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सीने में रेत भर रहा पत्थर तराशने का हुनर... बीमार हुए तो मिलती है 1500 रुपये पेंशन और फिर हर पल मौत का डर!

राजस्थान के कई जिलों में रेड सैंड स्टोन का काम होता है. इन पत्थरों का इस्तेमाल लालकिला, राष्ट्रपति भवन अक्षरधाम मंदिर से लेकर अयोध्या में बनाए गए राम मंदिर तक में इस्तेमाल किया गया है. राज्य में बड़ी मात्रा में इन पत्थरों की खान में लोग काम करते हैं. ऐसे में इन पत्थरों को तराशने वालों का हुनर ही उनकी जान का दुश्मन बन गया है.

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पत्थर की खादान में काम करने वालों हुनर ही बन गया उनकी जान का दुश्मन!
पत्थर की खादान में काम करने वालों हुनर ही बन गया उनकी जान का दुश्मन!

‘30 साल तक मैंने खुद पत्थरों की खदान में काम किया. सिलिकोसिस हो गया तो काम छोड़ना पड़ा. हम रोज-खाने कमाने वाले लोग हैं. इतना पैसा तो है नहीं कि कुछ दिन घर बैठ जाएं. बीमारी के साथ काम करने की कोशिश की तो सांसें साथ छोड़ने लगीं. थोड़ी देर में थककर हांफने लगता. तब सबकुछ जानते हुए मौत की इस खदान में बेटे को भी उतार दिया’.

37 साल का इकलौता जवान बेटा इसी साल अप्रैल में चल बसा. करीब 3 साल पहले उसकी तबीयत खराब हुई. धीरे-धीरे खांसी बढ़ती गई. डॉक्टर को दिखाया तो पता चला सिलिकोसिस है. जयपुर तक इलाज कराया. तीन साल तक बेटे ने खूब तकलीफ झेली. खांसते-खांसते मुंह से खून निकल आता था. इतना बोलते ही 63 वर्षीय रघुबीर की आवाज में दर्द और आंखों में आंसू उभर आए.

यह कहानी नई दिल्ली से 250 किलोमीटर दूर धौलपुर के डौमपुरा के रहने वाले अकेले रघुबीर की नहीं है. यह उन सबकी है, जो नए संसद भवन और दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर मंदिर से लेकर अयोध्या में बनाए गए राम मंदिर तक में लगाए गए रेड सैंड स्टोन पत्थरों को तराशने का काम करते हैं. अब इस पत्थर को तराशने वालों का हुनर ही उनके लिए मौत की सबसे बड़ी वजह बन चुका है.

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खदान से रेड सैंड स्टोन को निकालने के बाद उसकी कटाई, पिसाई और गढ़ाई करके कंस्ट्रक्शन में इस्तेमाल किया जाता है. इन प्रकियाओं के दौरान पत्थर से निकलने वाले सिलिका युक्त धूल और उसके बारीक कण मजदूरों की नाक के रास्ते होते हुए फेफड़ों में पहुंच जाते हैं. इससे उन्हें सिलिकोसिस नाम की बीमारी हो जाती है. फिलहाल, धौलपुर, करौली, दौसा, पाली समेत राजस्थान के दर्जनों जिलों में इस बीमारी से बड़ी संख्या में पत्थर की खदान में काम करने वाले मजदूरों की मौत हो रही है.

राजस्थान सरकार के सिलिकोसिस पोर्टल पर प्रकाशित जानकारी के मुताबिक, राज्य में अब तक 1 लाख 76  हजार 931 आवेदन आए हैं. 22 हजार 541 लोगों को सिलिकोसिस होने की पुष्टि कर प्रमाणपत्र दिया गया है. 7834 आवेदनों को अस्वीकार कर दिया गया है. बाकी में कार्रवाई जारी है.

धौलपुर में ही अकेले अब तक 31 हजार 168 लोगों ने सिलिकोसिस के प्रमाण पत्र के लिए रजिस्ट्रेशन किया था, जिनमें से 1498 लोगों को इसका प्रमाण पत्र मिल भी गया है. जिला क्षय अधिकारी गोविंद सिंह के मुताबिक, 2023-24 में ही तकरीबन 12 हजार 400 लोगों की स्क्रीनिंग हो चुकी है. इनमें तकरीबन 2240 लोगों को सिलिकोसिस से पीड़ित पाया गया.

