत बनाए रखा था. मुलायम के दिल्ली में रहने से ही अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में बेहतर तरीके से राजनीतिक पारी को आगे बढ़ा रहे थे. ऐसे में अखिलेश के सामने यूपी की सियासत से दिल्ली तक में अपनी राजनीतिक पकड़ को बनाए रखने की कवायद करनी होगा. मुलायम के निधन से दिल्ली की सियासत में सपा की पकड़ कमजोर हो सकती है. अखिलेश यादव को अब राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कमी को पूरा करने के लिए नई रणनीति तो बनानी होगी. 2024 के चुनाव में विपक्षी एकता की कवायद हो रही है, जिसमें अखिलेश यादव को भी अपनी भूमिका तय करनी होगी. देखना है कि मुलायम के निधन से सपा की दिल्ली सियासत में जो शून्य हुआ है, वो कैसे भरेगा?


 

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