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वो मौके जब अरावली को बचाने आया सुप्रीम कोर्ट, PMO ने भी दिया था दखल

सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा को लेकर अपने फैसले पर फिलहाल रोक लगा दी है. अरावली पर्वतमाला उत्तर भारत के लिए बेहद अहम मानी जाती है जिसके संरक्षण के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट कई बार आगे आ चुका है. पीएमओ ने भी एकाध बार इसके संरक्षण के लिए दखल दिया है.

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अरावली की पहाड़ियां सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला मानी जाती है (Photo:Getty Images)
अरावली की पहाड़ियां सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला मानी जाती है (Photo:Getty Images)

अरावली पर्वतमाला की जिस नई परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकारा था, उस पर अब खुद रोक लगा दी है. केंद्र सरकार की सिफारिशों के बाद 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी किया था जिसके बाद पूरे उत्तर भारत में भारी विरोध प्रदर्शन देखने को मिला था. विवाद के बीच इस मामले पर आज सुनवाई हुई है जिसमें कोर्ट ने अपने ही फैसले के लागू होने पर फिलहाल के लिए रोक लगा दी है.

इस मामले में अब 21 जनवरी को अगली सुनवाई होगी. पहले कोर्ट ने केंद्र सरकार की सिफारिशों पर अरावली की नई परिभाषा पर अपनी मुहर लगा दी थी जिसमें कहा गया कि 100 मीटर (328 फीट) या इससे ऊंचे जमीन को ही अरावली पहाड़ी माना जाएगा. नई परिभाषा को लेकर काफी विवाद हो रहा है और जानकार कह रहे हैं कि इससे खनन को बढ़ावा मिलेगा और छोटी पहाड़ियां खत्म कर दी जाएंगी.

विवाद के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर रोक लगा दी है. अरावली भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला मानी जाती है जो उत्तर-पश्चिम भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. यह धूल को रोकने, धरती में पानी रिचार्ज करने और जैव विविधता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है.

वो मौके जब अरावली को बचाने आया सुप्रीम कोर्ट

इंसानों को संकट से बचाने वाली इस पहाड़ी पर समय-समय पर संकट आते रहे हैं और बहुत बार खुद सुप्रीम कोर्ट ने इसकी रक्षा की है.

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पिछले दो दशकों में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वतमाला को उन गतिविधियों से बचाया है जो पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को नुकसान पहुंचा सकती हैं. इसमें साल 2002 का वह आदेश भी शामिल है, जब अदालत ने दिल्ली सीमा से 5 किलोमीटर के दायरे में खनन और भूजल के दोहन पर रोक लगाई थी. इसके बाद हरियाणा और राजस्थान में अवैध खनन पर भी प्रतिबंध लगाया गया.

हरियाणा सरकार के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक एम. डी. सिन्हा ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए कहा, '2002 से सुप्रीम कोर्ट लगातार अरावली में गैर-पारिस्थितिक गतिविधियों को सीमित करने वाले आदेश देता रहा है. पीएमओ भी समय-समय पर पर्यावरणीय मानकों में ढील को रोकने के लिए आगे आया है. हैरानी की बात यह है कि मौजूदा मामले में अदालत के समक्ष पर्यावरण और वन मंत्रालय की तरफ से पेश की गई रिपोर्ट संरक्षण के बजाय खनन को बढ़ावा देती हुई प्रतीत होती है.'

2002 से 2019 के बीच सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से साफ होता है कि अदालत ने इस दौरान खनन गतिविधियों की इजाजत नहीं दी. कोर्ट ने हरियाणा के पीएलपीए कानून को भी स्थगित कर दिया था, क्योंकि इससे अरावली और शिवालिक क्षेत्र के बड़े हिस्से का कानूनी रूप से वन का दर्जा खत्म हो सकता था.

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अरावली के संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि खासतौर पर हरियाणा में सरकारी एजेंसियों की ओर से लगातार यह कोशिशें होती रही हैं कि मनोरंजन सुविधाओं के नाम पर नॉन फॉरेस्ट और रियल एस्टेट गतिविधियों को अनुमति दी जाए.

साल 2014 में हरियाणा सरकार ने एनसीआर क्षेत्रीय योजना 2021 की मध्यावधि समीक्षा के दौरान अरावली में निर्माण की 0.5 प्रतिशत सीमा को बढ़ाने की कोशिश की थी जिसे पीएमओ के निर्देश के बाद एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने पर्यावरण मंत्रालय की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए रोक दिया.

अरावली को बचाने के लिए पीएमओ भी कई बार आया सामने

प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने भी दो मौकों पर अरावली को बचाने के लिए हस्तक्षेप किया. पहला अप्रैल 2014 में मनमोहन सिंह सरकार के दौरान और दूसरा पिछले साल, जब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के नेचुरल कंजरवेशन जोन (एनसीजेड) में निर्माण और अन्य गैर-वन गतिविधियों पर 0.5 प्रतिशत की सीमा को कमजोर करने की कोशिशों को रोका गया. एनसीजेड में मुख्य रूप से अरावली क्षेत्र और जल निकाय शामिल हैं. 

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