विधवाओं की बस्ती बनता जा रहा है धौलपुर का एक गांव

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सड़क के रास्ते से होते हुए दिल्ली से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर जब हम धौलपुर पहुंचे तो हमारा पहला पड़ाव था, बाड़ी क्षेत्र का बरौली पुरा गांव. यहां पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. बाड़ी के पास सरमथुरा स्टोन एक्सपोर्ट के बगल एक पतली और संकरी, जहां-तहां उखड़ी हुई रोड बरौली पुरा ले जाती है. गाड़ी छोड़िए, इस सड़क पर पैदल चलना भी मुश्किल था. 

गांव के बाहर ही रघुबर दयाल मिल गए. उम्र 60 के आसपास या उससे एकाध साल ज्यादा होगी. हमने पूछा- चाचा क्या सिलिकोसिस की बीमारी वाला गांव यही है. उधर से सिर हिलाते हुए हां का जवाब आया. हमने पता किया कि गांव में इस बीमारी से हाल-फिलहाल किसी की मौत भी हुई है क्या? हांफती हुई आवाज में जवाब आता है. “ये बीमारी जिसको हो गई, उसका मरना तय है. हर महीने -दो महीने पर इससे किसी ना किसी की मौत हो जाती है. यहां तो हालात ऐसे हैं कि 70 प्रतिशत घरों में विधवाएं हैं.

ये सब बताते हुए रघुबर दयाल कई बार खांस चुके थे. पूछा गया तो पता चला कि वो भी खदान में काम करते थे. सिलिकोसिस हुआ तो काम छोड़ना पड़ा. बाद में बीमारी का प्रमाण पत्र मिल गया. 3 लाख रुपये की मदद मिली. 1500 रुपये पेंशन मिलती है. लेकिन डर लगा रहता है कि कब जान चली जाए. शरीर का हाल दिख ही रहा था, सीना एकदम अंदर धंसा हुआ.

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सरकार से इतनी मदद मिली तो इलाज में दिक्कत नहीं होती होगी?

रघुबर दयाल  बिफर पड़ते हैं- 3 लाख रुपये कितने दिन चलेंगे. सब इलाज में खर्च हो गए.

लेकिन इलाज तो फ्री है?

रघुबर दयाल बताते हैं- शुरुआत में सरकारी अस्पताल से ही इलाज कराया. लेकिन वहां कभी दवाएं होती हैं कभी नहीं. दवाएं भी फायदा नहीं करतीं. इसलिए बाहर से ही इलाज ले रहा हूं. एक हफ्ते की दवा तकरीबन 5 हजार रुपये तक की आती है. 1500 रुपयों की पेंशन में बताइए कहां से आ पाएगी. बच्चे पैसे देते हैं तो दवा ले लेता हूं, नहीं तो ऐसे ही तकलीफ में पड़ा रहता हूं.

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सोहन देई और रघुबर दयाल

गांव में थोड़ा आगे बढ़ने पर रेखा (उम्र- 35 साल) मिलती हैं. सांवला रंग, दुबला शरीर. पिछले साल ही उनके पति की मृत्यु सिलिकोसिस के चलते हो गई थी. उन्होंने बताया कि 15 साल पहले जब शादी हुई, पति खदान में काम करते थे. शुरुआत में मुझे नहीं पता था कि खदान में काम करने से तबीयत खराब होती है. बाद में पता चला, लेकिन घर का खर्च तो चलाना ही था इसलिए कोई रोकटोक नहीं की.

रेखा से बात करते-करते एक दो महिलाएं और आ गईं. रेखा के साथ खड़ी एक अन्य महिला लक्ष्मी बताती हैं कि इस बीमारी ने कई लोगों के पतियों को खा लिया. गांव के तकरीबन 70 प्रतिशत घरों में कोई ना कोई विधवा है.

