प्रयागराज के संगम तट पर महाकुंभ-2025 का आगाज हो चुका है. इस वक्त उत्तर प्रदेश का यह शहर भारत की आध्यात्मिक चेतना का शहर बना हुआ है, जहां आस्था का महा जमघट है और इसकी चर्चा पूरे विश्व में हो रही है. कुंभ मेला भारत का वो धार्मिक आयोजन है, जिसकी लिखित ऐतिहासिक प्राचीनता भी कम से कम 3200 साल पुरानी है, जो पूरे विश्व में प्रचलित किसी भी धार्मिक आयोजन की नहीं है.
अंग्रेजों के लिए चौंकाने वाला कुंभ का आयोजन
अंग्रेज जब भारत आए थे, तब उन्होंने इस विशाल आयोजन को बहुत चौंकाने वाला माना था और इसकी गतिविधियों को वह दीदे फाड़कर देखते थे. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक धनंजय चोपड़ा ने अपनी किताब 'भारत में कुंभ' में अंग्रेजों के समय यानी ब्रिटिश कालीन कुंभ मेले के हाल और ब्योरा रखा है. उन्होंने लिखा है कि 'अंग्रेजों के लिए कुंभ आयोजन किसी कौतूहल से कम नहीं था. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इसे ग्रेट फेयर कहते थे.'
ईसाई मिशनरी के लोग भी पहुंचे थे कुंभ
किताब की मानें तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने मेले को आमदनी बढ़ाने का जरिया माना था और इसलिए भी उन्होंने इस मेले पर ध्यान देना शुरू किया. शुरुआत में कई अधिकारी सहित ईसाई मिशनरी के लोग भी इस महामेले को समझने जाया करते थे. शायद अंग्रेजों की सोच इस बहुत बड़े आयोजन को भी कैप्चर करने की रही होगी. अंग्रेज अफसरों ने कुंभ को लेकर अपनी अपनी रिपोर्ट भी तैयार की.
कुंभ मेले पर अंग्रेजों ने लिखी हैं कई रिपोर्ट
इस रिपोर्ट के आधार पर ही आगे चलकर कंपनी की बंगाल आर्टिलरी के मेजर जनरल थॉमस हार्डविक ने हरिद्वार कुंभ की रणनीति बनाई थी. इस तरह का पहला रिपोर्ताज 1796 ई. में ईस्ट इंडिया मिशनरियों ने कुंभ पर लिखा था.
जिसमें 'एक्सकर्सस इन इंडिया' के लेखक थॉमस स्किनर (सन् 1826), 'वांडरिंग ऑफ ए पिलिग्रिम इन सर्च ऑफ द पिक्चरस्का नामक केस स्टडी के लेखक फेनी पार्क्स (सन् 1822-1850), 'द इंडियन इंपायर' के लेखक रॉबर्ट मोंटगोमेरी मार्टिन (सन् 1861), 'इंपीरियल गजेटीयर ऑफ इंडिया' के लेखक सर विलियम विलसन हंटर (सन् 1869), 'डायरी ऑफ ट्रेवल्स एंड एडवेंचर्स इन अपर इंडिया' के लेखक सी.जे.सी. डेविडसन (सन् 1938)
आदि प्रमुख हैं.
कुंभ में क्या-क्या होता था? अंग्रेजों की रिपोर्ट
मेजर जनरल थॉमस हार्डविक ने सन् 1796 के हरिद्वार कुंभ मेले का वर्णन करते हुए 'एशियाटिक रिसर्चेज' में प्रकाशित अपने आलेख में लिखा था कि “इस मेले में 20-50 लाख लोग एकत्र हुए थे, जिसमें शैव गोसाईं की संख्या सबसे अधिक थी. इसके बाद वैष्णव बैरागियों की संख्या थी. गोसाईं ही मेले का प्रबंध संभाले हुए थे और उनके हाथों में तलवारें और ढाल हुआ करती थीं. रिपोर्ट में लिखा था कि महंत लोगों की परिषद नियमित रूप से लोगों की परेशानियों और शिकायतों को सुनती थी और उनका हल सुझाती थी. यही लोग कर (टैक्स) लगाते और उसे इकट्ठा भी करते थे.
पहली बार कुंभ मेले के लिए हुई थी मेला अफसर की तैनाती
हार्डविक ने अपने आलेख में मेले के दौरान सिक्ख उदासीनों और शैव गोसाईं के बीच संघर्ष का भी विवरण दिया है और लिखा है कि इस संघर्ष में 500 गोसाई और उनके एक महंत मौनपुरी मारे गए थे. हार्डविक ने यह भी लिखा कि इस संघर्ष पर विराम तभी लगा, जब ब्रिटिश कैप्टन मूरे ने सिपाहियों की दो कंपनी वहाँ भेजी. इस घटना के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी प्रशासन चौकन्ना हो गया था. सन् 1808 के कुंभ में पहली बार मेला अफसर के रूप में एक अंग्रेज अफसर फेलिक्स विंसेट रैपर की तैनाती की गई. कहते हैं कि किसी कुंभ मेले में मेला अधिकारी तैनात होने की यह पहली शुरुआत थी.
प्रयागराज के कुंभ में क्या था खास?
ब्रिटिश सैनिक व लेखक थॉमस स्किनर सन् 1832 में अपनी पुस्तक 'एक्सकर्सस इन इंडिया' में प्रयाग के मेले का बहुत संजीदा वर्णन किया है. वह लिखते हैं कि “यह एक धार्मिक मेला था, यहां कोई वस्तु बिकती हुई नहीं मालूम हुई. केवल स्नान-ध्यान और पूजा-पाठ ही वहां का मुख्य कार्य-कलाप था . बहुत से तख्त आठ-दस फुट के लगभग चौकोर, जिनमें ऊंचे-ऊंचे पाए लगे थे, पानी में (किनारे के तट) रखे हुए थे. उन पर बड़ी-बड़ी छतरियां लगी थीं, जिनके नीचे लोग बैठकर विश्राम करते थे. इसके बीच पंडों के आसन थे. यह आने वाले तीर्थयात्रियों के अध्यात्मिक गुरु भी थे. वे अपनी जगह से हिलते न थे. उनके हाथ में मालाएं थीं और वे अपने यजमानों की परालौकिक कामनाओं की पूर्ति भी करते थे. यह एक बड़ा ही मनोरंजक दृश्य था .”