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अफगान संकट से कैसे निपटे भारत, जानें क्या है देश के 2 पूर्व विदेश मंत्रियों की राय

अफगानिस्तान में मानवीय त्रासदी के बीच क्या वहां से सिर्फ अपने ही नागरिक निकालने चाहिए से जुड़े सवाल पर पूर्व विदेश मंत्री ने कहा कि देखिए, आप कितने लोग वहां से ले सकते हैं. यह सच्चाई है. संवेदनशीलता की बात अलग होती है. उदारता की बात अलग होती है.

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बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान छोड़ने की कोशिश में जुटे हुए हैं (पीटीआई)
बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान छोड़ने की कोशिश में जुटे हुए हैं (पीटीआई)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • 'तालिबान के साथ भारत का व्यवहार वहां की नई सरकार पर निर्भर'
  • पाक की दखंलदाजी बढ़ी तो भारत का रुख अलगः यशवंत सिन्हा
  • हर देश को अपने हित के लिए कुछ शर्तें लगानी पड़ती हैः सलमान खुर्शीद

तालिबान के कब्जे के बाद अफगान संकट को लेकर हर ओर चिंता देखी जा रही है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. आजतक ने देश के 2 पूर्व विदेश मंत्रियों से अफगान संकट को लेकर भारत सरकार के स्टैंड के बारे में जानने की कोशिश की. साथ ही यह भी जानना चाहा कि क्या वहां फंसे लोगों में से सिर्फ भारतीयों को निकालना चाहिए.

पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने आजतक के साथ खास बातचीत में कहा कि अफगानिस्तान के मसले पर मैं देख रहा हूं कि यहां पर एक प्रचलन चल पड़ा है कि लोग इसे भारत की राजनीति के साथ जोड़ कर देख रहे हैं जो लोग समाज को बांटने की कोशिश करते हैं या विश्वास करते हैं उन लोगों को बड़ा हथियार मिल गया है तालिबान-अफगानिस्तान में.

उन्होंने कहा कि पहले यह साफ हो जाए. घरेलू राजनीति हमारी अलग है. विदेश नीति अलग है. तालिबान के साथ हमारा क्या व्यवहार होना चाहिए क्या यह इस पर नहीं निर्भर करेगा कि किसी प्रकार की सरकार काबुल में बनती है. मान लीजिए कि अगर वहां पर सब लोगों को मिला-जुला कर राष्ट्रीय सरकार बनती है तो भारत सरकार का रुख क्या होगा. अगर विशुद्ध रुप से तालिबान की सरकार बनती है तो निश्चित रुप से भारत का रुख अलग होगा. अगर इसमें हक्कानी नेटवर्क को शामिल किया जाता है तो जाहिर है कि भारत का रुख अलग होगा. उसमें पाकिस्तान की दखंलदाजी बढ़ती है तो भारत का रुख अलग होगा.

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पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा (File-PTI)
पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा (File-PTI)

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पूर्व विदेश मंत्री सिन्हा ने यह भी कहा कि कई चीजें ऐसी हैं जो अभी स्थिर नहीं हुई है. उस पर नजर रखना जरुरी है. अभी तो जरुरी काम यह था कि वहां जो भारतीय लोग हैं उन्हें वहां से निकालना और वापस लाना चल रहा है. हालांकि मैं फिर से कहूंगा कि भारत के राजदूत को काबूल छोड़कर इतनी जल्दी वापस नहीं आना चाहिए था. अगर वो वहां होते तो इन सब चीजों का समन्वय करने में आसानी होती. वहां की क्या सच्चाई है, इस बारे में हमें सीधे उनसे सूचना मिलती. लेकिन खैर जो हो गया वो हो गया. हालांकि मैं कहूंगा कि अनिश्चितता को देखते हुए भारत को बेहद सावधानी के साथ घटनाक्रम पर नजर रखनी चाहिए कि वहां पर क्या विकासक्रम होते हैं.

'क्या भारत तालिबान से शर्तों पर बात करे'
इससे पहले पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने अफगानिस्तान की समस्या को लेकर आजतक के साथ बातचीत की. तालिबान के साथ कुछ शर्तों के साथ भारत की बातचीत करने को लेकर पूछे गए सवाल पर पूर्व विदेश मंत्री ने कहा कि हर देश को अपने हित के लिए कुछ शर्तें तो लगानी पड़ती है. लेकिन देश शर्त तब लगा पाता है जब उसके पास बातचीत के लिए कुछ वेटेज होता है. वो आज हमारे पास है या नहीं. लेकिन कल के लिए अफगानिस्ता में हमारे पास था, हमने वहां काफी कुछ किया. हमने वहां जाकर सलमा डैम बनाया, संसद की इमारत बनाई, स्कूल बनाए, सड़कें बनाई, पावर लाइंस आदि बहुत कुछ दिए. कई लोगों को हमने स्कॉलरशिप देकर यहां बुलाया. तब हमारे पास काफी वेटेज था क्योंकि हम बहुत कुछ उनके लिए कर रहे थे.

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बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान छोड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं (पीटीआई)
बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान छोड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं (पीटीआई)

उन्होंने आगे कहा कि लेकिन अब वहां जो सरकार बनने जा रही है उसको लेकर यहां अंदरुनी चर्चा करनी पड़ेगी. उस वेटेज को रखते हुए ही कुछ निकलेगा. इस समय मामला पूरा संवेदनशील है और बहुत आसानी से अपने हित में मोड़ना एक बड़ी समस्या है. एक राय होकर भारत अगर अफगानिस्तान के सामने अपनी बात सामने रखेगा तो उम्मीद है कि कोई न कोई रास्ता निकलेगा.

अफगानिस्तान में मानवीय त्रासदी के बीच क्या वहां से सिर्फ अपने ही नागरिक निकालने चाहिए से जुड़े सवाल पर पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि देखिए, आप कितने लोग वहां से ले सकते हैं. यह सच्चाई है. संवेदनशीलता की बात अलग होती है. उदारता की बात अलग होती है. बहुत बड़े-बड़े और शक्तिशाली देश आखिर कितने लोगों को अफगानिस्तान से ले पाएंगे. फिर इन लोगों को लेने के बाद आगे उनका क्या भविष्य बन पाएगा. 

 

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