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हाल ही में गांव में रहने वाले एक व्यक्ति गुलाब की मौत भी इसी बीमारी से हुई. उसकी पत्नी अब भी मजदूरी पर गई हुई है. लक्ष्मी आगे बताती हैं कि मेरा आदमी तो अभी भी खदान में काम करता है. खांसी आती रहती है, ऐसे में सिलिकोसिस के लिए रजिस्ट्रेशन कराया था. लेकिन रिजेक्ट हो गया. डर लगा रहता है कहीं कुछ हो ना जाए.

रेखा कहती हैं कि शुरुआत में तो समझ ही नहीं आता क्या हुआ. फिर धीरे-धीरे तकलीफ सहने की आदत हो जाती है. आदमी के साथ-साथ पूरे परिवार को झेलना पड़ता है. कमाने वाला ही बीमार पड़ गया तो खाने-पीने तक का संकट हो जाता है. फिर भी कोशिश रहती है कि आदमी बच जाए. आगे भगवान की मर्जी

पास ही बैठे राजू नाम के एक व्यक्ति ने बताया कि गांव में 45 पार के पुरुष कम ही बचे हैं. जो बचे हैं, उन्हें भी सिलिकोसिस है. बहुत कम हैं, जिनको प्रमाण पत्र मिला हुआ है. बाहर से दवाएं करा रहे हैं. बहुत पैसा खर्च हो जाता है. अधिकतर की हालत यही है कि कभी दवा ले ली, कभी नहीं. हमने अपने बच्चों को नहीं जाने दिया इस काम में. हम जान-बूझकर बच्चों को क्यों झोंकें.

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रेखा, राजू, लक्ष्मी और उनके पड़ोसी

बता दें कि राजस्थान सिलिकोसिस की पॉलिसी लागू करने वाला देश का पहला राज्य है. सिलिकोसिस पीड़ित मरीजों को 3 लाख रुपये की आर्थिक मदद और 1500 रुपए महीने की पेंशन देने का भी प्रावधान है. हालांकि, इसके बावजूद मरीजों और मौतों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.

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राजस्थान में लंबे समय से खनन मजदूरों के लिए कार्य कर रही गैर सरकारी संस्था माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन के मैंनेजिंग ट्रस्टी डॉ. राणा सेनगुप्ता बताते हैं, राजस्थान में 33 हजार लीगल खदानें हैं. इनसे तकरीबन 25 लाख वर्कर जुड़े हुए हैं. इसमें से ना जाने कितने सिलिकोसिस से पीड़ित होंगे.

पत्थरों की कटाई, गढ़ाई, पिसाई, कंस्ट्रक्शन का काम करने वाले सबसे ज्यादा इस बीमारी के शिकार बनते हैं और उनकी मौत हो जाती है. ऐसा इसलिए होता है कि सिलिकोसिस के इलाज के लिए उतने स्किल्ड डॉक्टर नहीं. वे लक्षण के आधार पर दवाएं दे देते हैं. उन्हें चाहिए वह मरीज का इतिहास जानें कि वह कहां और किस तरह का काम करता है.

ऐसा नहीं करने के चलते या तो सिलिकोसिस की पहचान लास्ट स्टेज में हो पाती है, या हो ही नहीं पाती है. ऐसे में ना जाने कितने लोगों की मौत ये जाने बिना हो जाती है कि उन्हें सिलिकोसिस है. ये जरूरी है कि सरकार के टीबी प्रोगाम में सिलिकोसिस से जुड़े सवाल भी जोड़े जाएं.

डौमपुरा में 40 साल के ऊपर के पुरुषों की संख्या गिनती में

डौमपुरा गांव की रहने वाली विधवा तोफा ने बताया कि उनके एक बेटे की सिलिकोसिस से मौत हुई तो वे दूसरे बेटे को इस काम में न जाने देने पर अड़ गईं. वे कहती हैं- मैंने पूरी कोशिश की. उसे खदान में जाने से तो रोक लिया लेकिन किस्मत ने उसे भी अकाल मौत दे दी. अब मैं स्कूल में खाना बनाकर गुजर-बसर कर रही हूं. वहीं, एक अन्य महिला विद्या बताती हैं कि इस गांव में भी तकरीबन 60 प्रतिशत घरों में कोई ना कोई विधवा है.

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यहीं के रहने वाले रघुबीर कहते हैं कि सिलिकोसिस से मौत के बाद बेटा अपने पीछे 3 बेटियां और 2 बेटे छोड़ गया. मैं तो कोई काम नहीं कर पाता. 1500 रुपये सिलिकोसिस पेंशन मिलती है. खुद का इलाज कराऊं या इन बच्चों का पेट भरूं. कोई रिश्तेदार मदद कर देता है तो दवा ले लेता हूं नहीं तो, सब भगवान भरोसे है. मुझे तो इस बात से चिंता होती है मेरे बाद इन बच्चों का क्या होगा.

दाएं दूसरा शख्स रघुबीर और गांव के अन्य लोग

लगातार होती मौतों से बरौली का पुरा और डौमपुरा समेत यहां के रानपुरा, चांदपुरा समेत दर्जनों गांवों में दहशत का माहौल है. अपने बच्चों को बचाने के लिए लोगों ने उन्हें पत्थर की खदानों में काम करने से रोक दिया है.

इन गांवों के युवा अब बाहर दूसरे राज्यों में मजदूरी करते हैं. इन्हीं में एक शिवम कुमार से गांव के बाहर एक छोटी सी चाय की दुकान पर मुलाकात हो गई. शिवम के मुताबिक, वह केरल में ग्रेनाइट की घिसाई का काम करते हैं. धूल तो उसमें भी उड़ती है, लेकिन इतनी दिक्कत नहीं है. गांव में अब तक 40 से ज्यादा लोगों की सिलिकोसिस से मौत हो चुकी है. हर महीने-दो महीने पर किसी की मौत की खबर आती है. मेरे पापा को भी सिलिकोसिस है ऐसे में डर लगा रहता है कब क्या हो जाए. इसलिए हर दो महीने पर वापस घर चला आता हूं.

शिवम आगे बताते हैं कि गांव में अब भी लोग पत्थरों की खदान पर काम कर रहे हैं. उनके खुद के चाचा मोतीलाल एक खदान में काम कर रहे हैं. बातचीत के दौरान ही शिवम हमें वहां ले गए, जहां उनके चाचा काम करते हैं. यहां मोतीलाल से मुलाकात हो गई. फिर सवाल जवाब हुए.

डर नहीं लगता बीमार हो जाओगे?

खांसी तो अभी भी बहुत आती है, लेकिन घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी है. बेलदारी में उतनी मजदूरी नहीं मिलती, जितनी यहां मिल जाती.

कितनी मिलती है?

400 से 500 और बेलदारी में 250 से 300 ही मिल पाते हैं.

जिला क्षयरोग अधिकारी डॉ गोविंद सिंह बताते हैं कि सिलिकोसिस का वैसे तो कोई इलाज नहीं, लेकिन इसकी रोकथाम संभव है. जिसे भी सिलिकोसिस है, वह अगर ठीक दवाएं ले और खानपान ठीक रखे तो जिस स्टेज पर सिलिकोसिस है, उसे वहीं रोका जा सकता है. पहले के मुकाबले अब तो स्थिति में काफी सुधार हो गया. लोगों में जागरुकता भी थोड़ी बढ़ी है. अगर किसी को लगता है, उसे सिलिकोसिस का लक्षण है, तो उसे ई-मित्र पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराना होगा. फिर उसे एक डेट मिलती है. उस दिन हम उसका एक्सरे करते हैं और उसे पोर्टल पर अपडेट कर देते हैं. 

इसके बाद उस मरीज को कोई रेडियोलॉजिस्ट अलॉट हो जाता है. रेडियोलॉजिस्ट भी अपना एक्सरे कर कन्फर्म करता है कि मरीज के लक्षण सिलिकोसिस वाले हैं या नहीं. अगर रिपोर्ट पॉजिटिव हो तो उसका आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है. उसे 3 लाख की आर्थिक मदद और 1500 रुपये पेंशन मिलनी शुरू हो जाती है. साथ ही उसका इलाज फ्री में किया जाता है.

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